UTTARAKHAND
चीड़ के वृक्षों ने धरती के इतिहास की सभी कहानी देखी है

एक आदि वृक्ष की कहानी…..
(देव-भूमि में इन वृक्षों की व्यथा देख जो संवेदना उपजी उसी ने यह कथा कहला दी…)
कृष्ण कुमार मिश्र
उत्तराखण्ड देवभूमि में लगभग 2000 मीटर तक की ऊंचाई तक चिर पाइन यानी भारतीय चीड़ के जंगल मिल जाएंगे, ऊंचे ऊंचे ये दरख़्त नोकदार पत्तियां और भूरे लाल रंग के तने के साथ, आप को बताऊं ये केवल चीड़ के वृक्ष नही हैं बल्कि हमारे इतिहास का आईना भी हैं, ये बताते हैं हमारे पुरखों की कहानी भी, और आदम विकास का लेखा जोखा भी, ये चीड़ दरअसल उस युग से ताल्लुक़ रखते हैं जब धरती पर हिमयुग के आस-पास का दौर था, आदमी और आदमजात का नामों-निशान नही, प्रकृति ने इन्हें बनाया क्योंकि ये सह सकते थे वह मौसम, कम पानी, तेज हवा बर्फीला माहौल, और हां तब ये परिंदे व तमाम जीव भी न थे जो खाते हैं फल-फूल, बस इसीलिए प्रकृति ने इन्हें जिमनोस्पर्म अर्थात नग्न बीज वाले पौधे, और मोनोसियस भी यानी एक ही पेड़ में अलग अलग शाखाओं पर नर पुष्प (कोन) व मादा कोन मौजूद होते है,
दरअसल ये सम्पूर्ण मौजूद पुष्प जैसे नही होते, किन्तु ये काम पुष्प का ही करते हैं, नर कोन में माइक्रोसपोरोफिल जिनमें परागकण बनते हैं, मादा पुष्प मेगास्पोरोफिल जहां अंडाशय होता है, बड़ी बेतरतीब हालात हैं, इसे पुष्प कहूँ या कोन क्योंकि यह प्रागैतिहासिक वनस्पति है, इन अति प्राचीन वृक्षों का विकास फर्न आदि के समय हुआ और इनके परागकणों को स्पोर ही कहा गया क्योंकि ये परागकण वर्तमान की विकसित पुष्पों व फलों वाली एंजिओस्पर्म वनस्पतियों से बहुत सूक्ष्म होते हैं, जब ये जिमनोस्पर्म वनस्पति के चीड़ देवदार जैसे वृक्ष विकसित हुए तब धरती पर एम्फिबियन यानी मेढ़क जैसी प्रजातियां थी और धरती पर चलने व अंडे देने वाले रेप्टाइल्स का विकास हो रहा था, जो बाद में डायनासोर जैसे जीव बने और खत्म हो गए, चीड़ के वृक्षों ने धरती के इतिहास की यह सभी कहानी देखी यानी समुंद्री आदमी की प्राजाति होमो सैपिएन्स बनने तक की! कार्बोनिफेरस युग का दौर था जब यह चीड़ जैसे वृक्ष धरती पर विकसित हुए कोई 350 मिलियन वर्ष पूर्व की बात रही होगी, मौजूदा पाइन तकरीबन 150 मिलियन पूर्व धरती पर विकसित हुआ, तब धरती की बनावट भी अलाहिदा थी आज जैसे महाद्वीप न होकर धरती लगभग आपस में जुड़ी हुई थी, और एक सुपर महाद्वीप था, जो गोंडवाना लैंड के यूरोअमेरिका से जुड़कर पैंगिया सुपर-कॉन्टिनेंट बना, मीजोजोइक युग मे फिर यह धीरे धीरे अलग हुआ और नए महाद्वीप बने, वह गोंडवाना वाला क्षेत्र आज दक्षिण अमरीका आस्ट्रेलिया अरबिया अंकटार्टिका और भारतीय उपमहाद्वीप है, इन चीड़ के पेड़ों ने धरती पर जीवों के बनते और नष्ट होते देखा डायनासोर जिसका एक उदाहरण मात्र है, धरती के जुड़ते और अलग होते हुए देखा, समुंदर से निकल कर कशेरुकी जीवों के पूरे जैव-विकास की कहानी इन्हें मालूम है कि एम्फिबियन से रेप्टाइल और एवियन और मैमल कैसे बने और आज इस रूप में हमें आज भी देख रहे हैं, यह कथा है इस चीड़ की अरबों बरस पुरानी, और आज भी हमारे भारत भूमि में यह पहाड़ों में सीना ताने खड़े हैं,
प्रकृति की कारीगरी देखिए, उसे पता था कि परागण करने के लिए न तो धरती पर चिड़िया है न मधुमख्खी, न और जीव तो कोनिफर अर्थात कोन वाले अविकसित पुष्प बनाए ठोस कठोर जो आधी तूफान में भी न टूटे और सैकड़ों वर्ष तक उनके भीतर अंडाणु व बीजाणु सुरक्षित रह सके, और परागण भी उन तेज हवाओं के द्वारा हो, कालांतर में यही कोन वाले अविकसित पुष्प, एंजिओस्पर्म की वनस्पतियों में सुंदर व सम्पूर्ण रंग बिरंगे पुष्प बने जिनमें दल पुंकेश्वर वर्तिका अंडाशय सब मौजूद थे, और गूदेदार रसदार फल बने क्योंकि धरती पर तब तक चिड़िया तितली मधुमख्खियाँ आदमी सब मौजूद हो चुके थे जो परागण से लेकर अपने पेट भरने तक कि कवायदों में जुड़ चुके थे, प्रकृति ज़रूरत के हिसाब से खुद को बदलती है उसकी टाइम मशीन निर्धारित है मानों पहले से सब लेखा-जोखा लिखा जा चुका है कि अब होना है, टाइम मशीन की बात चली तो बताऊं की इन चीड़ के बीजों में भी टाइम मशीन फिट है, जंगलों में लगी आग से पेड़ो पर लगे कठोर फल जो जमीन पर गिर जाते हैं वे तब तक पड़े रहते हैं जब तक वह वृक्ष नष्ट नही हो जाता और उस वृक्ष के नष्ट होने के साथ ये बीज उगना शुरू कर देते हैं, अल्मोड़ा से जागेश्वर मार्ग पर इन आदि-वृक्षों से जब राब्ता हुआ तो मन किया ये कहानी कहूँ, लेकिन असल बात अभी बाकी हैं।
कुमायूं के अल्मोड़ा जागेश्वर मार्ग पर जब कुछ चीड़ के वृक्षों को लहूलुहान देखा जैसे उनकी खाल (बार्क) उधेड़ी गई हो, और चीड़ के तनों में पंजो जैसे निशान बनाए गए, और तने में एक टिन का कुप्पी नुमा बर्तन लगाया गया, नजदीक जाकर देखा तो ये ताड़ खजूर आदि से निकाले जाने वाले ताड़ी जैसे पेय पदार्थ वाला मसला लगा, लेकिन चीड़ के थोड़े बहुत टॉक्सिकेंट होने से परिचित था, करोड़ों वर्ष पहले डायनासोर तो इनकी पत्तियों को खा जाते थे, किन्तु किसी अन्य जीव को इन चीड़ के जहरीले अवयवों को पचा लेने की क्षमता न है, फिर इस कुप्पीनुमा यंत्र में क्या इकट्ठा किया जा रहा है, नजदीक जाकर देखा तो उनमें खुशबूदार पानी भरा था जो बारिश के चलते भर गया उनमें, परन्तु वह ख़ुशबू कैसी? नज़र दौड़ाई तो तने पर बनाए गए घावों से रिसता गोंद था जो इकट्ठा हो रहा था इन कुप्पीनुमा यंत्रों में, आगे बढ़े तो कई जगह ऐसी स्थितियां दिखी, छिले हुए तने वाले चीड़ के वृक्ष, यहां यह कहना जरूरी हो जाता है कि एकबारगी उत्तराखण्ड सरकार ने जंगलों में आग लगने के कारण चीड़ को दोषी पाते हुए इसे यहां के जंगलों से हटाने का निर्णय लिया था, दरअसल दोषी चीड़ नही है, बल्कि चीड़ ही है जो बहुत कम पानी में पहाड़ों पर उग आता है और पहाड़ का मृदा अपरदन रोकता है, ये वही चीड़ है जो कार्बोनिफेरस युग मे अत्यधिक ऑक्सीजन के समय से जलता बुझता हुआ करोड़ों वर्ष का सफर तय करते हुए आज भी लगी आग में खुद को बचा ले जाता है, इसके मालूम फायदों की बात करूं तो हमारे पहाड़ के लोग आज भी निर्भर हैं चीड़ पर जैसे टिम्बर, जलौनी लकड़ी, रोज़िन, तारपीन आदि के लिए।
भवाली में बना टीवी सैनिटोरियम भी इन्ही चीड़ के जंगलों की ख़ासियत के कारण बनाया गया, क्योंकि चीड़ के तेल में ऐसे तत्व मौजूद है जो श्वास व फेफड़ों के रोगों को दूर करते हैं, सामान्यतः चीड़ से प्राप्त रेजिन आदि से परफ्यूम, दवाएँ, व खाद्य पदार्थों को खुशबूदार बनाने में इस्तेमाल किया जाता है, अस्थमा व अर्थराइटिस तथा त्वचा रोगों में भी इसका तेल इस्तेमाल होता है, इसके तने से निकलने वाला पदार्थ जिसमें प्राकृतिक तारपीन होता है जिसका इस्तेमाल रासायनिक तारपीन बनाने में किया जाता है जो वार्निश पेंट आदि में इस्तेमाल होता है। और न जाने कितने नामालूम फ़ायदे होंगे इस आदि वृक्ष के, बस इस वृक्ष की यह व्यथा देखी तो इस बहाने यह कहानी कह डाली।
चीड़ को लम्बी उम्र, सुगुण, व एकांतता का प्रतीक माना जाता है, इसे फ्रेंड ऑफ विंटर भी कहा जाता है विभिन्न मानव सभ्यताओं में।