सीबीआई की साख पर उठते सवाल!

- नंबर एक और दो के बीच तनातनी पर चुप्पी ने खड़े किये सवाल
- इस मामले में सीवीसी का रोल भी सवालों के घेरे में
- आलोक वर्मा के मौजूदा मामले में सबसे बड़े दोषी खुद वर्मा
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
देहरादून : भ्रष्टाचार मामलों की जांच करने वाले देश की सबसे बड़ी और अब तक कथित रूप से विश्वसनीय रही प्रीमियम जांच एजेंसी सीबीआई का शीर्ष तबका लगातार हैरतअंगेज तरीके से भ्रष्टाचार में फंसता दिख रहा है। पूर्व निदेशक ए. के. सिंह और रंजीत सिन्हा के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच के बाद आलोक वर्मा को भी तकनीकी तौर पर भ्रष्टाचार और नियमों से परे जा कर काम करने की वजह से ही पद से हटाया गया। इतना ही नहीं सीबीआई नंबर दो वरिष्ठ अधिकारी विशेष निदेशक राकेश अस्थाना को भी हाईकोर्ट ने कोई राहत नहीं देते हुए उनके खिलाफ घूसखोरी की जांच जारी रखने को कहा है। इन सब मामलों के बाद देश की आम जनता के सामने अब यह सवाल खड़ा हो गया है कि जांच को लेकर अब वह आखिर विश्वास करे भी तो किस जांच एजेंसी पर करे। जब सीबीआई के तमाम बड़े अधिकारी भ्रष्टाचार से बचने के लिए खुद ही जद्दोजहद कर रहे हैं।
सीबीआई की स्वायत्ता के लिए सुप्रीम कोर्ट में लंबी लड़ाई लड़ने वाले विनीत नारायन ने बातचीत में कहा कि सीबीआई के शीर्ष पद की इस स्थिति से साफ है कि निदेशक और उसके बाद के पदों के लिए अधिकारियों की नियुक्ति की प्रक्रिया में गंभीर दोष है। आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना की लड़ाई से सिस्टम में मौजूदा कई खामियां उजागर हुई हैं। गौरतलब है कि 1990 के दशक में नारायण की जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की स्वायत्ता पर ऐतिहासिक फैसला दिया था। जिसे विनीत नारायण केस के नाम से जाना जाता है।
नारायण के मुताबिक अब इसमें कोई संदेह नहीं रह गया है कि सभी सरकारें सीबीआई का अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करती रही है। सरकार और सुप्रीम कोर्ट को मिलकर इसका जल्द निवारण करना होगा। नारायण के मुताबिक किसी भी सरकार के आखिरी साल में सीबीआई को किसी राजनीतिक प्रतिद्वद्वी के खिलाफ कार्रवाई करने पर प्रतिबंध लगा दिया जाए यह खुद सीबीआई की साख पर सवाल तो खड़े करेगा ही।
नारायण ने कहा कि आलोक वर्मा के मौजूदा मामले में सबसे बड़े दोषी खुद वर्मा हैं। सीबीआई निदेशक होने के नाते उन्हें बात यहां तक बढने नहीं नहीं देना चाहिए था। वह डीओपीटी, गृहमंत्रालय, पीएमओ से राय मशविरा कर मामले को निबटाने के बजाए आरोप प्रत्यारोप और अखबारबाजी में फंसे रहे। इस मामले में सीवीसी का रोल भी सवालों के घेरे में है। संवैधानिक संस्था होने के नाते सीवीसी मामले को रोकने के लिए बहुत कुछ कर सकती थी।
नारायण के ही याचिका पर दिए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने सीवीसी को सीबीआई की निगरानी करने का आदेश दिया था। लेकिन सीवीसी कुछ नहीं कर पाई। नारायण ने कहा कि पीएमओ ने भी समय रहते कोई कार्रवाई नहीं की। पीएमओ को करीब एक साल से मालूम था कि सीबीआई में नंबर एक और दो के बीच तनातनी चल रही है। अगर समय रहते पीएमओ ने दखल दिया होता तो स्थिति इतनी खराब नहीं होती।