HISTORY & CULTURE

”फूलों का त्यौहार ” फूल देई संग्राद “

क्रांति भट्ट 

‘फूल देई, छम्मा देई,
जंतुके देला , उतुके सही,
देणी द्वार, भर भकार,
ये धेइ के बारम्बार नमस्कार,
फूले द्वार……फूल देई-छ्म्मा देई।’
आपको सपरिवार लोकपर्व “ फूलधेइ” की हार्दिक शुभकामनायें।

दुनिया मे शायद उत्तराखंड के पहाड़ के गांवो में ही ऐसा उत्सव मनाया जाता होगा । जो ” फूलो का उत्सव ” है । फूलों की तरह . फूलों की सी मुस्कुराहट * लिये बच्चे आज ” फूल संग्रान ” के अवसर पर गावों के हर घर की देहरी पर ” रिंगाल की छोटी छोटी टोकरियों पर ” बुरांश , फ्योंली , आडू और न जाने कितने रंग बिरंगे फूल लेकर आते हैं । और हर घर की देहरी ये फूल बिखेरते हैं । हाथों से टोकरियो से फूल बिखरते हैं और जुबान से ” फूलो के इस उत्सव पर ” हर घर को ” फूलों की तरह शुभकामनाएं देते हैं । बदले में घर घर से इन बच्चों को ” सौगात दी जाती है । ” चावल . गुड . और यथा सम्भव दक्षिणा भी । एक हाथ में फूलों की टोकरी लिये ये बच्चे और कंधे में छोटी छोटी झोली थामे बच्चे जब ‘ फूल संग्रान ” को फूलो के उत्सव के दिन अल सुबह घरों पर शुभकामनाएं देने आते हैं तो हर घर उनका स्वागत से करता है । ” फूल फूल माई दाल दे . चोंल दे . या घोघा माई के गीत गाते बच्चे जब घरों की देहरी पर आते हैं तो लगता है भगवान स्वरं बच्चों के रुप में शुभकामनाएं , खुशहाली की शुभकामनाएं देने घर पर आये हैं । घर घर की मांऐं बच्चों को सौगात भी देती हैं और बच्चों की फूलों की सी मुस्कुराहट ” फूलों की झरते उनके मुंह से फूलों की तरह मीठे और खूबसूरत गीत , शुभकामनाओं का आभार जतातीं बच्चों को पुचकारते हुये बलयियां भी लेती हैं ।

बड़ा उत्साह होता है बच्चों में इस फूलों के उत्सव को लेकर । अंदाजा इसी बात से लगाया जाता है कि फूल संग्रान की तैय्यारी के लिए बच्चे पहले से ही करते हैं । एक दिन पूर्व ” जंगल से लाल सुर्ख बुरांश के फूल चुन चुन कर लाना , खेतों की मुंडेर सें ” प्यारी सी मुस्कुराती , हंसती पीली ” फ्योंली ” को भी अपने नन्हे नन्हे हाथों से इकट्ठा कर लाना , गुलाबी रंगत के आडू के फूल समेत कई फूलों को चुन चुन कर लाते हैं बच्चे और फिर फूलों के त्यौहार पर हर घर की देहरी पर बिखरते हैं । शुभकामनाएं देते है । बच्चों के इस उत्सव से ” रिंगाल के उपकरण और वस्तुओं के बनाने वालों की भी रोजी रोटी जुडी होती है । जो कई दिनो पहले ” रिंगाल की छोटी बडी टोकरियां इस आशा . उम्मीद से बनाते हैं कि ये बिकेंगी तो उन्हे अवश्य बदले में श्रम का मूल्य मिलेगा ।

फूलों के इस उत्सव पर बच्चे अपने नन्हे नन्हें कंधों पर ” घोघा माई की डोली भी निकाले हैं । खूब सजी रहती हैं ये डोलियांह बच्चे जब हाथों फूल भरी टोकरियां , फूल बिखेरते , फूल से खूबसूरत गीत गाते . और फूल की तरह सजी ” घोघा माई ” की डोली अपने साथी बच्चों के साथ सामुहिकता के जिस भाव को जगाते , गाते दिखते हैं तो यकीन हो जाता है कि ” यदि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है यहीं है ।
, हां फूलों के इस उत्सव पर मिली सौगात को भी बच्चे कितने पवित्र भाव से अपनाते हैं वह भी कम दिलचस्प नहीं । फूलों के उत्सव पर हर घर से मिले उपहार को बच्चे एकत्र करते हैं और अवकाश मिलने पर गांव के नजदीक के उस स्थान पर जो कुछ खुला सा हो , मैदान सा हो . वहाँ पानी का धारा हो । वहाँ पर फूलो के त्यौहार पर मिले उपहार को सभी बच्चों एकठ्ठा करते हैं और , अपने अपने हाथो सें ” सांझा चूल्हा ” बनाकर खाने ब्यंजन बनाते हैं इसे बच्चों की पिकनिक भी कह सकते हैं । जिसमे बच्चे ही बच्चे होते हैं ।

आयोजक भी बच्चे . मेजबान भी बच्चे , मेहमान भी बच्चे । कर्ता धर्ता सब सब तो बच्चे ही होते हैं । यहाँ जब बच्चे सांझा चूल्हे पर बच्चे ब्यंजन बनाते हैं तो वहाँ पर पत्थर की एक मूरत को भगवान बना उस पर हल्दी . रोली पिठांई लगा कर अपने हाथों से बनाये ब्यंजन सबसे पहले भोग लगाते हैं । बच्चों का आग्रह भगवान सहज सरल भाव से आत्मार्पित करते हैं और लगता है कि आसमान से उत्तर कर बच्चों की इस ” ग्वाल पुजैं ” में मूरत में ही नही स्वयं आकर बच्चों के द्वारा बनाये और अपने लिए लगाये ब्यंजन को खाने के लिए आते हैं । बच्चों के बीच इस ग्वाल पुजै पिकनिक मे बच्चे बनकर बच्चों से बतियाते भी हंसते भी हैं । मुस्कारते हैं खेलते भी है ।

बच्चों ने कच्चा पका जो भी बनाया ” यह कह कर कि वाह ! कितना स्वाद आ रहा है कह कर बच्चों को दुलारते है । हां ” ग्वाल पुजै ” में उन्होंने क्या बनाया घर आते वक्त थोड़ा सा घर भी लाते हैं और घर में जब मां को देते हैं तो सदैव अपने बच्चों को खिलाने वाली ” मां ” भी बच्चों के बनाये कच्चे पके ब्यंजन को बडी आत्मीयता से मुंह से डालतीं हैं खातीं है ं और कहतीं हैं वाह कितना स्वादिष्ट भोजन बनाया है । हमारे बच्चों ने । फूल देई संग्रान पर अपना बचपन , अपना उस्सव , अपनी ” मां ” याद आ गयी ।

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