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आसान नहीं है भारतीय वायुसेना का लापता एएन 32 विमान खोजना !

  • एक तरफ मौसम में पल- पल बदलाव तो दूसरी  तरफ घना जंगल  

  • नजदीकी रेल स्टेशन से मैंचूका पहुंचने में लगते हैं लगभग बीस घंटे 

  • उड़ान के रास्ते में संकरी घाटियाँ हैं और खराब मौसम में वापस मुड़ने की गुंजाइश भी बहुत ही कम

  • दो हजार फीट की ऊंचाई से जंगल बहुत ही मोहक पर जैसे-जैसे नीचे आओ लगते हैं  भयावह

हंसा दत्त लोहनी

भारतीय वायुसेना का एएन 32 विमान तेरह कर्मियों समेत एक हफ्ते से लापता है। जनमानस में व्यग्रता बढ़ रही है, शंकाएँ होने लगी हैं कि देश का राजनीतिक व सैनिक नेतृत्व इतना कमजोर है कि एक जहाज नहीं ढूंढ पा रहे हैं ? कहीं कोई षडयंत्र तो नहीं या फिर परग्रहियों (Aliens) ने तो कहीं अपहरण तो नहीं कर लिया है।

यह जहाज असम के जोरहाट से उड़ा जिसका गंतव्य मैंचूका था जो अंदरूनी अरुणाचल में एक खुली घाटी है, पहाड़ और जंगल के बीच कल-कल बहती नदी किनारे घाटी के मध्य में पुरानी शैली में बसा छोटा कस्बा है मैंचूका जो अपनी नैसर्गिक खूबसूरती में यूरोप या कश्मीर के किसी भी भाग से टक्कर ले सकता है। परंपरागत तौर तरीके व पुराना स्वरूप भी अनोखा आकर्षण है। नजदीकी रेल स्टेशन से मैंचूका पहुंचने में लगभग बीस घंटे लगते हैं। अरुणाचल में मिट्टी के पहाड़ हैं जिसमें पक्की सड़कें कम ही टिक पाती है, वैसे भी सड़क बनने का काम में गति दिल्ली में मोदी सरकार व अरुणाचल में पेमा खांडू सरकार के बनने के बाद ही आई है। श्री किरन रिजिजू का केंद्र में मंत्री होना प्रदेश के लिए बहुत फायदेमंद रहा है, दिल्ली से प्लान पास और पैसे स्वीकृत कराने में उनका बहुत बड़ा हाथ है।

चीन की सीमा से नजदीकी के कारण यहाँ के बार्डर पर आर्मी व अन्य बल बड़ी संख्या में तैनात रहते हैं। नागरिकों व इन बलों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वायुसेना द्वारा हैलीकॉप्टर व विमानों का संचालन किया जाता है जिसके लिए करीब एक किलोमीटर लंबा रनवे है।

अरुणाचल के मौसम का अनुमान लगाना बहुत ही मुश्किल है, एक घाटी का मौसम अगली से अलग हो सकता है। अक्सर बादलों से घिरे प्रदेश में मुसलाधार बरसात होती है जो उड़ान के लिए बहुत ही प्रतिकूल होता है। उड़ान के रास्ते में संकरी घाटियाँ हैं जिनमें खराब मौसम के दौरान वापस मुड़ने की गुंजाइश भी बहुत ही कम रहती है। यहां जहाज उड़ाने के लिए मौसम का पूर्वानुमान तथा रास्ते के हर बादल पर लगातार नजर बनाए रखनी होती है।

नीचे ऐसे घने घनघोर जंगल हैं जिनमें पेड़ व वनस्पति एक दूसरे से सदैव स्पर्धा में रहतीं हैं ताकि सूर्य की रोशनी पा सकें, सौ मीटर ऊंचे पेड़ अगर कोई सोचे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। और इन पेड़ों के नीचे दूसरे छोटे वृक्ष, उसके नीचे और वनस्पति हर इंच जमीन पर जड़ों को जमाने की होड़ में रहती हैं, तीन चार स्तर वाले घने जंगलों की तलहटी में अक्सर अंधेरा ही रहता है। दो हजार फीट की ऊंचाई से हर ओर फैले हरे जंगल बहुत ही मोहक लगते हैं, पर जैसे-जैसे नीचे आओ यह भयावह हो जाते हैं, दिमाग में अक्सर विचार आता है “अगर फोर्स-लैंड करना पड़े तो..?”

कहते हैं उस दिन आसमान में बादल थे, आलो (एक अन्य कस्बा) से मैंचूका जाते समय बहुत ही घुमावों से भरी जंगलदार घाटी पड़ती है। संभव है कि बादलों के कारण अंदाज न आना या फिर तकनीकी कारणों से यह विमान उन जंगलों में गिर पड़ा है, जिसमें अगर आग लगी होगी तो बारिश से बुझ गयी। मुझे तो यह भी लगता है कि जंगलों के घनत्व के कारण जहाज तलहटी तक ही नहीं पहुंच पाया, कहीं वनस्पति में ही उलझा हो। इसी घनेपन से जहाज गिरने से टूटी हुई वनस्पति का हवाई सर्वेक्षण से पता करना समुद्र में बूंद ढूँढने के बराबर है। खराब मौसम से हवाई खोज भी गति नहीं पकड़ पा रही है, जमीनी खोज चल रही है पर पहाड़, जंगल और बारिश में एक कदम बढ़ाने में एक घंटा लग रहा होगा।

कुछ तकनीकी बातें हैं जैसे जहाज में Locator Beacon होना अनिवार्य है, उसमें से सिग्नल क्यों नहीं आए इसकी पड़ताल हो, अरुणाचल में ऊंचे स्थानों पर रडार लगें जिससे वायु यातायात सुगम होगा।

आशा करता हूं कि उपरोक्त से इस विषय पर कुछ प्रकाश पड़ा होगा और आम जनता के मन में मीडिया द्वारा पैदा किए जा रहे भ्रम व प्रश्नों की संतुष्टि होगी।

(लेखक हंसा दत्त लोहनी एक विमान पायलेट हैं जिनका उत्तरपूर्वी राज्यों में जहाज उड़ाने में अच्छा ख़ासा और काफी लंबा अनुभव है )

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