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पहाड़ी टोपी बनाम राजधानी गैरसैंण

पहाड़ी या उत्तराखण्डी पहचान को अभिव्यक्ति देने वाली हर चीज को लोग हाथों हाथ ले रहे 

पलायन के दर्द ने उत्तराखंड के सामाजिक जीवन को विभिन्न कोणों से किया है प्रभावित 

प्रदीप टम्टा की फेसबुक वाल से 

 ” पहाड़ी टोपी ” सोशल मीडिया पर छायी हुईं है । राजनेता , सामाजिक कार्यकर्ता व पूर्व नौकरशाह सभी उसे पहनकर अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। पहाड़ी या उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान व विरासत जोकि वह है भी , उद्धघोषित की जा रही है । अपनी सामाजिक विरासत से जुड़ना व गौरवान्वित महसूस करना एक स्वाभाविक प्रकृति है और पूरी दुनिया में मानव जीवन के बीच विशेषकर प्रवासी जनों में पायी जाती है

उत्तराखंड में आजकल यह अवधारणा बलवती हो रही है जोकि एक सकारात्मक दिशा की ओर संकेत करती है । यहीं कारण है कि पहाड़ी या उत्तराखण्डी पहचान को अभिव्यक्ति देने वाली हर चीज को लोग हाथों हाथ ले रहे हैं चाहे वह वहां का पहनावा हो या खान-पान हो या सामाजिक – सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी चीजें हों । पलायन के दर्द ने उत्तराखंड के सामाजिक जीवन को विभिन्न कोणों से प्रभावित किया है और कोविड – 19 ने उसे और अधिक प्रभावित भी किया है इसलिए पहाड़ी या उत्तराखण्डी पहचान का सवाल एक चिन्तन का सबब भी बन रहा है । एक दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि राज्य अपनी जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने में लोगों की नजरों में सफल न हो पाया हो ।

लेकिन जो चीज इस विमर्श में गायब दिखती है वह राजनैतिक यथार्थ जो इन सबको जोड़ता है । पलायन की त्रासदी हो , या पर्वतीय क्षेत्र की उपेक्षा का प्रश्न हो या राज्य आन्दोलन की अवधारणा का सवाल हो एक वैचारिक व राजनीतिक प्रश्न है और इसके उत्तर भी इसी के भीतर निहित हैं । क्या कारण है कि नींबू ,रायता व टोपी की पहचान के बीच उत्तराखंड राज्य जिसे सभी एक पर्वतीय व हिमालयी राज्य मानते हैं उनके बीच राज्य की राजधानी का प्रश्न उत्तराखंड की सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान का सवाल / प्रतीक नहीं बन पाता है । क्योंकि उनके द्वारा उठाए गए तमाम सवालों का समाधान इसी प्रश्न के हल में निहित है । राज्य की भाषा का सवाल हो या सामाजिक – सांस्कृतिक प्रतीकों को उचित स्थान देने का हो या पर्वतीय व अन्य क्षेत्रों के विकास में असन्तुलन का सवाल हो ।

मैं समझता हूं कि राज्य आन्दोलन की अवधारणा के पीछे यदि एक सामाजिक – सांस्कृतिक पहचान की वैचारिक सोच थी तो उसे इस प्रश्न पर अवश्य विचार करना चाहिए और राज्य की स्थायी राजधानी के सवाल को भी उत्तराखण्डी पहचान का सवाल बना कर अपने सभी सवालों के समाधान की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए ।

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