ऐतिहासिक झंडे मेले को लेकर तैयारियों का दौर शुरू
किसी किसी के नसीब में होता है दर्शनी गिलाफ चढ़ाना
देहरादून। राजधानी के ऐतिहासिक झंडे मेले को लेकर तैयारियों का दौर शुरू हो गया है और पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड के विभिन्न जिलों के सेवक दरबार साहिब झंडा परिषद व महाराज पर मत्था टेका और आशीर्वाद लिया। वहीं आज दौड़वाला से आज झंडेजी के लिए लकड़ी लाई गई और जिसकी पूजा की गई और उन्हें स्थापित किया गया।
संगतों का बाहर से यहां आने का सिलसिला कायम है। 17 मार्च से विधिवत रूप से झंडे के चढने के साथ ही मेला शुरू हो जायेगा। जो लगभग एक माह तक चलेगा। इसी के अंतर्गत 19 मार्च को नगर परिक्रमा होगी जिसमें महाराज देवेन्द्र दास खुद शिरकत करेंगे।
यहां बताया गया कि 17 मार्च को प्रात: आठ से नौ बजे तक झंडाजी को उतारने का कार्यक्रम चलेगा और झंडा को सेवकों द्वारा दही, घी, गंगाजल से स्नान कराया जायेगा। 10 बजे से सादा गिलाफ चढाने का कार्यक्रम चलेगा और दोपहर एक बजे से सनील के गिलाफ चढाये जायेंगे और इस दौरान महाराज झंडा परिसर में सेवकों को आशीर्वाद देते है और सेवक उनके गले में फूल माला चढाते है।
संगतों द्वारा दरबार साहिब में मत्था व सेवा की जायेगी और महाराज देवेन्द्र दास द्वारा आशीर्वाद दिया जायेगा। उनका कहना है कि दर्शनी गलेफ उठाया जाता है और करीबन पांच बजे तक श्री महाराज द्वारा झंडाजी आरोहण कर दिया जायेगा। संगतों द्वारा दरबार साहिब में मत्था ठेकना व सेवा की जाती है और आशीर्वाद वह स्वयं महाराज श्री देते है।
ऐतिहासिक झंडा मेला देहरादून में आगामी 17 मार्च से शुरू हो रहा है। इस मेले में देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। दर्शनी गिलाफ चढ़ाने के लिए यहां संगतें पहुंचनी शुरू हो गई हैं। लगभग एक माह तक चलने वाले इस मेले में हर साल लगभग दस लाख से भी अधिक श्रद्धालु पहुंचते हैं। प्रशासन ने मेले की सुरक्षा की तैयारियां शुरू कर दी हैं।
मेले की कहानी
देहरादून के बीचोंबीच स्थित झंडा साहिब की कहानी 1675 में शुरू हुई थी। नानक पंथ के सातवें गुरु हरराय महाराज के ज्येष्ठ पुत्र गुरु रामराय ने देहरादून के इसी स्थान पर झंडा चढ़ाया था। इसके बाद इसने एक परंपरा का रूप ले लिया। हर साल यहां झंडा चढ़ाया जाता हैै। यह एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परंपरा है जो दून में पनपी और पंजाब, हरियाणा, यूपी, हिमाचल व दिल्ली तक फैल गई। अब झंडा साहेब के इस मेले में विदेशों में रहने वाले श्रद्धालु भी यहां आते हैं। वर्ष 1675 में चैत्र कृष्ण पंचमी यानी होली के पांचवे दिन गुरु रामराय महाराज के कदम दून की धरती पर पड़े। उनकी प्रतिष्ठा में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। यहीं से झंडा मेला की शुरुआत हुई, जो कालांतर में दूनघाटी का वार्षिक समारोह बन गया।
1675 में पड़ी चूल्हे की नींव
देहरादून में साझा चूल्हे की नींव दरबार साहिब श्री गुरु रामराय के आंगन में वर्ष 1675 में चैत्र पंचमी के दिन पड़ी। यही देहरादून में ऐतिहासिक झंडा मेला की शुरुआत हुई। उस समय देहरादून एक छोटा गांव हुआ करता था। मेले में पहुंचने वाले लोगों के लिए भोजन का इंतजाम करना आसान नहीं था। इसी को देखते हुए श्री गुरु रामराय महाराज ने ऐसी व्यवस्था बनाई कि दरबार की चैखट में कदम रखने वाला कोई भी व्यक्ति भूखा न लौटे।
चूल्हे की आंच ठंडी नहीं पड़ी
इसके बाद बीते 339 साल से दरबार साहिब में चूल्हे की आंच ठंडी नहीं पड़ी। इस चूल्हे ने अपनी चैखट पर आए किसी भी व्यक्ति से कभी यह सवाल नहीं किया कि उसका मजहब क्या है। यह भेद करना नहीं, भेद मिटाना जानता है, इसीलिए इंसानियत का सांझा चूल्हा बन गया। जब इस मेले की शुरुआत हुई उस दौर में पंजाब व हरियाणा से ही संगतें दरबार साहिब पहुंचती थीं, लेकिन धीरे-धीरे झंडे जी की ख्याति देश-दुनिया में फैलने लगी।
अलग-अलग स्थानों पर चलते हैं लंगर
हर दिन झंडे जी के दर्शनों को श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ने लगा और इसी के साथ विस्तार पाने लगा दरबार साहिब के आंगन में खड़ा सद्भाव का यह सांझा चूल्हा। आज भी यहां हर दिन हजारों लोग एक ही छत के नीचे भोजन ग्रहण करते हैं। झंडा मेले के दौरान यह तादाद हजारों में पहुंच जाती है, इसलिए अलग-अलग स्थानों पर लंगर चलाने पड़ते हैं। लंगर की पूरी व्यवस्था दरबार की ओर से ही होती है।
दर्शनी गिलाफ का मौका नसीबवालों को
झंडेजी पर चढ़ाए जाने वाले दर्शनी गिलाफ चढ़ाने के लिए भक्तों में भारी होड़ रहती है। दर्शनी गिलाफ की पहले से ही बुकिंग होती है। झंडे जी साहिब से मिली जानकारी के अनुसार 2095 तक गिलाफ चढ़ाने वाले परिवार की बुकिंग है। यानी किसी परिवार की कई भावी पीढि़यां ही यह गिलाफ चढ़ा पाती हैं।
अब तक के महंत…..
महंत औददास (1687-1741)
महंत हरप्रसाद (1741-1766)
महंत हरसेवक (1766-1818)
महंत स्वरूपदास (1818-1842)
महंत प्रीतमदास (1842-1854)
महंत नारायणदास (1854-1885)
महंत प्रयागदास (1885-1896)
महंत लक्ष्मणदास (1896-1945)
महंत इंदिरेशचरण दास (1945-2000)
महंत देवेंद्रदास (25 जून 2000 से गद्दीनशीन)