दिन ब दिन बढ़ती ‘सरकार की उलझनें’
शराब, खनन ,लोकायुक्त और थानान्तरण पालिसी बनी सिरदर्द
देवभूमि मीडिया
देहरादून। मौजूदा समय के हालातों केा देखें तो एक तरह से कहा जा सकता है कि ‘सरकार’ की उलझनें बढ़ी हुई हैं। हालांकि हाईकोर्ट की ओर से चार माह के लिए प्रदेश में खनन पर रोक लगाने के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है, मगर इतने दिनों तक खनन बंद होने से सरकार को इस ओर से राजस्व आना फिलहाल ठप है। वहीं दूसरी ओर इन दिनों प्रदेश की महिलाओं ने शराब के विरोध में पहाड़ सिर पर उठाया हुआ है।
उल्लेखनीय है कि एक ओर सुप्रीम कोर्ट के नेशनल और स्टेट हाईवे पर एक निश्चित दूरी तक स्थित शराब की दुकानों को हटाए जाने के आदेश के बाद ऐसी दुकानों को जबसे दूसरी जगह शिफ्ट किया जा रहा, तभी से संबंधित स्थानीय लोगों ने शराब की दुकानों का विरोध तेज किया हुआ है।
स्टेट हाईवे डिनोटिफाई कर राज्य सरकार को फौरी तौर पर भले ही सुप्रीम कोर्ट के राष्ट्रीय राजमार्ग से शराब की दुकान हटाए जाने के आदेश से राहत मिलती दिख रही है। मगर जानकारों की माने तो इस ओर सरकार की मुश्किलें बढ़ भी सकती हैं। एक ओर कांगे्रस प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के बयान कि स्टेट हाईवे डिनोटिफाई मामले में पार्टी विधिक राय ले रही है। प्रबल संभावना है कि विधिक राय मिलते ही कांगे्रस की ओर से राज्य सरकार के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
शराब को लेकर प्रदेशभर में स्थानीय लोगों का विरोध प्रदर्शन सरकार के लिए उलझने बढ़ाए हुए है। शराब के विरोध में धरना प्रदर्शनों की कमान महिलाओं के हाथों में देखी जा रही है। दिन ब दिन शराब के विरोध में महिलाओं की टोलियां उग्र प्रदर्शन करती भी दिख रही हैं। शराब के विरोध में महिलाओं की एकजुटता का असर दिखने भी लगा है। अधिकांश जगह शराब की दुकानें शिफ्टिंग के बाद खुल भी नहीं पाई हैं। वहीं कई कारोबारियों ने तो रातों-रात शराब को दुकानों से हटाने पर जोर दिया जाने लगा है। शराब पर चल रहे रार के कारण फिलहाल सरकार को अनुमान से कहीं कम राजस्व मिल पा रहा है।
विडंबना देखिए, जिस शराब और खनन को लेकर भाजपा ने पूर्ववती कांग्रेस सरकार की नींद उड़ाए रखी, उसी शराब और खनन ने आज भाजपा सरकार की उलझनें बढ़ाकर रख दी हैं। शराब और खनन को लेकर आज भाजपा सरकार जिस मुश्किल घड़ी में दिन बीता रही है, सही मायने में इसके लिए प्रदेश में सत्तानसीं रही सरकारें जितनी जिम्मेदार हैं, उतनी ही विपक्षी या अन्य राजनैतिक पार्टियोंं की भी जिम्मेदारी बनती है।
राज्य गठन के बाद अगर राज्य में घटित अपराधों, सडक़ हादसों के ग्राफ बढ़ रहे तो इसके पीछे कहीं न कहीं शराब की भी जिम्मेदारी है। हालांकि, इन दिनों जनता जिस तरह से लाइसेंसी, वैद्य शराब की दुकानों का विरोध कर रहे हैं, उसी तरह प्रदेश गठन के बाद से ही संचालित हो रही शराब की अवैध दुकानों का विरोध किया जाता तो बेहतर होता। प्रदेश की कितनी ही गलियों में, आस पड़ोस में शराब का अवैध खेल संचालित होता आ रहा है। सवाल उठता है कि प्रबुद्घ जनता ने इसके खिलाफ क्यों नहीं अभी तक किसी भी स्तर पर आंदोलन की शुरूआत की है। हैरानी कि तीर्थ नगरी में शराब प्रतिबंधित होने के बाद भी वहां चल रहे अवैध शराब के खेल को रोकने के लिए एकमात्र पुलिस ही कदम उठाती रही है।
वहीँ दूसरी तरफ देवभूमि उत्तराखण्ड में लोकायुक्त का गठन होगा कि नहीं, सस्पेंस अभी भी बरक़रार है। लोकायुक्त विधेयक प्रवर समिति के हवाले है और सियासी हलकों में इसके पास होने या न होने को लेकर बहस छिड़ी है। मगर जिस रूप में लोकायुक्त पेश हुआ है, सरकार ने उसे वैसा ही लागू कर दिया तो उस सूरत में हुक्मरानों और राजनेताओं के लिए सरकारी अफसरों और कार्मिकों पर रौब दिखाना आसान नहीं रहेगा।
दरअसल, हर हुक्म पर अफसरों के पास अब बहाना होगा कि फाइल पर लिखकर दे दीजिए सर। जानकारों की मानें तो लोकायुक्त लागू होने के बाद लोक सेवकों के लिए नियमों को तोड़ना आसान नहीं रहेगा। बहरहाल, सरकार भी लोकायुक्त के कुछ प्रावधानों को लेकर असहज है। उसके रक्षात्मक रुख पर कांग्रेस भी निशाने साध रही है। सियासत में सरकार के मंत्रियों पर ये सवाल उठते हैं कि उनका नौकरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं है। वो बेलगाम हो गई है। मगर दूसरी ओर नौकरशाही के अपने तर्क हैं। कई बार हुक्मरानों और अफसरों की जुगलबंदी भी सवालों में रही है।
मगर काम से काम रखने वाले लोक सेवकों का मानना है कि मजबूत लोकायुक्त आने से हुक्मरानों और अफसरों के मध्य मर्यादा की लक्ष्मण रेखा खिंच जाएगी, जिसे लांघना दोनों के लिए आसान नहीं रहेगा। एक वरिष्ठ नौकरशाह का कहना है कि मंत्री या विधायक जी, यदि फोन पर उन्हें कोई निर्देश देंगे और वह नियमों के अनुरूप नहीं होगा, तो निसंकोच कह सकेंगे, ‘ऊपर लोकायुक्त है सर! लिखकर दे दीजिए।’