दाताराम चमोली
उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्रियों की तुलना में नए मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के लिए राजनीतिक स्थितियां अनुकूल हैं। इस मौके का फायदा उठाकर वे एक अच्छे जननेता साबित हो सकते हैं। जरूरत सिर्फ सोच-विचार कर आगे बढ़ने की है।
उत्तराखण्ड के नए मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने पत्रकारों से बातचीत में अपनी सरकार की जो प्राथमिकताएं गिनाईं, वे निश्चित ही स्वागत योग्य हैं। एक चुनी हुई सरकार से जनता की यही अपेक्षा होती है कि वह राज्य में पलायन रोकने के साथ ही विकास की नई संभावनाएं तलाशे। त्रिवेंद्र राज्य के पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिनके पास यह काम करने का सुनहरा मौका है। वे युवा और ऊर्जावान हैं। अब तक के मुख्यमंत्रियों की तुलना में उनके सम्मुख प्रतिकूल राजनीतिक परिस्थितियां नहीं हैं। आगामी दिनों में उनकी सरकार के लिए अस्थिरता की कोई आशंकाएं नहीं हैं। गठबंधन सरकार चलाने की मजबूरी नहीं है। यही नहीं जनता ने भाजपा को इतना प्रचंड बहुमत दिया है कि पार्टी के विधायक या मंत्री अपने निजी स्वार्थों के लिए मुख्यमंत्री को दबाव में नहीं रख सकते, जैसा कि प्रदेश में अब तक होते रहा है। फिर भाजपा आलाकमान का भी मुख्यमंत्री को विश्वास एवं वरदहस्त प्राप्त है। ऐसे में वे चाहें तो भाजपा के ‘दृष्टि पत्र’ पर अमल कर सकते हैं। उनके पास जनहित की अपनी प्राथमिकताओं को पूरा करने का सुनहरा मौका है।
मुख्यमंत्री पलायन रोकने के लिए ठोस कदम उठाना चाहते हैं तो इससे बेहतर भला और क्या हो सकता है? लेकिन यह कैसे संभव होगा? रोजगार और बुनियादी सुविधाओं के अभाव में कोई पहाड़ में क्यों और कब तक रहना चाहेगा? आचार्य चाणक्य ने कहा था कि जो राज्य रोजी-रोटी न दे सके उसे तत्काल छोड़ देना चाहिए। सोचना होगा कि राज्य में हर साल बेरोजगारों की संख्या में करीब सवा लाख की जो बढ़ोतरी हो रही है उसे कैसे नियंत्रित किया जाए। चारधाम और परंपरागत तीर्थाटन से हटकर पर्यटन की असीम संभावनाओं के बारे में सोचना होगा। देखना होगा कि जब कश्मीर का आदमी शिकारा से आजीविका कमा सकता है तो ऋषिकेश के युवा को रीवर राफ्टिंग का फायदा क्यों नहीं मिल पा रहा होगा? राज्य से बाहर जाकर युवाओं ने देश-विदेश में उद्यम स्थापित किए लेकिन उत्तराखण्ड की भूमि क्यों उनके लिए उर्वरा साबित नहीं हुई? राज्य के सौ से अधिक छोटे-मझोले परंपरागत कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करने की सोच आज तक नदारद क्यों है?
फिजूल खर्ची रोकने की जो बात मुख्यमंत्री रावत ने कही उससे भी कोई असहमत नहीं हो सकता। विगत सोलह वर्षों में उत्तराखण्ड के नेता और नौकरशाह करोड़ों रुपए की विदेश यात्राएं करने के बावजूद यह क्यों नहीं समझ पाए कि आखिर कई यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाएं कैसे पर्वतीय वातारण में संचालित और विकसित हो पाई होंगी? आखिर कौन से आर्थिक संसाधन उत्तराखण्ड में नहीं हैं? क्या हमारे जल संसाधन बोतलबंद पानी बेचने वालों या बांध निर्माता कंपनियों के लिए ही फायदेमेंद होने चाहिए? क्या हमारे वन पेपर मिल मालिकों और दुर्लभ औषधीय जड़ी-बूटियां लुटेरों एवं तस्करों की कमाई का जरिया बनकर रह जानी चाहिए? खनिज संपदा के वाजिब उपयोग की सोच सिर्फ अवैध खनन तक सिमटकर रह जानी चाहिए? राजनेताओं की नीति और नीयत में जरा भी ईमानदारी हो तो उत्तराखण्ड अपने संसाधनों के बूते न सिर्फ पलायन एवं बेरोजगारी पर नियंत्रण पा सकता है, बल्कि आर्थिक दृष्टि से दुनिया का एक मजबूत राज्य बनकर उभर सकता है। मुख्यमंत्री को महसूस करना होगा कि पिछले सोलह वर्षों में जिन सैकड़ों लोगों को लालबत्तियां बांटकर राज्य पर भारी आर्थिक बोझ डाला गया उनकी क्या उपलब्धि रही?
विकास के लिए मुख्यमंत्री सेवानिवृत्त अधिकारियों और विशेषज्ञों का योगदान लेना चाहते हैं। लेकिन सवाल है कि सेवानिवृत्त अधिकारी कौन होंगे? राज्य में पिछले सोलह साल के दौरान राजनेताओं, नौकरशाहों और माफियाओं के ऐसे गठबंधन रहे जिन्होंने राज्य के संसाधनों को मनमाने ढंग से लूटा। ईमानदार अधिकारियों को ढूंढ़ने की चुनौती मुख्यमंत्री के सम्मुख रहेगी। जहां तक विशेषज्ञों की बात है तो इसके लिए हम ज्यादा दूर न भी जाएं तो कम से कम उत्तराखण्ड के लोक में सदियों से मौजूद परंपरागत सोच को ही अमल में ला दें तो काफी कुछ सार्थक हो सकता है। यह संतुलित सोच पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से भी अहम है। यहां के पुराने लोगों ने छह माह की यात्रा का विधान इसीलिए रखा था कि ग्लेशियरों पर इंसानी आवाजाही का ज्यादा असर न पड़े और नदियां बची रहें। आज दुनिया के लोग कूड़े-करकट और गंदे नालों में भी आर्थिक विकास की संभावनाएं तलाश रहे हैं और दूसरी तरफ हम हैं कि न अपने उपलब्ध संसाधनों का सदुपयोग कर पा रहे हैं और न ही अपने लोक में मौजूद संतुलित सोच का।