न डूबेगी टिहरीः न बिसरेंगे श्रीदेव सुमन
न डूबेगी टिहरीः न बिसरेंगे श्रीदेव सुमन
साभार :- कुसुम रावत
टिहरी झील में
एक शाम मैं खोज रही थी
पुरखों की विरासत, डूबी टिहरी के अवशेषों में।
याद आई माँ मुझे जिसकी ऊंगली थामे मैं हेंवलघाटी से आई थी टिहरी।
फिर याद आये वेदांती शहंशाह रामतीर्थ
जो सिखा गये जीवन का सबक, सार और पाथेय।
यूँ खुलीं मेरी यादों की गठरियां
और तैरने लगी झील में कई परछाईयां।
बच्चे-बूढ़े-जवान-गरीब-अमीर-हिंदू-मुस्लिम-जैन-सिक्ख-ईसाई
आते-जाते रहे मेरे वाईस्कोप में रंग-बिरंगे चित्रों के माफिक।
मैंने जी भर याद किया टिहरी की
हर गली,चौबारे,खण्डहर, मंदिर,मस्जिद मकान, दुकान, श्मशान और कब्रिस्तान को
याद आये राजमहल के खंडहर, गरीब-गुरबों की कुड़ी-बाड़ियां और
टिहरी का हर नाता-रिश्ता और जाने-अनजाने लोग।
टिहरी झील से उल्लारें-छल्लारें-हिल्लोरें मार रहे थे
वहां के वाशिंदे-कारिंदे-पथिक-राजे-महाराजे-जोगी-मजदूर-क्रांतिकारी और दीवाने।
सबको याद कर मेरा दिल ना भरा
एक हूक सी उठती रही दबी कसक के साथ।
मैंने बार-बार सोचा, आखिर ये हूक क्यों?
कौन निमंत्रण दे रहा है मुझे झील की गहराईयों से
तो नजर आई कलकलाती भागीरथी-भिलंगना के बीच से झांकती एक परछाई
बड़ा सुदर्शन, शान्त, गंभीर, सौम्य था वो चेहरा-मोहरा
वो फुसफुसाकर बोला- अरे कुसुम तुमने पहचाना नहीं
कैसे भूल सकती हो तुम मुझे?
परछाई जोर से हंसी- अरे मैं बागी-विद्रोही तो आज भी तेरे साथ हूँ
तेरे दिल-दिमाग में कैद और रचा-बसा हूँ तेरे खामोश संसार में।
मैं सख्ती से बोली नहीं- मैं नहीं जानती कौन ‘बागी’ हो तुम?
कैसे दावा करते हो मेरी यादों में रचने-बसने का
वो भी बिना मेरी ईजाजत के?
अरे ‘बागी’ मेरी यादों में वेदांती राम बादशाह का पसारा है
मेरी गुरू माईबाड़ा की 108 माई हरिपुरी का डेरा है।
परछाई अट्टाहास मारकर बोली-
अरे मैंने कब कहा कि राम बादशाह और गुरू मां तेरे हम सफर नहीं?
पर ये भी सच है कुसुम- मैं भी तेरी सुंदर यादों में पसरा हूँ
छल ना करो मुझसे, ना झूठ बोलो, वो परछाई खामोशी से बोली-
कुसुम मैं जौल गाँव का बागी श्रीदेव सुमन हूं!
हां वो श्रीदेव सुमन जो किताबों-भाषणों-लेखों-गोष्ठियों में तो उतरा
पर वो टिहरी के विचारों का हिस्सा ना बन सका।
वो सुमन जो टिहरी रजवाड़े के खात्मे की चिंगारी बन सुलगा था.
तुम कैसे भूल गई मुझे? तब मेरी गहरी तंद्रा टूटी
मुझे याद आया सुमन चौक सरस्वती शिशु मंदिर का अपना वो स्कूल
शिशु ‘क’ कक्षा में 25 जुलाई का वो दिन
जब हम बच्चे लाईनें बना चले थे टिहरी जेल की ओर हाथों में फूल लिए
हमारी टोली चली सुमन चौक से घंटाघर हो टिहरी जेल की ओर
प्रभातफेरी करते- श्रीदेव सुमन अमर रहे का जयकारा लगाते
पहुंचे उस मनहूस कोठरी में, जहाँ सुना तुम कभी कैद थे।
हम बच्चे थके थे- भूख प्यास से, तपती दोपहरी ने हमारा हौसला तोड़ा.
पर अचानक हम सन्न हो गये तेरी कोठरी के बाहर
सुन खनखनाहट तेरी 35 किलो वजनी बेड़ियों की।
आचार्य जी तेरी शहादत की कहानी सुनाकर बोले
जाओ बच्चों उठाओ बेड़ियाँ, चूमो उनको और चढ़ाओ ये फूल पत्तियां
उस ‘श्रीदेव सुमन’ को जो ‘फूल’ बन चढ़ा था भारत माँ पर भरी जवानी में।
प्यारे सुमन कैसे भूलूं वो पल जब पहली बार मेरे नन्हें हाथों ने तेरी वजनी बेड़ी को छुआ था
तेरी बेडियां को उठाने का ‘इल्म’ तो नहीं था उस वक्त
पर महसूसा था एक ‘जादुई स्पंदन’ उस खनखनाहट में।
वो स्पंदन था तेरी दीवानगी, मस्तानगी और आजादी की चाहत का।
वो था तेरा बागीपन जो तूने पाया था बापू और सर्वोदयी विनोबा से
वो थी तेरी दीवानगी, जो थी कैद तेरे जादुई बक्से में धरे चरखे और
तेरे झोले में संभाली किताबों और तेरे खादी के पहनावे में।
मुझे याद है वो ‘स्पंदन’ जिसकी झनझनाहट से टिहरी के लड़के बागी बने
तेरी दीवानी टोली ने लड़ी लड़ाई अंग्रेजों और टिहरी राजा से आजादी की।
फिर तो सुमन हम बच्चे हर साल टिहरी जेल जाते
मेरी क्या वकत थी श्रीदेव सुमन को ‘सुमन’ चढ़ाने की
फिर भी मैंने रस्म अदायगी की सालों
यकीन करना सुमन तेरे अलावा मैंने कभी किसी को फूल ना चढ़ाये
क्योंकि मुझे फूल तोड़ना कभी नहीं भाया।
मैंने बार-बार तेरी दीवागनी की कहानी पढ़ी
तेरी बेड़ियों की खनखनाहट और तेरी सौम्य तस्वीर में
कि कैसे तूने टिहरी को बागी टिहरी बना डाला
मैंने हौले-हौले जाना कि कैसे जुल्मी राजा ने 84 दिन की क्रूर यातना के बाद
तुझे फेंका था भागीरथी नदी में बंद कर एक बोरे में.
पर तू टूटा नहीं-झुका नहीं
और मिल गया ‘तेरा स्पंदन मां गंगा के ही जादुई स्पंदन’ में
जिसे मैंने महसूसा जेल के नीचे सड़क के पत्थरों पर बैठ दोस्तों के साथ।
सुमन जुल्मों और अन्याय के खिलाफ तेरी वो बगावत
कब मेरे दिल में गहरी उतरती गई, मुझे पता ही नहीं चला.
तेरी बगावती टोली ने तो टिहरी को आजाद कराया
पर मेरे बागी तेवर कुछ ना कर सके।
मैं आज भी झील किनारे खड़ी सोच रही हूं- आखिर हमारी टिहरी क्यों डूबी?
पर सुमन एक बात मेरे दिल में गहरे से बैठ गई कि
तू एक नाम नहीं- विचार है-प्रतीक है-संदेश है-भरोसा है
न्याय का, क्रांति का, सच का, धर्म का, मर्यादा का, आजादी का, मुक्ति का।
अपने जन्म जन्मांतर के ‘स्व’ के क्लेशों, विषय विकारों, क्षुद्र वासनाओं और
हर अन्याय, शोषण, गुलामी, जुल्म, अत्याचारो,गैर बराबरी से उपर उठने का।
हां सुमन यही तो असल मुक्ति है और जीवन का लक्ष्य भी।
टिहरी झील के किनारे आज मैं समझी तेरे और अपने जीवन का सच कि
तेरी बगावत राजा के खिलाफ ना थी, वो तो थी इंसान के हक हकूकों की।
वो बगावत कभी खत्म नहीं होगी
वो जिंदा रहेगी टिहरी के हर सुमन और उसके विचारों में।
जब तक धरती के किसी कोने में गैर बराबरी-अन्याय-अधर्म और जुल्म का पसारा होगा
प्यारे सुमन तू तब तक जिंदा रहेगा अपने बगावती शालीन तेवरों के साथ
अपने जादुई बक्से के साथ- जिसमें तेरी आजादी के विचार और रंगीले सपने कैद थे।
तेरी खुशबू मौजूद है आज भी, गांधी के चरखे और सूत के ताने बाने में।
सो मेरी प्यारी बागी टिहरी के बगावती प्यारे सुमन जरा गौर से सुन
ना तू मरा ना तेरा विचार, ना तेरा जादुई बक्सा कहीं गुम हुआ, ना तेरा चरखा कोई भूला
यकीन कर तेरी बेड़ियों की खनखनाहट से उपजा वो पहला आजादी का ‘बगावती स्पंदन’
टिहरी के वाशिंदों के दिलों में आज भी कैद है।
सुनो सुमन तुम्हें मालूम नहीं पर मैंने कहीं पढ़ा है कि
तेरी जेल की पीड़ा, तेरी शहादत, तुझ पर हुए जुल्मों से टिहरी राजमाता विचलित थी
अपनी पाती में राजमाता ने लिखा है मुझे दासियों से खबर मिलती
कि कैसे दरोगा मोर सिंह और उसके कारिंदे ढा रहे हैं जुल्म सुमन और उसके बागी दोस्तों पर
राजमाता ने अपने अंदाज में की बगावत तेरे पक्ष में राजमहल की चहरदीवारी में।
पर उस मां की आवाज दब गई, अनसुनी हुई टिहरी रियासत में
क्योंकि राजमाता टिहरी भी एक औरत थी वो भी पर्दे के पीछे कैद।
मुझे हैरानी हुई बरसों बाद यह जान कि राजमाता का दिल तेरे लिए धड़का था प्यारे सुमन
वो भी एक अनगढ़ा-अनचिन्हा-अनबूझा इतिहास है।
मुझे संकोच नहीं ये कहने में कि तू ही राजमाता टिहरी के जनहित के कामों की प्रेरणा बना होगा
ऐसा कुछ मुझे लगा राजमाता के डायरी के पन्नों को पढ़।
तुझ पर हुए जुल्मों की पीड़ा ने राजमाता को सच में राजमाता बना डाला
सो ये भी तेरा ही अहसान है राज खानदान और बागी टिहरी पर।
हाँ सुमन मुझे तेरे वो बगावती तेवर
फिर नजर आये विनय लक्ष्मी सुमन के भाषणों में
जो तेरी धर्मपत्नी ने विधायक बन दिये थे आवाम के हक में।
क्या तू ही विनयलक्ष्मी सुमन के दिल में नश्तर बन बैठा था एक लोकतांत्रिक विचार बनकर
पर मुझे अफसोस है विनयलक्ष्मी सुमन की वो पहचान होनी बाकी है जिसकी वो हकदार है।
प्यारे सुमन टिहरी की हवाओं में तैरते तेरे बगावती तेवरों से सीखी बूझी
मेरी एक छोटी सी बगावत आज भी जारी है
कमतरों-गरीब गुरबों-जुल्म के मारे हाशिये पर खड़े बेबस लोगों के हक में मेरी ‘अपनी ही हदों’ में
आखिर मैं भी तेरी बागी टिहरी की अनजान बगावती हूं
जिन्हें लोग ‘टिरियाल’ बोल उलाहना देते हैं।
पर प्यारे सुमन मुझे गर्व है टिरियाल कहलाने में
हाँ सुमन गौर से सुनो तुम्हारे साथ मेरा एक और नाता है
मैं भी तेरी उसी हेंवलघाटी का पंछी हूँ
जो अपने बगावती तेवरों, ढढकों, चिपको, बीज बचाओ आन्दोलनों की भूमि है
सो कैसे भूल सकती हूँ तुमको प्यारे सुमन
तुम मुझे फिर कभी उलाहना मत देना कि हम तुझे बिसर गये।
अरे तू प्रतीक है, आन-बान-शान है
खुद्दार ‘टिरियाली संस्कृति की, जो डूबी है टिहरी झील की गहराईयों में।
हां एक जरूरी बात सुनो
लोग कहते हैं टिहरी झील सुमन सागर हो, कुछ कहते हैं सुदर्शन सागर हो
पर बुरा ना मानना प्यारे सुमन यह तो टिहरी झील ही होगी क्योंकि
टिहरी हमारी माँ थी
माँ डूबने से मरती नहीं, वो जिंदा रहती है अपनों की कसक और विचारों में।
हाँ सुमन तू उसी टिरियाली माँ का अमर बेटा श्रीदेव सुमन है
टिरियाली माँ के कई सुमन होंगे
पर माँ तो एक ही है ना-हमारी बागी टिहरी।
हां सुमन तुम भूल गये क्या?
तुम तो मुझे मिले हो कई बार नई टिहरी जेल में
तुम ही तो लाए थे मुझे खींच-खांच बेगुनाह लाचार बूढ़ी कैदी किरदेई के पास
जो तेरी कोठरी के पास मंदिर के बाजू में खड़े हो रोती बिलखती थी।
वो बेगुनाह किरदेई जो तमिलनाडू से कूड़ा बीनने आई थी पेट की आग बुझाने को
पर पहुंच गई स्मगलर बन नई टिहरी जेल, चकड़ैतों के जुल्मों की शिकार हो।
हां सुमन वो ऊर्जा, वो स्पंदन, वो बगावती तेवर तुम ही तो थे
जिसे मैंने सैकड़ों बार महसूसा टिहरी जेल में कैद बेगुनाहों की आह में।
वो तुम ही तो थे सुमन जो बेचारी किरदेई को आजाद कर उड़ा ले गये उसके देश को
मेरे और कलक्टर राधा रतूड़ी के कानों में उसकी बेगुनाही की बागी फुसफुसाहट देकर।
फिर सुमन कैसे कहूं तुम जिंदा नहीं हो, और टिहरी डूब गई?
सुनो ना तुम मरे, न हमारी टिहरी कभी डूबेगी
क्योंकि तुम एक स्पंदन हो उस पारब्रहम का, जिसका पसारा ये जगत है।
टिहरी भी उसी ‘ओज’ का अंश है
जो कुछ वक्त के लिए उपजी और फिर समा गई उसी ब्रहम में।
क्योंकि टिहरी उपजी थी एक खास विचार और ब्रहमांडीय ऊर्जा का जीवंत संदेश लेकर
और डूब गई दुनिया को ‘बिजली का उपहार’ देकर।
सुनो सुमन वो संदेश, वो ऊर्जा पुंज, ये ‘बिजली का उपहार’ कोई और नहीं
तुम और मेरे वेदांती राम ही तो हो।
सो सुमन तुम जिंदा हो क्योंकि
तुम खुशबू हो, फूल नहीं जो मुरझाओगे
जब-जब मौसम आयेगा तुम आओेगे-तुम आओगे
बार बार आओगे, जरूर आओगे श्रीकृष्ण के माफिक
न्याय-धर्म-मर्यादा की खातिर!
एक सुंदर ‘श्रीदेव सुमन विचार’ बनकर
प्यारे सुमन! तुमको हर टिरियाली वाशिदें का नमन
- मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत तथा वित्त मंत्री प्रकाश पन्त हुए सम्मानित
- लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी, साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी,सुभाष पन्त, डा. हर्षवन्ती बिष्ट सम्मानित
- जिलाधिकारी सोनिका ने श्रीदेव सुमन स्मारक किये श्रृद्धा सुमन अर्पित