”रैबार” के बाद संस्था का यह है दूसरा फ्लॉप आयोजन
सरकारी इमदाद से आयोजित होते हैं ऐसे कार्यक्रम
उठे सवाल कि आर्थिक कमी से जूझ रहे उत्तराखंड को इसका क्या मिलेगा फायदा !
या केवल आयोजकों की भरेंगी जेबें !
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
देहरादून : केदारनाथ में एक आपदा वर्ष 2013 की जून में आयी और अब एक और आपदा को कहीं आमंत्रण तो नहीं दिया जा रहा है यह सवाल आजकल उत्तराखंड की फिजाओं में तैर रहा है क्योंकि एक संस्था के आव्हान पर शीतकाल में पर्यटन की संभावनाओं को तलाशने को निकलने वाली 51 कथित रूप से एक्सपर्ट लोगों की टीम ने केदारनाथ में हो रही बर्फवारी के चलते वहां अपना सरकारी तौर पर आयोजित होने वाले ”पिकनिक” कार्यक्रम को फिलहाल टाल दिया है। चर्चा है कि यह कार्यक्रम देश के नंबर एक समाचार चैनल ”आजतक” में काम करने वाले एक रिपोर्टर ने अपनी पत्नी के नाम से पंजीकृत संस्था ” हिलमेल ” के द्वारा आयोजित करवाया जा रहा है।
गौरतलब हो कि इसी संस्था द्वारा बीते दो महीने पहले उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून में मुख्यमंत्री के सरकारी आवास में ”रैबार” कार्यक्रम आयोजित किया गया था , हालाँकि यह कार्यक्रम पूर्णतः फ्लॉप शो साबित हुआ क्योंकि यह कार्यक्रम उत्तराखंडियों को कोई सन्देश यानि ”रैबार” नहीं दे पाया था। इतना ही नहीं इस कार्यक्रम के आयोजन पर सरकार की खासी किरकिरी भी हुई थी क्योंकि इस कार्यक्रम में स्थानीय जनप्रतिनिधियों को नहीं बुलाया गया था, जो इस कार्यक्रम में आये विचारों का ”रैबार” जन -जन तक पहुंचा पाते। इतना ही नहीं इस कार्यक्रम के आयोजन को लेकर राजधानी में चर्चा तो यहाँ तक हुई थी कि सरकार में इसपर करोड़ों रुपये की फिजूलखर्ची कर आर्थिक कमी से जूझ रहे उत्तराखंड को और कंगाल बना दिया।
जहाँ तक आज से शुरू होने वाले कार्यक्रम का सवाल चर्चाओं में है कि मौसम की मार और केदारनाथ में हो रही बर्फवारी के चलते इस कार्यक्रम को फिलहाल टाल दिया गया है लेकिन उत्तराखंड के कई धर्माधिकारियों ने सरकार के संरक्षण में हो रहे इस ”पिकनिक” कार्यक्रम पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि जब शीतकाल में बाबा केदार ध्यानमग्न होते हैं तो ऐसे समय में उनकी तंद्रा को तोड़ना कितना धार्मिक होगा यह तो समय ही बताएगा। उन्होंने कहा आपदा से पूर्व कई नेताओं और लोगों द्वारा आपदा का कारण केदारपुरी के तीर्थ पुरोहितों और पंडितों ठहराते हुए उनको निशाना बनाया था कि उनके ही कृत्यों के कारण केदारनाथ को आपदा झेलनी पड़ी , लेकिन सरकार के संरक्षण और एक संस्था के अगुवाई में होने वाले कथित रूप से शीतकाल में पर्यटन की संभावनाओं को तलाशने के इस ”पिकनिक” कार्यक्रम से केदारनाथ को कितना लाभ होगा यह तो आयोजनकर्ता और सरकार ही बता सकती है, लेकिन यह तय है यह केवल फिजूल खर्ची से सिवा कुछ नहीं। क्योंकि यदि इस कार्यक्रम के आयोजकों को उत्तराखंड में शीतकाल में पर्यटन की संभावनाओं को तलाशना ही था तो किसी उन्हें उत्तराखंड के किसी चर्चित ”ट्रैक ” रुट पर अपनी इस 51 सदस्यीय एक्सपर्ट लोगों की टीम को उतरना चाहिए था जहाँ अभी अनछुए प्रकृति के नज़ारे देश और दुनिया को देखने को मिलते?
वहीँ इस आयोजन पर राज्य के सुदूरवर्ती पर्वतीय इलाकों में ट्रैक आयोजित करने वाले ट्रैकरों का कहना है केदारनाथ का ट्रैक तो देश दुनिया ने देखा और वहां वह गया भी है लेकिन इस वक़्त जरुरत है उन ट्रैक रूटों को सामने लाने की और वहां तक पहुँचने के मार्गों की दशा सुधारने की। पिछले कई सालों से ”हरि की दून” ट्रैक पर बंगाल सहित देश विदेश के सैलानियों को ट्रैक करवाने वाले सत्येंद्र सिंह का कहना है कि हमारी सरकार विश्वस्तरीय ट्रैक मोरी से सांकरी और ताल्लुका सहित केदार कांठा के बेस कैंप तक पहुँचने का मोटर मार्ग हो नहीं सुधार पायी है तो ऐसे में मात्र गौरीकुंड से पैदल चलकर केदारनाथ पहुंचकर वह क्या संदेश देना चाहती है यह उनकी समझ से परे है क्योंकि केदारनाथ यात्रामार्ग तो गौरीकुंड से केदारनाथ तक आम श्रद्धालु आपदा के बाद से लगातार चढ़ता रहा है यह सरकारी आंकड़े खुद ही बयां करते हैं कि आपदा के बाद से इस साल तक इस धाम में यात्रियों के संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है और पिछली सरकार सहित वर्तमान सरकार इस मार्ग की दशा सुधारने को निरंतर प्रयत्नशील भी रही है इनका कहना है आपदा के बाद का सरकारी रिकॉर्ड बताता है कि यहाँ तो श्रद्धालुओं को आना ही है चाहे मार्ग कैसा ही क्यों न हो क्योंकि 2013 में जब आपदा के बाद विजय बहुगुणा सरकार ने यात्रा शुरू की थी तब भी बिना अच्छे पैदल मार्ग के भी सैकड़ों श्रद्धालु केदारनाथ पहुंचे थे।
जहाँ तक शीतकाल में पर्यटन की संभावनाओं को तलाशने को निकलने वाली 51 कथित रूप से एक्सपर्ट लोगों की टीम के कार्यक्रम का सवाल है केदारनाथ जैसे धार्मिक और हिमरेखा के करीब स्थित पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील इस इलाके में वहां पहुंचे ”51 कथित रूप से एक्सपर्ट लोगों” के मनोरंजन के लिए ”बोन फायर” और ”बड़ा खाना ” जैसे कार्यकम का आयोजन करने वाली है जैसा कि उनके कार्यक्रम के लिए जारी पत्र से पता चलता है। अब सवाल यह उठता है कि क्या पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील इस इलाके में ”बोन फायर” करना पर्यावरण के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या है और ”बड़ा खाना ” जैसा आयोजन इस इलाके की धार्मिक मान्यताओं के कितने खिलाफ है। यह तो इस कार्यक्रम के आयोजक ही बता पाएंगे लेकिन पर्यावरणविदों के लिए यह अवश्य चिंता का विषय बन गया है।
कुल मिलाकर सरकार के संरक्षण में आयोजित होने वाले इस कथित ”पिकनिक” कार्यक्रम पर उत्तराखंड सहित देश के पर्यावरणविदों सहित धर्माधिकारियों की नजरें टिक गयी है कि आखिर ऐसे आयोजनों से उत्तराखंड को क्या हासिल होगा और आयोजकों की कितनी जेबें सरकारी इमदाद से भरेंगी। सबसे बड़ा सवाल यह भी खड़ा है कि उत्तराखंड में पर्यटन की संभावनाओं को तलाशने को निकलने वाली 51 कथित रूप से एक्सपर्ट लोगों की टीम को जब केदारपुरी में बर्फवारी के चलते अपना कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा तो ऐसे में उत्तराखंड के सुदूरवर्ती अंचलों में रह रहे लाखों स्थानीय निवासियों को ये लोग क्या सन्देश देंगे जो भारी बर्फवारी और विपरीत परिस्थितियों के बीच ऐसे इलाकों में अपना जीवन यापन करने को मजबूर हैं। इससे यह साफ़ हो गया है कि चाहे इस ”पिकनिक” के आयोजक और आयोजन में शामिल लोग उत्तराखंड के पवित्र धाम केदारनाथ केवल ”पिकनिक” ही मनाने आ रहे हैं उनका स्थानीय मुद्दों से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं !