- कांग्रेस ने अपने पूरे चुनावी कैंपेन में इस भू-कानून का जिक्र तक नहीं किया
- विवादास्पद मसला सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ विपक्षी कांग्रेस के लिए बेहद था अहम्
- कांग्रेस ने ‘मित्र विपक्ष’ की भूमिका निभाते हुए इसे आराम से विधान सभा में पास होने दिया
- धारा 143-क और धारा-154 (2) जोड़ते हुए पहाडों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा हुई खत्म
व्योमेश चन्द्र जुगरान
हिमालयी राज्य उत्तराखंड में नया भूमि (संशोधन) कानून चुनावी कोलाहल में दबकर रह गया जबकि यह मुद्दा पहाड़ के साधारण किसान की आजीविका के साथ ही, यहां के संवेदनशील इकोतंत्र और देश की सामरिक चिन्ता से सीधे जुड़ा हुआ है। उत्तराखंड की पांचों लोकसभा सीटों पर मतदान संपन्न हो चुका है। निश्चित ही यह विवादास्पद मसला सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ विपक्षी कांग्रेस के लिए बेहद काम का हो सकता था लेकिन कांग्रेस ने अपने पूरे कैंपेन में इसका जिक्र तक नहीं किया। उसकी चुप्पी से यही सिद्ध हुआ कि खासकर द्विदलीय शासन प्रणाली के अभ्यस्त उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों का चुनावी घमासान, जनता के लिए अहितकर समझे गए विषयों पर भी गजब की अन्तरंगता लिए हुए होता है। इसका सीधा कारण है, बारी-बारी से सत्ता संभालने की चाहत और साझा हित।
कांग्रेस हालांकि इस स्थिति में बिल्कुल नहीं थी कि विरोध कर पाती क्योंकि 6 दिसम्बर 2018 को जब राज्य विधानसभा के शीतकालीन सत्र में सरकार ने ‘उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपरांतरण आदेश 2001) (संशोधन) विधेयक 2018’ पेश किया था तो कांग्रेस ने ‘मित्र विपक्ष’ की भूमिका निभाते हुए इसे आराम से पास होने दिया। अमूमन अपनी उपलब्धियों और कार्यक्रमों का डंका पीटने वाली सरकार भी इस कानून पर रहस्यमय चुप्पी बनाए हुए है। वह अपनी उपलब्धियों में यह तो गिना रही है कि उसने इन्वेस्टर्स समिट बुलाकर एक लाख 20 हजार करोड़ से अधिक के 601 एमओयू करने में सफलता हासिल की है। इस कड़ी में वह अपनी प्रचार सामग्री में ईज ऑफ डूइंग बिजनेस, सिंगल विंडो सिस्टम और सुदूर पहाडों के औद्यौगिक विकास जैसे दावे भी कर रही है लेकिन इस दिशा में भूमि कानून की तब्दीलियों पर वह मौन है। उसका यही मौन हिमालय और इसकी हिफाजत के लिए लगातार संघर्ष कर रहे लोगों के इस आरोप को बल देता है कि सरकार ने पूंजीनिवेश की अपनी नीति को आगे बढ़ाने की चाह में जाने-अनजाने पहाड़ में जमीनों की लूट-खसोट का रास्ता बेहद आसान कर दिया है।
नए संशोधन के जरिये राज्य सरकार ने अब तक चले आ रहे कानून में धारा 143-क और धारा-154 (2) जोड़ते हुए पहाडों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा खत्म कर दी है। अभी तक राज्य में कृषि योग्य जमीन खरीदने की अधिकतम सीमा 12.5 एकड़ थी और इसे वही व्यक्ति खरीद सकता था जो सितम्बर, 2003 से पहले तक यहां जमीन का खातेदार रहा हो। लेकिन अब सरकार ने उद्योग के नाम पर कितनी ही जमीन खरीदने की छूट दे दी है और कृषि भूमि के गैर-कृषि उपयोग के नियम बहुत शिथिल कर दिए हैं। राज्य के बाहर का कोई भी उद्यमी सिंगल विंडो प्रणाली के तहत निवेश का प्रस्ताव स्वीकृत करा पहाड़ में कहीं भी भूमि खरीद सकेगा। संशोधित नियमों के मुताबिक राज्य के मैदानी जनपदों हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर के अलावा देहरादून और नैनीताल के मैदानी हिस्सों पर नए नियम लागू नहीं होंगे। साथ ही नगर निगम, नगर पंचायत, नगर परिषद और छावनी परिषद क्षेत्रों की सीमा में आने वाले और समय-समय पर सम्मलित किए जाने वाले क्षेत्रों को भी इस कानून से मुक्त रखा गया है।
सरकार भले ही दावा कर रही है कि अब उद्योगों को पहाड़ चढ़ने का रास्ता मिल सकेगा मगर यहां उद्योगों के लिए जमीन बची ही कहां है ! उत्तराखंड के पहाडों में कुल 54 लाख हेक्टेयर जमीन बताई जाती है। इसमें लगभग 34 लाख हेक्टेयर वन विभाग के आधीन है। 10 लाख हेक्टेयर बेनाप/वैरान जमीन है जिसपर 1893 के रक्षित भूमि कानून के तहत किसी का अधिकार नहीं है। पहाड़ की ग्रामीण जनता अंग्रेजों के जमाने से ही मांग करती आई है कि इस रक्षित भूमि पर उन्हें पंचायती व सामुदायिक कार्यों की इजाजत दी जाए। अंग्रेजों ने छिटपुट अधिकार दिए भी थे मगर आजादी के बाद 1960 में उत्तर प्रदेश सरकार ने पर्वतीय जिलों के लिए अलग से उत्तराखंड जमींदारी विनाश और भूमि सुधार कानून (कुजा एक्ट) बनाकर बेनाप भूमि पर पंचायतों के सारे अधिकार छीन लिए। ऊपर से यह भी थोप दिया कि सामुदायिक प्रयोजनों जैसे- स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, डाकघर, क्रीडास्थल, उच्च एवं तकनीकी शिक्षा संस्थान, पंचायत भवन, सड़क आदि के लिए किसानों को अपनी जमीन निःशुल्क सरकार को देनी होगी। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी यहां की सरकारों ने इस कानून में परिवर्तन करना आवश्यक नहीं समझा। उल्टे वे यहां की बची-खुची कृषिभूमि के बारे में भू-माफियाओं व बिल्डरों के हित में नए-नए भू-अध्यादेश लाती रहीं। 1823 में पहले बंदोबस्त के समय उत्तराखण्ड के पर्वतीय भू-भाग में जो कृषियोग्य जमीन 18 प्रतिशत थी, वह आज सिर्फ चार प्रतिशत रह गई है। बेहतर होता कि सरकार अंग्रेजों के जमाने से बंद रक्षित भूमि को औद्योगिक प्रयोजन के लिए खोलती। तब उसकी मंशा पर संदेह की गुंजाइश कम होती और उसकी छवि भूमि सुधारक के रूप उभरती।
एक विकट भूमि संकट के मुहाने पर खड़े इस राज्य में कृषि भूमि के गैर-कृषि उपयोग की खुली छूट का सीधा असर यहां के गरीब किसान और काश्तकार पर पड़ना तय है। सरकार ने हालांकि विधेयक में यह प्रावधान किया है कि भूमि को सिर्फ उद्योग स्थापित करने के लिए खरीदा जा सकता है और शर्तों के उल्लंधन की सूरत में क्रय की गई जमीन राज्य सरकार को हस्तांतरित हो जाएगी। सरकार की मंशा पर शक न भी करें तो ऐसे नियमों को लेकर अतीत के अनुभव कड़वे रहे हैं। कानूनों की मनमानी व्याख्या और नियमों को मनमुताबिक तोड़-मरोड़कर पहाडों में उद्योगों के नाम पर जमीनें सौंपी जाती रही हैं लेकिन न तो सुदूर पहाडों में कोई बड़ा कारखाना लगा और न रोजगार की संभावनाएं जगीं। अब नई व्यवस्था में क्या गारंटी है कि जमीन का मनमाना उपयोग नहीं होगा। ! सरकार की नई पर्यटन नीति में पर्यटन को उद्योग का दर्जा दिया गया है और पर्यटन की परिभाषा में वह सब शामिल कर लिया गया है जिसके जरिये कोई भी व्यक्ति उद्यम के बहाने सरकार की आंखों में आसानी से धूल झोंक सकता है। होटल, रिजॉर्ट, रेस्टोरेंट, इको-लाउंज, पार्किंग स्थल, मनोरंजन पार्क, एडवेंचर, योगकेंद्र, आरोग्य केंद्र, कन्वेंशन सेंटर, स्पा, आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा और हस्तशिल्प आदि कुल 28 गतिविधियों को पर्यटन की परिभाषा में शामिल किया गया है। साथ ही चिकित्सा, स्वास्थ्य और शैक्षिणिक प्रयोजन भी ‘औद्योगिक प्रयोजन’ में शामिल हैं। जाहिर है ये सभी क्षेत्र राज्य के भीतर उद्योग का दर्जा प्राप्त करेंगे और जमीनें पाने के हकदार होंगे।
इस प्रकार देखा जाए तो कश्मीर से लेकर कोहिमा तक हिमालयी प्रदेशों में उत्तराखंड इकलौता राज्य है जहां बाहरी लोगों के लिए भूमि खरीद पर कोई बंदिश आज की तारीख में नहीं है। ऐसे में यहां के नए भूमि संशोधनों को देश की सामरिक चिन्ता से जोड़कर भी देखा जाना चाहिए। यहां के मलारी, मिलम, मुनस्यारी, धारचूला, लाता, माणा और गंगोत्री घाटी जैसे संवेदनशील क्षेत्रों की सीमा चीन से लगी है। औद्योगिक प्रयोजन के नाम पर सीमावर्ती क्षेत्रों में जमीन खरीदने की छूट सामरिक सुरक्षा के लिहाज से जोखिम भरा निर्णय है। इसके अलावा पूरे देश के लिए पर्यावरण और इकोलॉजी की दृष्टि से बेहद संवेदनशील उत्तराखंड के पहाडों में जमीनों की खुली सौदेबाजी निकट भविष्य में कई खतरों वाले असंतुलन का भी सबब बन सकती है।
साभार : नवभारत टाइम्स