प्रकृति के संरक्षण से ही होगा पर्यावरण संरक्षित
मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का बेतरतीब दोहन ही प्रकृति और पर्यावरण के साथ ज्यादती की असल वजह
कमल किशोर डुकलान
प्रकृति और पर्यावरण की वास्तविक चिंता सामाजिक संगठनों और सरकारी तंत्र के बजाए प्रत्येक नागरिक को अपने घर से ही प्रारंभ करनी होगी।आज के भौतिक सुख विकासवादी दौर में जल,जंगल और जमीन के वास्तविक स्वरूप में भले ही लौटा पाना असंभव हो लेकिन अनुकूल वातावरण बना पाना कतई असंभव नहीं है।…..
दुनिया भर में प्रकृति और पर्यावरण को लेकर जितनी चिंताएं आज वैश्विक स्तर पर दिखती है,शायद ही उतनी चिंता धरातल पर उतरती दिखती हो। प्रकृति और पर्यावरण के प्रति सामूहिक चिंतन और आम जन की चिंता से जागरूकता अभाव में दिखता है। वर्तमान दौर में बिगड़ते पर्यावरण और बढ़ते प्रदूषण को लेकर वैश्विक स्तर पर जहां-तहां आज भारी भरकम बैठकों का दौर चलता है,सरकारी स्तर पर कितना कुछ हासिल हुआ या होता है यह हम सबके सामने है। वास्तव में अगर देखा जाए तो सच यह है कि दुनिया के बड़े-बड़े शहरों में ग्लोबल लीडरशिप की मौजूदगी के बावजूद प्रकृति के बिगड़ते मिजाज पर काबू नहीं पाया जा सका। उल्टा आये दिन कहीं न कहीं से पर्यावरण के चलते होने वाली छति की तस्वीरें चिंताएं बढ़ाती रहती हैं। यदि पर्यावरण या प्रकृति के बिगड़ते रौद्र रूप पर काबू पाना ही है,तो सरकारी तंत्र अथवा सामाजिक संगठनों के बजाय इसकी शुरुआत हर एक घर से होनी चाहिए।
धरती की सूखती कोख,आसमान का हांफता रूप बीती एक-दो पीढ़ियों ने ही देखा है। इससे पहले हर गांव में प्राकृतिक कुंए,पोखर,तालाब गांव की शान हुआ करते थे। वर्तमान की 43 डिग्री तापमान वाली गर्मी की ऐसी झुलसन ज्यादा पुरानी नहीं है। कुछ बरसों पहले तक बिना पंखा,आंगन में आने वाली मीठी नींद भले ही अब यादों के झरोखे में हो लेकिन बात ज्यादा पुरानी भी तो नहीं है। आज पठार से लेकर पहाड़ और बचे खुचे जंगलों से लेकर क्रांक्रीट की बस्तियों से बढ़ रही तपन इस पर विचार होना चाहिए।आज सब जगह भूमण्डलीय प्राकृतिक स्वरूप में काफी कुछ तेजी से बदल रहा है और बहुत कुछ बदलने जा रहा है। हल वहीं मिलेगा जब चिंता उन्हीं बिन्दुओं पर होगी जहां इन्हें महसूस किया जा रहा हो। लेकिन आज ठीक इसका उल्टा हो रहा है। प्रकृति और पर्यावरण को लेकर चिन्तन हजारों किमी दूर,सात-सात समंदर के पार सीमेण्ट की चट्टानों की अट्टालिकाओं के एयरकंडीशंड हॉल में इन समस्याओं पर चर्चा तो होती है,लेकिन जिस पर चर्चा होती है वहां के हालात सुधरने के बजाए दिनों दिन बिगड़ते ही जा रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे में ये ग्लोबल बैठकें कितनी असरकारक होती रही होंगी? यह पूरी तरह से सब कुछ साफ दिख रहा है।
दिनों-दिन बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में आवश्यकताएं और त्वरित निदान के तौर पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का बेतरतीब दोहन ही प्रकृति और पर्यावरण के साथ ज्यादती की असल वजह है। वर्तमान समय में प्राकृतिक वातावरण को सहेजने के बजाय उसे लूटने,रौंदने और बरबाद करने का काम ही आज तमाम योजनाओं के नाम पर हो रहा है। इन्हें महज बैठकों की औपचारिकता के बजाए रोकने और समझने की आवश्यकता है। भारतीय पर्यावरणीय स्थितियों को देखें तो पर्यावरण और प्रदूषण पर चिंतन राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली या राज्यों की राजधानियों में ही होता आ रहा है। अगर देश के इन वातानुकूलित शहरों की बजाए राज्यों के ब्लाक मुख्यालय या ग्रामसभा स्तर पर होना चाहिए। इसके लिए सख्त कानूनों का प्रावधान होना चाहिए जिससे लोगों को प्रकृति और पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व आसानी से समझ में आ सकें। लोगों को यह महसूस हो सकें कि प्रकृति से हमारा परस्पर संबंध पहले जैसा था,पहले जैसा है,और पहले जैसा ही रहेगा। बात भले ही मामूली सी लगने वाली हो लेकिन यह कितनी महत्वपूर्ण है,इसे खुद समझना और दूसरों को समझाना होगा।
आज से बीस-पच्चीस साल पहले हमें आल इंडिया रेडियो पर बर्षों पहले एक विज्ञापन पर खूब सुनाई देता था। ‘बूंद-बूंद से सागर भरता है’ बस आज उसके भावार्थ को समझकर साकार करने की आवश्यकता है।आज अत्याधुनिक भौतिक संसाधन युक्त गांव-गांव में कंक्रीट के निर्माण तापमान बढ़ा रहे हैं। पहले की अपेक्षा आजकल बारिश देखने को ही नहीं मिलती और अगर बारिश होती भी है,तो बारिश का पानी साल भर पानी की जरूरतों को पूरा करने वाले कुंए बर्षा ऋतु समाप्त होते ही महज 5-6 महीनों में सूखने लगते हैं। गांव के तालाब,पोखरों का भी यही हाल है। पानी वापस धरती में पहुंच ही नहीं रहा है। नदियों से पानी की वर्षभर बहने वाली अविरल जल धारा सूख चुकी हैं। उल्टा नदियों पर आये दिन हो रहे खनन से सभी छोटी-बड़ी नदियां तक अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं।
अब प्रश्न उठता है,कि बिगड़ते पर्यावरण और प्रकृति के मिजाज को कैसे दुरुस्त रखा जाए? इसके लिए शुरुआत ग्राम स्तर पर प्रत्येक घर से करनी होगी। इसके लिए प्रत्येक को जल,जंगल और जमीन के महत्व को सबको समझना और समझाना होगा। एक हाथ ले और दूसरे हाथ से देने के फॉर्मूले पर हर किसी को सख्ती से अमल करना होगा। धरती का पानी लेते हैं तो उसे वापस लौटाने की अनिवार्यता सब की होनी चाहिए। अधिक से अधिक मात्रा में आये दिन हमारी मूलभूत सुविधाओं के लिए जितने भी जंगल कट रहे हैं उनकी भरपाई अधिक मात्रा में वृक्षारोपण कर वन तैयार कर वापस कर लौटाएं जाएं। आज विकास के अनुपात पर बढ़ते तापमान को काबू रखने के लिए हरियाली पर सोचने की आवश्यकता है।आज हम आबादी पर कुछ गज दूर पर जंगल या गैर रिहायशी खाली क्षत्रों में कम तापमान का फर्क तो महसूस करते हैं। लेकिन कभी हमने यह कोशिश नहीं कि काश घर पर ही हमें हरियाली जैसा सुकून मिल पाता।
आज अगर हम सोचते हैं,कि कुछ साल पहले ऐसा था तो अब क्यों नहीं हो सकता? बस यहीं से शुरुआत की जरूरत है। इसी तरह स्थानीय निकायों के द्वारा भी जहां-तहां बनने वाली सीमेण्ट की सड़कों में ही ऐसी सुराख तकनीक हो जिससे सड़क की मजबूती भी बनी रहें और बारिश के पानी की एक-एक बूंद फालतू बह जाने के बजाय वापस धरती में जा समाए। विस्तारीकरण वाले क्षेत्रों में अगर भूमि का फर्शीकरण हो रहा है,तो धरती में जाने वाले जल को रोकने के बजाय खाली स्थानों पर हरे घास के मैदान विकसित होने चाहिए जिससे बढ़ते तापमान को नियंत्रित किया जा सके।जल संरक्षण के लिए प्राकृतिक उपाय किए जाने की आवश्यकता है। कटाव रोकने के लिए पहले जैसे निरन्तर पेड़-पौधें लगने चाहिए।
प्रकृति और पर्यावरण की वास्तविक चिंता घर से ही शुरू होने से जल्द ही अच्छे व दूरगामी परिणाम सामने होंगे। जल,जंगल और जमीन के वास्तविक स्वरूप को लौटा पाना भले ही असंभव है,लेकिन वैसा अनुकूल वातावरण बना पाना कतई असंभव नहीं है। प्रकृति और पर्यावरण में संतुलन सामाजिक संगठनों या सरकारी तंत्र के बजाए प्रत्येक नागरिक के द्वारा ही हो पाएगा। अगर प्रकृति और पर्यावरण के संतुलन में समानता के बारे में दूसरों में शब्दों में कहें तो जन-जन की आहुति से ही जल,जंगल और जमीन की पीड़ा को हरा-भरा किया जा सकता है। हर एक घर से ही स्वस्थ धरती,स्वस्थ पाताल और स्वस्थ आसमान की पहल साकार हो पाएगी इसी से प्रकृति,पर्यावरण और आम जन जीवन की रक्षा और सुरक्षा हो पाएगी अन्यथा दिखावा और बाह्या आडम्बरों की कोशिशें सिर्फ बैठकों में बने कागजों और नारों तक सिमट कर रह जाएंगी।