PERSONALITY

हिमालयी अन्वेषक पंडित नैनसिंह

राजेन्द्र जोशी 

दुनिया के मशहूर सर्च इंजन गूगल ने अपना डूडल में खास कारनामा करने के बावजूद लगभग गुमनामी के अंधेरे में खोए ‘पर्वतारोही’ नैन सिंह रावत को उनके जन्म दिवस पर समर्पित किया है। नैन सिंह के साहसिक कारनामे को याद करते हुए  गूगल ने उनके जन्म दिवस पर अपना डूडल उनके नाम किया है। हालाँकि देश के सर्वे ऑफ़ इंडिया के इतिहास में उनका नाम आज भी स्वर्णाक्षरों में अंकित है। 

गुलाम भारत में ऐसे उदाहरण कम ही मिलते थे ,जहाँ पर अंग्रेजों ने किसी भारतीय के काम को सराहा हो उन्हें ना केवल सराहा बल्कि उसका लोहा भी माना और उसमें भी किसी भारतीय को इसलिए फिरंगियों ने सलाम किया हो क्योंकि उसने अपने हुनर, अपने ज्ञान से कुछ ऐसा कर दिखाया जिस काम को करने में अंग्रेज  एक बार नहीं कई बार नाकाम रहे हों । पंडित नैन सिंह, ये वो नाम है जिसे शायद भारत में बहुत  कम लोग जानते हो लेकिन अंग्रेज और दुनिया के बड़े सर्वेयर नाम सम्मान के साथ लेते हैं।

पंडित नैन सिंह  का जन्म पिथौरागढ़ जिले के मिलम गांव में 21 अक्‍टूबर 1830 को हुआ था पेशे से शिक्षक नैन सिंह  जिन्होंने  19वीं सदी में पैदल तिब्बत की दूरी नापी और वहाँ का नक्शा अंग्रेजों के लिए बना कर लाए । ये वो दौर था जब तिब्बत दुनिया की नजरों से छिपा हुआ था। तिब्बत को उस समय ”फोरबिडन लेंड” कहा जाता था। वहाँ विदेशियों को पूरी तरह से आने की मनाही थी । लेकिन पंडित नैन सिंह ना केवल तिब्बत  गए बल्कि वे वहाँ जाकर तिबब्त का नक्शा बना लाए । वह भी बिना किसी आधुनिक उपकरण की सहायता के ।

 ये पूरा घटना क्रम शुरु होता है 19 वी शताब्दी में जब अंग्रेज भारत का नक्शा तैयार कर रहे थे ,और वो लगभग पूरे भारत का नक्शा बन चुका था,और अब वो आगे बढने की तैयारी कररहे थे । लेकिन उनके आगे बढने में सबसे बडा रोड़ा था तिब्बत । जो कि तब तक दुनिया से छुपा हुआ था । वहाँ की जानकारियाँ सर्वेक्षकों को बेहद कम थी , और विदेशियों का वहाँ जाने की  भी सख्त मनाही थी ,इतना ही नहीं पकडे जाने पर उन्हें वहां सख्त सजा भी दी जाती थी। ऐसे में अंग्रेज कशमकश में थे कि इसे कैसे संभव किया जाए । हालांकि ब्रितानी हुकुमत  ने कई कोशिशें की लेकिन वो हर बार विफल रहे । नैन सिंह पर किताब लिख चुके और उन पर शोध कर रहे रिटार्यड आई ए एस अधिकारी एस एस पांगती बताते हैं  कि अंग्रेज अफसर तिब्बत को जान पाने में नाकाम हो गए थे।

कई बार विफल होने के बाद उस समय के सर्वेक्षक जनरल माउंटगुमरी ने ये फैसला लिया कि अंग्रेजों के बजाए उन भारतीयों को वहाँ भेजा जाए जो तिब्बत के साथ व्यापार करने वहाँ अक्सर आते जाते हैं, और फिर खोज शुरु हुई ऐसे लोगों की जो वहाँ कि भौगोलिक जानकारी इकठ्ठा कर पाए ,आखिर कार 1863 में कैप्टन माउंटगुमरी दो ऐसे लोग मिल ही गए। 33 ,साल के पंडित नैन सिंह और उनके चचेरे भाई मानी सिंह ।

पंडित नैन सिंह और उनके चचेरे भाई मानी सिंह का चयन इस महत्वपूर्ण काम के लिए हुआ  । लेकिन सबसे बडी चुनौती इस बात की थी कि आखिर दिशा और दूरी नापने के यंत्र तिब्बत तक कैसे ले जाए जाऐं क्योंकि उस दौरान ये उपकरण आकार में बहुत बड़े थे , और पकडे जाने पर तिब्बती इसे जासूसी मान कर मौत की सजा तक भी दे सकते थे ।

आखिरकार इसके लिए अब इन दोनों भाईयों को ट्रेनिंग के लिए देहरादून लाया गया , और ये तय किया गया कि दिशा नापने के लिए छोटा कंपास लेकर जाऐंगे । इसके अलावा तापमान नापने के लिए थर्मामीटर, हाथ में एक प्रार्थना चक्र जिसे तिब्बती भिक्षुक और दूरी नापने के लिए एक नायाब तरीका अपनाया गया । उनके हाथों में 100 मनकों की माला और जमीन पर पड़ते  हुए उनके कदम ही वो जरिया थे जिससे दूरी मापी जा सकती थी ।

भले ही उनके पास साधारण उपकरण रहे हों  लेकिन उनके हौसले बुलंद थे । पूरी तैयारी के बाद 1863 में काठमंडू के रास्ते से तिब्बत निकले । वहाँ अपनी पहचान छुपा कर वे बौद्ध भिक्षु के रुप में वहाँ रहे। दिन में शहर में टहलते, और रात में किसी उँचे स्थान से तारों की गणना करते। इसके अलावा जो भी गणनाऐं वो करते थे उन्हे कविता के रुप में याद रखते या फिर कागज में लिख साथ लाये अपने प्रार्थनाचक्र में छिपा देते थे।

उन्होने सबसे पहले दुनिया को ये बताया कि ल्हासा की समुद्र तल से उँचाई कितनी है । उसके अक्षांश और देशांतर क्या है । यही नहीं उन्होने ब्रहमपुत्र नदी के साथ लगभग 800 किलोमीटर पैदल यात्रा की और दुनिया को बताया कि स्वांग पो और ब्रह्मपुत्र एक ही नदी है । उन्होने सतलुज और सिंधु नदी के स्त्रोत भी सबसे पहली बार दुनिया को बताए । उन्होने सबसे पहली बार दुनिया को तिब्बत के कई अनदेखे और अनसुने रहस्यों से रुबरु कराया जिन्हे अभी तक दुनिया नहीं जानती थी । सबसे बड़ी  बात उन्होने अपनी समझदारी अपनी हिम्मत और अपने वैज्ञानिक दक्षता से तिब्बत का नक्शा बना डाला । लेकिन ये सब इतना आसान नही था कई बार तो उन्होने इस काम के लिए जान जोखिम में भी डाली । नैन सिंह पर सागा आँफ नेटिव एक्सपलोरर नाम किताब लिख चुके रिटायर्ड आइ ए एस अधिकारी एस एस पांगती बताते है कि ये कितना मुश्किल था।

उन्होने  अन्वेषक होने के नाते 4 बड़ी यात्राऐं कीं :–

साल 1865-66 में वो काठमंडू के रास्ते लासा गए । और फिर कैलाश मानसरोवर के रास्ते वापस भारत आए ।

साल 1867-68 में उत्तराखण्ड में चमौली जिले  के माणा पास से होते हुए तिब्बत के थोक जालूंग गए । जहाँ सोने की खानें दी ।

तीसरी बडी यात्रा थी शिमला से लेह और यारकंद जो उन्होने साल 1873 -74 में की।

उनकी आखरी और सबसे महत्तवपूर्ण यात्रा साल 1874-75  में की लद्धाख से लासा गए और फिर वहाँ से असम पहुंचे । इस यात्रा में वो ऐसे इलाकों से गुजरे जहाँ दुनिया का कोई आदमी अभी तक नहीं पहुंचा था ।

नैन सिंह को एक एक्सपलोरर के रुप में ही नहीं याद किया जाता । बल्कि आधुनिक विज्ञान पर हिन्दी में किताब लिखने वाले वो पहले भारतीय थे । उऩ्होने अक्षांश दर्पण नाम की एक किताब लिखी जो सर्वेएर की आने वाली पीढियों के लिए भी एक ग्रंथ सरीका है । ब्रिटिश राज में भी उऩके कामों को काफी सराहा गया और उन्हे 1877 में बरेली के पास 3 गांवों को जागीरदारी दी गई । इसके अलावा उनके कामों को देखते हुए कम्पेनियन  आँफ द इंडियन एम्पायर का खिताब दिया गया । इसके आलावा भी कई संस्थाओं ने उऩके काम को सराहा ।लेकिन भारत सरकार को उऩकी याद 140 साल बाद आई जब 2004 में उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया गया।

  • पंडित नैन सिंह रावत की डायरी राष्ट्रीय अभिलेखागार में 
  • राहुल सांकृत्यायन ने राष्ट्रपति से आग्रह कर रखवाई

जिस महान सर्वेयर पंडित नैन सिंह रावत की जयंती पर गूगल ने अपना डूडल बनाया है। उनका शुरूआती जीवन बड़े अभावों और संघर्षों भरा रहा। उन्होंने चरवाहे से एक अंग्रेज के नौकर व शिक्षक के रूप में काम किया। राहुल सांकृत्यायन ने नैन सिंह की डायरी के महत्व को जानते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद से उनके संरक्षण का आग्रह किया था। जिसके बाद उन्हें राष्ट्रीय अभिलेखागार दिल्ली में रखा गया।

पंडित नैन सिंह रावत की डायरी पर विशेष अध्ययन करने वाले इतिहासकार डॉ.प्रयाग जोशी बताते हैं कि 21 अक्तूबर 1831 को पिथौरागढ़ जिले की मुनस्यारी तहसील स्थित मिलम गांव में पैदा हुए नैन सिंह का शुरूआती जीवन बड़ा संघर्ष भरा रहा। उनका बचपन बड़ी गरीबी में पला। 28 वर्ष की उम्र तक उन्होंने हर रोज रोटी के लिए संघर्ष किया। जिसके बाद वह चमोली जिले के अंतिम गांव माणा चले गए। जहां अमरदेव की बेटी उमती से उनका विवाह हुआ। तीन साल तक माणा में रहने के बाद वह मुनस्यारी वापस लौट आए। जहां से फिर उनकी रोजी-रोटी का संघर्ष शुरू हुआ। दादा से 600 रुपये कर्ज लेकर उन्होंने तिब्बत जाकर जानवरों, व भेड़ों को बेचने का कारोबार शुरू किया,लेकिन तिब्बत से यहां पहुंचने तक अधिकांश जानवर मर गए। मुनस्यारी पहुंचने तक 6 जानवर ही बजे। जिससे वह अपने दादा का कर्ज तक नहीं चुका सके। जिसके बाद उन्होंने स्थानीय व्यापारियों के नौकर के रूप में तिब्बत व्यापार में हिस्सा लिया।

  • पंडित नैन सिंह ने जर्मन सर्वेयर के साथ 8 माह तक किया काम

एक दिन बागेश्वर से रामनगर आते वक्त उन्हें पता चला की जर्मन स्लोडन क्वाइट्स ब्रदर्स मैगनेटिक सर्वे करने के लिए भारत आ रहे हैं। जिसके बाद वह अपनी गांव के मानी कंपासी व डोलपा के साथ अंग्रेज शासक रैमजे से मिलने हल्द्वानी आ गए। रेमजे ने उन्हें 100 रुपये देकर शिमला भेज दिया। जहां जर्मन भाईयों ने इन तीनों लोगों के साथ मिलकर दो ग्रुप में अलग-अलग रास्तों से तिब्बत के सर्वे के लिए अभियान शुरू किया। 8 माह तक चले अभियान के बाद 1857 का गदर शुरू हो गया। जिसके बाद सर्वे को रोक दिया गया।

  • हेनरी स्टैची ने नैन सिंह रावत को दिलाई थी  शिक्षक की नौकरी

1858 में नैन सिंह रावत ने कपकोट में अंग्रेज हेनरी स्टैची से मुलाकात की। जिसके बाद उन्होंने इस अंग्रेज के नौकर के रुप में उसे पिंडारी ग्लेशियर की सैर करायी। इस दौरान अल्मोड़ा में लौटते वक्त हेनरी की सिफारिश पर नैन सिंह को मिलम गांव में खुले प्रायमरी स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिल गई। दो साल तक इस स्कूल में नौकरी करने के बाद उनका दारमा घाटी के एक स्कूल में स्थानांतरण कर दिया गया। जहां तीन साल तक उन्होंने नौकरी की।

  • रैमजे ने नैन सिंह रावत को सर्वे ऑफ इंडिया में दिलाई थी नौकरी

1883 में अंग्रेस शासक रैमजे ने नैन सिंह रावत सर्वे ऑफ इंडिया में ट्रेनिंग करने के लिए हल्द्वानी बुला लिया। जिसके बाद उन्हें देहरादून भेज दिया गया। दून में रहकर उन्होंने सर्वे की वैज्ञानिक तकनीक को सीखा। सर्वे ऑफ इंडिया में 10 वर्षों तक रहते हुए उन्होंने 4 अभियानों में हिस्सा लिया।

  • चार सर्वे अभियानों में नैनसिंह ने अपने क़दमों से नापा तिब्बत 

उनका पहला अभियान तिब्बत में सर्वे के लिए काठमांडू से लहासा तक चला। दूसरा अभियान लहासा से लेकर कैलास मानसरोवर तक चला। तीसरा अभियान थोक ज्यालूंग से लद्दाख चक चला। उनका चौथा व अंतिम सर्वे अभियान लेह लद्दाख से यामयूरू तक चला। तिब्बत में मौजूद सोने की खानों का पता लगाने के लिए अंग्रेजों ने यह सर्वे कराया था। चारों अभियान के दौरान नैन सिंह रावत ने वहां के नक्शे, रास्तों व मौसम का अध्ययन के साथ ही क्षेत्र की लंबाई तक को नाप डाला। उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए सर्वे आफ इंडिया के लंदन स्थित दफ्तर ने उन्हें सम्मानित किया। नैन सिंह की याद में सर्वे आफ इंडिया के देहरादून स्थित दफ्तर में सभागार भी बनाया गया है।

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