चुनाव खर्च के 22 करोड़ कहाँ गए किसी को नहीं पता!
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के एक गीत की कुछ लाइनें याद आ गई जिसके बोल ”सदानि नि रैंण रे झोंतू तेरी जमींदारी” अथार्त हे झोंतू तेरी यह जमींदारी, यानि रुतबा हमेशा नहीं रहेगी। ये बात उत्तराखंड प्रदेश के कई हवाई नेताओं परसटीक बैठती है।
गौरतलब हो कि लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा में जहां एक ओर सूबे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत सहित कई स्टार प्रचारक, पदाधिकारी ,आम कार्यकर्ता तपती गर्मी में पसीना बहाकर भाजपा के लिए चुनाव प्रचार कर रहा था। और पार्टी के लिए समर्पित कार्यकर्ता से लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री ,मंत्री, विधायक तक दूर-दराज दुर्गम पहाड़ियों की पगडंडियों पर कई किलोमीटर पैदल चलकर लोगों से भाजपा के पक्ष में मतदान करने की अपील कर रहे थे। ताकि प्रदेश की पांचों की पांचों सीटें भाजपा की झोली में आ जाये।
वहीं दूसरी ओर राजधानी देहरादून के एक प्रदेश कार्यालय में सफारी सूट वाला नेता और उनका पुत्र और उनके चंद सिपहसलार पैसों की बंदरबांट करने में लगे थे। इनके लिए चुनावों का कोई मतलब नहीं था मतलब था तो केवल नोटों की आयी बाढ़ में अपने हाथ साफ़ कर अपना घर भरने का। बल्कि यह तो व्यवस्था के नाम पर मौज कर रहे थे ऐसा लग रहा था कि वे दिवाली और होली एक साथ मना रहे थे। शरीर से भारी भरकम और बिना जनाधार के ये नेता जिनका पार्टी के लिए कभी कोई खास योगदान नहीं रहा। मात्र दिल्ली के आकाओं की चाटुकारिता और जी हुजूरी के दम पर प्रदेश में अपनी राजनीति चमकाते रहे हैं।
कभी देहरादून, हरिद्वार ,रुड़की और हल्द्वानी से ऊपर पहाड़ चढ़कर इन्होने नहीं देखा कि असली उत्तराखंड कहां है और कार्यकर्ता निस्वार्थ भाव से किस तरह मेहनत कर रहे हैं । जिन्हें इस पहाड़ी राज्य का भूगोल भी पता नहीं । उन्हें जब सफारी सूट वाला नेता को कुर्सी पर आसीन किया गया तो पार्टी के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं के मन में सवाल भी खड़े होते हैं कि सफारी सूट वाला नेता को कार्यकारी अध्यक्ष आखिर क्यों बनाया गया। जबकि अध्यक्ष की गैरमौजूदगी में तो पार्टी के उपाध्यक्ष ही कार्य देखते रहे हैं। इतना ही नहीं जब देश के अन्य राज्यों के प्रदेश अध्यक्ष ही नहीं बल्कि खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुनाव लड़ रहे हैं । ऐसे में केंद्र से लेकर देश के किसी भी राज्य में पार्टी का कोई कार्यकारी अध्यक्ष नहीं बनाया जाता है तो आखिर उत्तराखंड में ही क्यों बनाया गया और उत्तराखंड में पार्टी के सामने ऐसी क्या मजबूरी थी यह एक अनबुझी पहेली बन गया है ? वहीं जिम्मेदारी लेने वाले व्यक्ति को अपनी कार्यकारी अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी का एहसास तक नहीं रहा। और कार्यकारी अध्यक्ष बनते ही स्वयंभू नेता ने अपना ऐसा ”ग्लैमर-शो” दिखाया, मानो प्रदेश अध्यक्ष पद पर इनकी स्थायी घोषणा हो गई हो !
पार्टी के प्रदेश कार्यालय में यह चर्चा का विषय बना रहा कि ऐसे नेता ने खुद ही मालाएं और आतिशबाजियों के बंडल सहित मिठाइयों के पैकेट्स मंगवाकर स्वयं का प्रदेश कार्यालय में ऐसा स्वागत करवाया कि एक बारगी तो पार्टी कार्यकर्ता और आस पास के लोग देखते रह गए। वहीं नेताजी का लाड़ला और भांजा मौजूद कार्यकर्ताओं की हाथ में अपनी गाड़ी से फूल माला दे रहे थे । चर्चा है कि उस दौरान बेचारे कार्यकर्ता भी आधे अधूरे मन से बधाई दे रहे थे। क्योंकि तात्कालिक कुर्सी पर विराजमान स्वयंभू सफारी सूट वाले नेता कभी कार्यकर्ताओं से सीधे बात तक नहीं करते रहे हैं। कोई कार्यकर्ता यदि उनको नमस्कार करता है तो वो उसका अभिवादन तक स्वीकार नहीं करते। कार्यकर्ताओं के मान-सम्मान तक नहीं करते उनका मूल्यांकन तो दूर उन्हें पहचानते तक नहीं हैं। ऐसे नेता जब मंच पर आम कार्यकर्ताओं को बौद्धिक और नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं और उसका स्वयं अनुपालन नहीं करते। कुल मिलाकर पार्टी के आम कार्यकर्ताओ को यह ”ग्लैमर-शो’को रास नहीं आया।
इतना ही नहीं कुर्सी पर विराजमान होते ही स्थायी प्रदेश अध्यक्ष की नेम प्लेट हटा कर सफारी सूट वाला नेता द्वारा खुद की नेम प्लेट लगाया जाना,अध्यक्षों के नाम पट्ट पर अपना नाम अंकित करवाना और जब मामला उछला तो कह दिया टेंट लगाने वालों से गिर गयी थी। जबकि वह भूल गए कि वह चुनाव तक कुछ दिनों के लिए कार्यकारी अध्यक्ष बनाये गये हैं विवाद तो होना ही था वह भी तब जब इनसे अच्छे राजनीतिक अनुभव रखने वाले उपाध्यक्ष पार्टी के पास थे।
इतना सब होने के बाद पार्टी कार्यालय में सब होने के बाद भी विज्ञापन के नाम पर खूब बंदरबांट हुई यूं कहें कि पत्रकारों के हक पर डाका डाल कुछ कथित नेताओं ने सफारी सूट वाले के साथ अपनी जेबें भरी। उनका पुत्र का रुतबा देखने लायक था। पार्टी कार्यालय का शायद ही कोई ऐसा पेड़ होगा जिसके नीचे ”डील” न हुई हो हर चुनाव की तरह इस चुनाव में भी मीडिया के नाम पर चंगू- मंगू जैसे चौकीदार बैठाए गए और वह पत्रकारों का हिसाब किताब मूल्यांकन करने लगे । कैशियर की भूमिका में खुद सफारी सूट वाले का पुत्र था जो कभी भी एक छोटे वार्ड का साधारण कार्यकर्ता भी शायद ही रहा है।
जहां मंत्री विधायक भी नहीं देखते वहां सफारी सूट वाले नेताजी के पुत्र नजर आते हैं। पर करें क्या ? एक कहावत है ना ‘जब सैंया भए कोतवाल तो फिर डर काहे का” यह मुहावरा यहां ठीक बैठता है ,जब सफारी सूट वाले पिता हो तो बेटा स्वयं ही अपने आप में राजकुमार क्यों नहीं बन सकता। वहीं पार्टी में विवादित रहे ”फूल गोभी के नाम से प्रसिद्द और ”चाटुकारों की मशीन” जैसे लोगों को पत्रकारों को मैनेज करने की जिम्मेदारी दी गई।
पार्टी कार्यालय में चर्चा सरे आम है कि ” फूल गोभी और मशीन” पूर्व में भी दोनों विवादों में रह चुके हैं। चर्चा है कि ”फूल गोभी ”तो चुनाव के दौरान ही सक्रिय होते हैं और लाखों रुपए पत्रकारों के नाम पर ठिकाने लगा कर एक बार फिर अगले चुनाव तक के लिए अज्ञातवास पर चले जाते हैं । चर्चा है कि इन तीनों की तिकड़ी ने कई अन्य ”चौकीदारों” के मंसूबों पर पानी फेरा, जिनकी नजर मीडिया के नाम पर आए ख़ज़ाने पर लगी थी। ”चौकीदारों” की जमात में विज्ञापन के पैसों को लेकर हो रही लठमलठ कुल मिलाकर देखने लायक थी और उन पत्रकारों पर भी खूब तरस आ रहा था जो ”तिकड़ी” के आगे पीछे घूम रहे थे।
इससे पूर्व भी एक नटवरलाल के नाम से जाने जाने वाला व्यक्ति ऐसा ही करता चला आया जो पार्टी के बदौलत करोड़पति होकर ”मी -टू ”का शिकार हो गया। उसने तो दिल्ली में बैठे अपने आकाओं के रहमों करम पर पार्टी कार्यालय में ही जेल में बंद गुरुराम रहीम की तरह ”गुफा” बना डाली थी अय्याशी का अड्डा बना दिया था । वह आज वहीं पार्टी कार्यालय कई अनुभूझ पहेलियों को दफन कर अदालत की चौखट पर खड़ा है । कि आखिर दिल्ली में बैठे आकाओं द्वारा पहाड़ी राज्य उत्तराखंड को अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए प्रयोगशाला का केंद्र क्यों बना रहे हैं । यह सवाल आज पार्टी के आम कार्यकर्ता के मन में है।