लैंसडौन। गढ़वाल राइफल्स के इतिहास से मिला जनरल बकरा का किस्सा सुनने से जितना अटपटा सा लगता है वास्तविकता में यह किस्सा उतना ही रोचक है। बात देश की आजादी से पूर्व की है। लैन्सडाउन में उस समय गढ़वाल राइफल का ट्रेनिंग सेन्टर हुआ करता था। उस समय फ्रांस, जर्मन, बर्मा, अफगानिस्तान आदि देशों से अंग्रेजी शासन का युद्ध होता रहता था अत: गढ़वाल राइफल की पल्टन को भी हुकूमत के शासन के अनुसार उन स्थानों पर जंग में शामिल होना होता था। गढ़वाली जवान इस समय जहां जहां भी जंग पर भेजे जाते थे अपनी वीरता की धाक जमाकर आते थे।
ऐसे ही एक समय अफगानिस्तान के विद्रोह को दबाने के लिये अन्य सैनिक टुकड़ियों के साथ “गढ़वाल राइफल” के जवानों को अफगानिस्तान के “चित्राल” क्षेत्र में भेजा गया। चित्राल अफगानिस्तान पहुंचने पर कमांडर ने जवानों को नक्शा समझाया और टुकड़ियों को अलग अलग दिशाओं से आगे बढ़ने को कहा। सभी टुकड़ियों को एक बहुत बड़े क्षेत्र को घेरते हुये आगे बढ़ना था और एक स्थान पर आगे जाकर मिलना था। वहां के बीहड़ तथा अनजान प्रदेश में गढ़वाली पल्टन की एक पलाटून टुकड़ी दिशा भ्रम के कारण रास्ता भटक गई तथा घनघोर बीहड़ स्थल में फंस गई।
अनजान जगह और इस पर ये संकट, स्थिति बड़ी विकट थी। कई दिनों तक भटकने के बाद जवानों का बुरा हाल था। भूख और प्यास की वजह से हालत पस्त होती जा रही थी। वे लोग शत्रु प्रदेश में होने के कारण दिन भर भूखे प्यासे झाड़ियों में छिपे रहते और रात को छुपते-छुपाते रेंगते हुये आगे बढ़कर मार्ग ढूंढते थे।ऐसे ही एक रात थके भटके सिपाही शत्रुओं से बचते-बचाते अपना मार्ग ढूंढने में लगे थे तभी उन्होने सामने की झाड़ियों में अपनी तरफ बढ़ती कुछ हलचल महसूस की। झाड़ियों कोइ चीरकर अपनी तरफ बढ़ते शत्रुओं के भय से हिम्मत, साहस और शक्ति आ गई । सभी ने अपनी बन्दूकें कस कर पकड़ लीं और ग्रुप कमान्डर के इशारे के आदेश से आक्रमण करने को तैयार सांस बांधे और बन्दूक साधे झाड़ियों की तरफ टकटकी लगाये खड़े हो गये। रात्रि के अन्धकार में शत्रु की सटीक स्थिति एवं संख्या का अंदाजा लगा पाना मुश्किल था लेकिन फिर भी सभी मजबूती से बन्दूकें पकड़े चौकन्ने खड़े थे।
लेकिन आने वाला जब झाड़ियों से बाहर निकलकर उनके सामने निर्भय हो आ खड़ा हुआ तो सबकी सांस में सांस आई, बन्दूकों पर पकड़ ढीली पड़ गई और भूख भी लौट आई। जिसको शत्रु समझकर वे आक्रमण की तैयारी कर खड़े हो चुके थे वो एक भीमकाय जंगली बकरा था जो सामने चुपचाप खड़ा उनको देख रहा था। वह बकरा बड़ा शानदार था, उसके बड़े सींग और लम्बी दाढ़ी उसकी आयु का परिचय दे रहे थे तथा वह एक सिद्धप्राणी देवदूत सा खड़ा सिपाहियों की गतिविधियां देख रहा था। अजनबी देश में भटके वे सिपाही कई दिनों से भूखे थे।
उन्होने बकरे को घेर कर पकड़ कर खाने की बात आपस में तय की तथा उसे पकड़ने के लिये घेराबन्दी करने लगे। बकरा भी चुपचाप खड़ा उन्हे देखता रहा। जब बकरे ने देखा कि सिपाही उसकी तरफ आ रहे हैं तो वह जैसे खड़ा था वैसे ही उल्टे पैर सिपाहियों पर नजर गढ़ाये जिधर से आया था उधर को उल्टा पीछे चलने लगा। धीरे धीरे पीछे हटते बकरे की तरफ सिपाही मन्त्रमुग्ध से होकर चाकू हाथ में थामें बढ़ते रहे। काफी दूर तक चलते चलते बकरा उनको एक बड़े खेत में ले आया था वहां आकर बकरा खड़ा हो गया।
सिपाहियों ने बकरे को घेर लिया लेकिन तभी बकरे ने अपने पीछे के पावों से मिट्टी को खोदना शुरू किया थोड़ी ही देर में मिट्टी से बड़े बड़े आलू निकल कर बाहर आने लगे। खेत से आलुओं को निकलता देखकर सिपाहियों समझ गये कि यह बकरा भी हमारी भूख और मन की व्यथा को समझ रहा था। उसने हमारी छटपटाती भूख को देखकर हमारे जीवन की रक्षा का उपाय सोचा और सोचने के बाद वह मूक प्राणी किस तरह हमें खेत तक ले गया। वह यह भी देख रहा था कि ये मारने के लिये हथियार उठाये हुये हैं। बकरे के मूक व्यवहार को देख सभी सिपाही गद्-गद् हो उठे, सबने हथियार छोड़ बकरे को गले से लगाया।
उसके बाद सिपाहियों ने बकरे के खोदे हुये आलुओं को इकट्ठा कर भूनकर खाया। पेट भर कर उनमें नई शक्ति का संचार हुआ तथा वे अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हुये। कुछ दूर चलकर उनको अपने साथी भी मिल गये। निर्धारित स्थान पर आक्रमण कर गढ़वाली पल्टन विजयी हुई। लौटते समय सैनिक वहां से जीत के माल, तोप, बन्दूक, बारूद के साथ उस भीमकाय बकरे को भी लैन्सडौन छावनी में ले आये। गढ़वाल राईफल्स की लैन्सडौन छावनी में विजयी सैनिकों का सम्मान हुआ। उनके साथ ही उस बकरे का भी सम्मान किया गया क्योंकि युद्ध में उसने पलाटून के सभी जवानों की जीवन रक्षा की थी अत: उस बकरे को “जनरल” की उपाधि से सम्मानित किया गया।
वह बकरा भले ही “जनरल” पद की परिभाषा तथा गरिमा ना समझ पाया हो लेकिन वह परेड ग्राउन्ड में खड़े सैनिकों, आफिसरों के स्नेह को देख रहा था, सभी उस पर फूल बरसा रहे थे। विशाल बलिष्ठ शरीर, लम्बी दाढ़ी वाला वह “जनरल बकरा” फूलमालाओं से ढका एक सिद्ध संत सा दिख रहा था। सैनिकों ने उसका नाम प्यार व सम्मान से “बैजू” रख दिया था। उस जनरल बकरे को पूरे फौजी सम्मान प्राप्त थे, उसे फौजी बैरिक के एक अलग क्वाटर में अलग बटमैन सुविधायें दी गईं थी। उसकी राशन व्यवस्था भी सरकारी सेवा से सुलभ थी उस पर किसी तरह की कोई पाबन्दी नहीं थी, वह पूरे लैन्सडौन शहर में कहीं भी घूम सकता था। आर० पी० सैनिक उसकी खोज खबर रखते थे। शाम को वो या तो खुद ही आ जाता या उसको ढूंढकर क्वाटर में ले जाया जाता था।
बाजार की दुकानों के आगे से वो जब गुजरता था तो उसकी जो भी चीज खाने की इच्छा होती थी खा सकता था चना, गुड़, जलेबी, पकौड़ी, सब्जी कुछ भी। किसी चीज की कोई रोक टोक नहीं थी, उस खाये हुये सामान का बिल यदि दुकानदार चाहे तो फौज में भेजकर वसूल कर सकता था। अपने बुढ़ापे तक भी वह “जनरल बकरा” बाजार में रोज अपनी लंबी-लंबी दाढ़ी हिलाते हुये कुछ ना कुछ खाता तथा आता जाता रहता था। नये रंगरूट भी उसे देखकर सैल्यूट भी ठीक बूट बजाकर मारते दिखते थे, ऐसा क्यों ना हो वह जनरल पद से सम्मानित जो था।