जब तक यहां के मूल निवासी, अधिकारी और नेता इस राज्य को अपनी मातृभूमि यानि मां बहन की तरह नहीं समझेंगे तब तक यह प्रदेश नेताओं और दलाल पत्रकारों के हाथों लूटता रहेगा
राजेंद्र जोशी
उत्तराखंड राज्य तमाम आन्दोलनों से बना लेकिन उसके बाद इस राज्य का हश्र उस गरीब की जोरू की तरह हो गया है जो चाहे धमका दे, जो चाहे उसकी अस्मत लूटने का प्रयास करे और जो चाहे उसके साथ जैसा मर्जी व्यवहार करे। यह यहां तब तक होता रहेगा जब तक यहां के मूल निवासी अधिकारी और नेता इस राज्य को अपनी मां बहन की तरह नहीं समझेंगे और उत्तराखंड को उस गरीब की जोरू की तरह नहीं समझेंगे जिसको जब चाहे कोई भी लूट ले ?
बात उत्तराखंड की प्राकृतिक सम्पदाओं को लूटने से लेकर उत्तराखंड के सरकारी धन तक को लूटने की है। देश में शायद उत्तराखंड राज्य ही एक मात्र ऐसा राज्य होगा जिसको लूटने पर शायद ही उत्तराखंडवासियों को आक्रोश या दुःख होता होगा, क्योंकि इस राज्य से न तो यहाँ की नौकरशाही को प्यार है और न यहाँ के नेताओं को और न अधिकाँश जनता को। उत्तराखंड को यदि सबसे ज्यादा लूटा है वह है यहाँ की ब्यूरोक्रेसी, नेताओं और समाचार चैनलों और कथित पत्रकारों ने, तभी तो यह राज्य आज हज़ारों करोड़ के घाटे में चल रहा है, नेता मौज काट रहे हैं तो ब्यूरोक्रेसी महामौज और कतिपय बाहर से आये माफ़िया, ठेकेदार और पत्रकार भी इस लूट में शामिल हैं। तभी तो कोई उत्तराखंड को छोड़ना नहीं चाहता। कई पत्रकार तो यहां जब यहां किसी अखबार या चैनल के ब्यूरोचीफ बन जाते हैं और अन्यत्र ट्रांसफर हो जाने के बाद भी उत्तराखंड को छोड़ना नहीं चाहते। क्योंकि इस दौरान वे करोड़ों में खेलने लग जाते हैं कई जमीनों और धंधों में उनकी पत्ती लग जाती है यह सब मीडिया के दम पर सूबे की ब्यूरोक्रेसी से नज़दीकी का फायदा और भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसी में अपनी पोल न खुलने के खौफ के चलते बने गठजोड़ के चलते ही संभव हो पाता है। तभी तो एक जोड़ी फटी चप्पल और टूटे स्कूटर में फरीदाबाद से यहाँ आने वाला एक कथित पत्रकार अचानक इस दस बारह सालों में रातों रात करोड़ों का मालिक बन जाता है जबकि आज भी पहाड़ों में चप्पल घिस-घिस कर पैदल चलने वाला क्रांति वह क्रांति अपने जीवन में नहीं ला पाता है जो फरीदाबाद या पूर्वी यूपी से आए कथित पत्रकार कर जाते हैं। वह बेचारा तो आज बीस साल बाद भी अपनी चप्पलें रगड़कर बमुश्किल दो जून की रोटी की कमा पाता है लेकिन सुकून से जी रहा है उसकी नींद इन करोड़पति कथित पत्रकारों की तरह हराम नहीं होती कि कब कौन से राज्य की पुलिस उसे खोज रही होगी और वह न जाने कब उसे उठा ले जाएगी और उसे न जाने कौन सी जेल में लेजाकर ठूँस देगी।
बात चाहे ब्यूरोक्रेसी को हो या पत्रकारों की इस दोनों के कॉकस या यूँ कहें गठजोड़ ने उत्तराखंड को मिलकर लूटने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, यह सिलसिला स्वर्गीय पण्डित नारायण दत्त तिवारी जी के कार्यकाल से शुरू होता है। जब उत्तराखंड में पहली चुनी हुई सरकार सत्ता में आई। इस दौरान उत्तराखंड को दोनों हाथों से लूटने का सिलसिला शुरू हुआ और यहाँ के नेताओं, माफियाओं और कथित पत्रकारों को आदत सी पड़ गयी और वे उत्तराखंड पर उस गरीब की जोरू की तरह बुरी निगाह डालने लगे जिसको सब भाभी तो बोलते हैं लेकिन उसकी अस्मत को लूटने को हर पल उस भूखे भेड़िये की तरह नज़र आते हैं जो मौक़ा पाते ही अपने शिकार पर झपटने को तत्पर तो रहता ही है और मौक़ा न मिलने पर उसे गुर्राने या काट खाने को बैचैन नज़र आता है। यही हाल देश की मीडिया का भी उत्तराखंड के परिपेक्ष में भी दिखाई दे रहा है, यानि सरकार ने यदि उसके लूटने के एजेंडे पर काम न किया तो वह उसके खिलाफ ऐसा माहौल बनाना शुरू कर देता है जैसे इसके सिवा उत्तराखंड का हितैषी कोई और है ही नहीं और जब इसके मुंह में हड्डी रूपी नोटों का बण्डल एक पॅकेज के रूप में ठूंस दिया जाता है तो इसका मुंह बंद हो जाता है। उसके बाद उत्तराखंड में हो रहे घपले -घोटाले की तरफ इस कथित उत्तराखंड हितैषी की नज़र नहीं जाती। कमोवेश यह हाल उत्तराखंड में सारी मीडिया का है।
बात अब नेताओं की करते हैं यहाँ के नेता इतने महत्वाकांक्षी हैं कि जो प्रधान भी नहीं बन सकता था उसकी नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहती है। यह कुर्सी पाने की यह चाहत कहें या लालसा राज्य के अस्तित्व में आने से लेकर आज तक जारी है। प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री स्व. नित्यानंद स्वामी जी के समय से शुरू हुआ यह खेल आ तक जारी है। पहले मुख्यमंत्री स्व. नित्यानद स्वामी जिन्हे मात्र 11 महीनों में ही सत्ता संग्राम के चलते हटाया गया, इसके बाद हुए आम चुनाव में कांग्रेस ने नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बनाया उनके साथ भी कुर्सी के चेहेते लोगों ने खेलना शुरू किया लेकिन उनका इतना बड़ा राजनैतिक कद था कि विरोधियों की उनके सामने एक न चली और वे अब तक के पूरे पांच साल तक चलने वाले मुख्यमंत्रियों में शुमार हो गए। इसके बाद भुवन चंद्र खंडूरी आये वे भी राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार हुए और अल्पावधि में ही मुख्यमंत्री पद से हटाए गए जिसके बाद डॉ.निशंक आये उन्हें भी खंडूरी विरोधियों ने हटा डाला और फिर खंडूरी है जरुरी का नारा दिया गया और दूसरी बार मुख्यमंत्री बने खंडूरी कोटद्वार से विधानसभा चुनाव तक हार गए। इसके बाद कांग्रेस के जीतते ही विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन वे भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया उनके साथ कुर्सी की महत्वकांक्षा पाले नेताओं ने स्टिंगबाज़ के साथ मिलकर क्या कुछ नहीं किया यह सभी को पता है। विधानसभा चुनाव में वे भी दो-दो जगह से खड़े हुए और दोनों जगहों से हार गए। इसके बाद भाजपा अप्रत्याशित बहुमत के साथ सत्ता में आई और पार्टी ने त्रिवेंद्र सिंह रावत जैसे संघ पृष्ठभूमि के ईमानदार और कड़क नेता को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी। हालांकि इस दौरान उन पर कोई भी आरोप अभी तक सत्ता पक्ष या विपक्ष भ्रष्टाचार का नहीं लगा पाया है। उनकी चार साल पूरे होने को हैं लेकिन उनके खिलाफ भी गाहे बगाहे माहौल बनाने का प्रयास किया जाता रहा है। नेताओं की यह अतिमहत्वाकांक्षा केवल कुर्सी के लिए नहीं नज़र आती है यदि इनकी निष्ठा राज्य या राज्य की जनता के साथ होती तो इस राज्य में मुख्यमंत्रियों को हटाने के षडयंत्र नहीं रचे जाते और राज्य के विकास में सभी सहयोग करते लेकिन यह राज्य का दुर्भाग्य है कि यहाँ के नेता राज्य के विकास के लिए नहीं बल्कि खुद के विकास के लिए सत्ता की कुर्सी हथियाते रहे हैं और कथित पत्रकार मलाई खाते रहे हैं। यही कारण है कि दोनों ही इसके लिए किसी भी तरह के षड़यंत्र करने से पीछे नहीं रहते।
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