शिक्षिका उत्तरा बहुगुणा के निलंबन से खुली सिस्टम की पोल!

- तिवारी की शांत चित्त मुस्कान से त्रिवेंद्र के ‘फरमान’ तक
- सांप मरा भी नही और लाठी गयी टूट
- सुगम में जमे कर्मियों को अभयदान क्यूं
अविकल थपलियाल की फेसबुक वाल से
ये बात 1989 की है। लगभग 30 साल पुरानी। नारायण दत्त तिवारी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। छात्र राजनीति के उस दौर में अक्सर लखनऊ आना जाना लगा रहता था। इसी दौरान तिवारी जी के जनता दरबार की झलक भी देखने को मिली। उनके सरकारी आवास में फरियादियों का भारी हुजूम। अहाते में पंडाल लगा था। गर्मी के दिन थे। शायद जुलाई का महीना था। सफेद झक पोशाक में तिवारी जी पंडाल की ओर बढ़ते हैं। उनके पीछे पीछे कैलाश पंत जी समेत कई अन्य सहयोगी पेन और डायरी पकड़े हुए।
तिवारी जी एक- एक कर फरियादियों के पास जाकर उनके आवेदन पर आवश्यक टिप्पणी कर मातहतों को पकड़ा देते। इस दौरान तिवारी जी के चेहरे पर न तो फरियादियों के हुजूम और न ही लखनऊ की उमस भरे तनावयुक्त मौसम का कोई विपरीत असर दिखा। अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ मुख्यमंत्री तिवारी ने सैंकड़ों फरियादियों को सन्तुष्ट किया।
इसी दौरान जनता दरबार के अंतिम पड़ाव में एक व्यक्ति अपनी समस्या को लेकर काफी उत्तेजित हो गया। तिवारी जी का काफिला सरकारी आवास से विधानसभा की ओर कूच करने की तैयारी में था। तिवारी जी कार में बैठ चुके थे। फरियादी जोर जोर से चिल्लाते हुए आत्मदाह की धमकी तक दे रहा था। सुरक्षाकर्मी फरियादी की ओर लपके। तिवारी जी ने रोका। कार से उतरे, उसको प्यार से समझाया। समुचित कार्यवाही का भरोसा दिया। आत्मदाह पर फरियादी को कडुवी लेकिन मुलायम घुट्टी भी पिलाई। और मामला शांत कर गंतव्य की ओर रवाना हो गए।
बाद में तिवारी जी ने तमाम विरोध झेलते हुए मंद मंद मुस्कान के साथ उत्तराखंड में भी पूरे पांच साल सरकार चला रिकॉर्ड बनाया। यही नही सूचना विभाग में कार्यरत प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी अपने निजी काम से सीधे तिवारी जी के पास चले गए थे तो मुख्यमन्त्री ने नेगी को कहा कि विभाग की तरफ से आवेदन भेजें। चाहते तो तिवारी जी भी फटकार सकते थे।
इधर ताजा घटनाक्रम के तहत बीते 28 जून को मुख्यमन्त्री त्रिवेंद्र के जनता दरबार मे उत्तरकाशी के दुर्गम स्कूल में सालों से तैनात एक बुजुर्ग शिक्षिका के सब्र का बांध टूटा। और मुख्यमन्त्री ने मंच से ही निलंबन और हिरासत में लेने का फरमान सुना दिया, लिहाजा मेरे मन मस्तिष्क में बरसों पुराने तिवारी जी के उस हंगामेदार जनता दरबार और उनके वाक चातुर्य भरे कौशल की याद हो आयी।
तिवारी जी समेत अन्य कई मुख्यमंत्रियों को बारम्बार इन स्थितियों से दो चार होना पड़ता है। ऐसे में मुख्यमन्त्री ही अपना संतुलन कायम न रख सके तो तिल का ताड़ बनने से कोई नही रोक सकता। ठीक ऐसा ही इस शिक्षिका उत्तरा बहुगुणा के मामले में हुआ। उस वीडियो के वायरल होते ही यह प्रकरण राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गया।
दरअसल, मुख्यमन्त्री त्रिवेंद्र को उस नाजुक मौके पर तत्काल कड़ा रुख अख्तियार न करते हुए माइक से फरमान नही सुनाना चाहिए था। बगल में बैठे अधिकारी को आवश्यक दिशा निर्देश देने चाहिए थे तो यह मामला ऐसा तूफानी करवट नही लेता।
हालांकि, किसी भ्रष्ट अधिकारी या कर्मचारी के मामले में मुख्यमन्त्री का सार्वजनिक फरमान तालियां बजवाने पर मजबूर कर देता, लेकिन एक मजबूर, बुजुर्ग और 25 साल से दुर्गम में नौकरी कर रही इस शिक्षिका के मामले में मुख्यमन्त्री का यह कदम अधिसंख्यक लोगों को नागवार गुजरा है।
हालांकि, कई लोग शिक्षिका को ही जिम्मेदार ठहरा रहे है कि सरकारी कर्मचारी को जनता दरबार मे नही जाना चाहिए ।अनाप -शनाप नही कहना चाहिये था। यह तो वही बात हुई कि कोई लाठी मारे और ये भी कहे कि रो भी मत।
दरअसल बरसों से सुगम के स्कूल में आने की जुगत में लगी शिक्षिका के हताशा भरे उलझे मनोविज्ञान को भी समझना जरूरी है। 2015 में उनके पति की मृत्य हुई। डिप्रेशन का एक कारण यह भी है। सालों से सरकारी चौखट पर मत्था टेक रही थी।
लेकिन जब सिस्टम से न्याय नही मिलता तो परेशान हाल व्यक्ति मुख्यमन्त्री दरबार मे ही न्याय की अर्जी लगाता है। और जब बड़े दरबार मे मनमाफिक फैसला नही मिलता तो आपा खोना भी स्वाभाविक है। और यह गुस्सा तब और आत्मघाती हो जाता है जब हर सरकार में सत्ता के मठाधीशों की पत्नियां व अन्य रिश्तेदार नियमों के परखच्चे उड़ाते हुए सुगम में सालों साल से जमे रहते है। शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय कहते है कि विभाग में अटैचमेंट खत्म कर दिया गया है। और अगर यह सरकार वास्तव में जीरो टॉलरेन्स पर कायम है तो यह जांच जरूर करवाये कि बरसों से सुगम में कितने शिक्षक तंबू गाड़े पड़े है। नियमों को धत्ता बताते हुए अटैचमेंट की आड़ में कितने जुगाड़ू शिक्षक सुगम की हवा खा रहे है। जांच के बाद दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। सिस्टम से काम होने पर किसी भी जनता दरबार मे दूसरी उत्तरा नजर नही आएगी।
वैसे, शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय अपने अधिकारियों को जम कर गरिया रहे है, और साफ कह रहे है कि सरकार के आदेशों का पालन नही करने वालों को बख्शा नही जाएगा। उनके कड़े तेवर के बाद भी शिक्षा विभाग की दयनीय कार्यप्रणाली जस की तस बनी है।
बहरहाल, इस मुद्दे पर उत्तराखंड में राजनीतिक और सामाजिक सोशल मंचों पर आरोप- प्रत्यारोप का खेल शुरू हो चुका है। मीडिया भी साफ-साफ दो खेमों में दिख रहा है। मुख्यमन्त्री ने शिक्षिका को ऐलानिया अंदाज में उनके उग्र व्यवहार की सजा सुना दी।
वैसे, नाराज जनता कई बार जनप्रतिनिधियों पर टमाटर, अंडे, स्याही, चप्पल, पत्थर , थप्पड़ आदि बरसाती रही है। लोकतंत्र में इस विरोध की सजा भी जनता को भुगतनी पड़ती है। विरोध के इन गलत तरीकों के बावजूद कुर्सी पर बैठे कर्णधारों से दिमागी संतुलन और संयम की उम्मीद की जाती रही है।
मौजूदा दौर में पहाड़ की जनता ने भारतीय राजनीति में सब्र और दिमागी संतुलन के मील का पत्थर बने शालीन तिवारी जी और विनम्र त्रिवेंद्र की ताजी ‘हनक’ को करीब से देख लिया।
अच्छा होगा अगर मुख्यमन्त्री त्रिवेंद्र जी अपने शालीन स्वभाव के विपरीत राज्य से सतत खिलवाड़ कर रहे अधिकारी, कर्मचारी व दलालों को चिन्हित कर स्वंय कड़ी से कड़ी सजा सुनाए तो जनता के दिलों में भी छपछपी पड़ेगी। कथित सफेदपोश चोर उचक्के भी थर्राएँगे। पहाड़ में नयी कार्यसंस्कृति विकसित होगी। और आशीर्वाद के साथ तालियों की गूंज भी दूर तक सुनायी देगी। वरना उत्तरा बहुगुणा के मुद्दे पर तो मुख्यमन्त्री जी लाठी भी टूट गयी और सांप भी नही मरा।