HISTORY & CULTURE

नारेण काफल पाको चैता…

वेद विलास उनियाल 

उत्तराखंड के लोकजीवन में घुघुती और काफल का अपना महत्व है। मन की पुकार हुई , कुछ कहना चाहा तो या तो छोटी सी पक्षी घुघुती की याद आई या फिर चैत के समय जंगल में वृक्षों में पकते काफलों की। शायद इसी लिए हिमालयी राज्य में घुघुती और काफल पर गीत बने और कई लोककथाएं।

काफल अंजीर की तरह लेकिन उससे हटकर एक फल है। जंगली फल है उगाया नहीं जाता, मगर कहते हैं कि उत्तराखंड आए हैं तो काफल जरूर खाकर जाइए। फल का साथ ज्यादा दिन का नहीं । पेड़ो से तोड़ने के बाद ज्यादा समय तक नहीं रखा जा सकता। इसलिए हिमालयी राज्य में आकर ही काफल खाने होंगे। हम भेज नहीं सकते।

कभी संस्कृतकर्मी गीतकार बृजेद्र लाल शाह ने यूं ही एक गुमटी सी दुकान में चाय पीते हुए एक पन्ने में लिखा था- बेडू पाको बार मासा, नारेण काफल पाको चैत। संगीत के मर्मज्ञ मोहन उप्रेती ने उसी समय दुर्गा राग में उसकी धुन भी बना ली। यह रचना पंद्रह से बीस मिनट में साकार हो गई। बाद में इस गीत को हिमालय के गायक गोपाल बाबू गोस्वामी की आवाज में रिकार्ड किया गया।

पहली बार इसे नैनीताल के राजकीय इंटर कालेज में 1952 में सुना गया। फिर गीत घर आंगन में गूंजने लगा । गीत की लोकप्रियता इतनी कि पंडित जवाहर लाल नेहरू ने तीन मूर्ति भवन में जब इस गीत को सुना वह भी इस इसके कायल हुए और काफल खाने की इच्छा जताई थी। पहाड़ो में वह जब आए उन्हें सबसे पहले काफल खिलाए गए थे।

दो दिन पहले पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने शायद नेहरूजी की याद में जो काफल पार्टी रखी वह शायद उस वक्त का स्मरण हो।

बडू पाको गीत पर उत्तराखंड झूमा है। संगीत के मर्मज्ञ औजियों के मशकबीन की स्वर लहरी, और ढोल की थाप पर इस गीत ने लोगों को सुकून दिया है। झूमता मन, पैरो में थिरकन ,लेकिन नम आंखें । पहाड़ों की गहरी यादों से जुडा है यह गीत, यह संगीत। गढ़वाल राइफल और कुमाऊं रेजिमेंट की बैंड धुनों में भी इस गीत की धुन रह रह कर गूंजती रही। पहाड़ो की विपत्ति , दुख दर्द, कठिन जिंदगी में जब रासो, झुमैलो, थड्या, चौफला गीत मन में उत्साह बनाए रखते थे, तब कब घर आंगन चौबारों से निकला यह गीत लंदन की ब्रिटिश लाइब्रेरी में पहुंच गया और युग युगों के लिए सुरक्षित हो गया।

काफल देवों का फल कहा गया। कुमाऊं में एक गीत है – खाणा लायक इंद्र का हम छियां भूलोक आई पणा, यानी काफल कह रहे हैं हम तो इंद्र के लिए खाने योग्य थे इस धरा पर कैसे आ गए। काफल के इन वृक्षों की पौध नहीं होती, ये जंगली फल है। लेकिन 1300 मीटर से 2100 मीटर की ऊंचाई पर चैत आते ही इसके रसदार फल लगते हैं तो धरा प्रकृति को नमन करने हाथ स्वयं उठ जाते हैं। लोकगाथा में काफल से जुड़ी कसक है, काफल पाको मैन नी चाखो। कभी पम्मी नवल की आवाज में इस गीत को सुनिए।

साठ के दशक में जब गीत गाया पत्थरों ने, फिल्म के लिए संगीतकार रामलालजी ने टाइटिल गीत पर धुन बनाई तो कहा गया कि यह धुन बेडो पाको बारा मासा से ही ली गई है। लेकिन ऐसा नहीं था। पंडित रामलालजी प्रसिद्ध गुणी संगीतकार थे। और खूबसूरत शहनाई बजाते थे। अगर शहनाई पर ही रमे रहते तो शायद उस साज के साथ उनका भी नाम उस्ताद बिस्मिल्ला खान की तरह अमर होता। लेकिन वह फिल्म संगीत से जुड़े रहे। बाबुल की दुआएं लेती जा, तकदीर का फसाना, रहा गर्दिशों में हर दम, जैसे गीत में उनकी शहनाई बजी है। उन्होंने गीत गाया पत्थरों ने गीत के लिए उसी राग का इस्तेमाल किया था, जिसपर मोहन उप्रेती ने बेडू पाको गीत को संगीत से सजाया था।

फलों के राजा आम ने जरूर यह मुहावरा अपने लिए छीन लिया कि आम के आम गुठली के दाम। लेकिन सच्च यह है कि काफल का फल ही नहीं उसकी गुठली भी फायदेमंद होती है। काफल के पेड़ की छाल औषधी में काम काम आती है। पाचन तंत्र में काफल का जवाब नहीं। शास्त्रों में इसे कायफल कहा गया। यानी काया के लिए उपयोगी। जिसे बाद में लोग काफल कहने लगे।

पहाडों की ऊंचाईयों में बुरांश और काफल जिस तरह छा जाता है उससे इनसे अनुभूति भी जगी है। कहीं न कहीं पहाड़ी जीवन में पेड़ो पर गाती घुघुती अंगारे की दमकते बुरांश और अपनी लालिमा, आभा के साथ मुस्कराते लदे -फदे काफल में अपने जीवन लय की ताल को मिलाया गया। यूं ही स्वर नहीं उभरे। बुरांश सौॆदर्य का, काफल अनुभूति का और घुघुती चाहत की प्रतीक बन गई।

यूं ही हरीश रावत जैसे राजनेता , जन को जोड़ने की चाहत रखते हुए काफलों को प्रतीक नहीं बनाते हैं। शायद काफल का जिक्र होते ही समूचे पहाड़ का लोकजीवन सामने आता है। काफल, बुरांंश, घुघती , न्यूली, हुड़का, ढोल दमो, मशकबीन, चैत का महीना दालपकोड़ी, फाणू , डुबका, रोट अरसा , गढ़वाल राइफल, कुमाऊं रेजिमेंट. गंगा- यमुना कुछ ऐसे प्रतीक हैं, यादों को उभारते हैं । पहाड़ों की स्मृतियों में संग -संग है। सबल बनते हैं । इनके बिना पहाड़ कहां।

पिछले बीते समय की यादें साथ रखते हैं , कहीं न कहीं संदेश भी देते हैं अपने पहाड़ को मत भूलो। लौट आओ या रह रह कर आते रहो।पहाड़ चाहे उत्तराखंड के या फिर मेघालय या सिक्किम के। 
हम उत्तराखंडी काफलों का साथ पाते हैं तो मेघालय में काफल से मिलते जुलते सोह का। उनके गीतों में आकर लोकजीवन को साकार करते हैं। आइए इस गीत को भी सुनें- अल्मोड़ा को लाल बजार, नारेण पाथर की सीढ़ी, मेरी छेला, बेडू पाको बार मासा, नरेण काफल पाको चैत,

https://youtu.be/eoR05GkQndg

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