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26 मार्च, 1974 के गर्भ से जन्में चिपको आंदोलन को समझने की कोशिश

रेणी में 26 मार्च, 1974 को महिलाओं द्वारा अपने गांव के जंगल को बचाने की घटना प्रदेश, देश और दुनिया में चर्चा का बना विषय 

डॉ.अरुण कुकसाल
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला से 2019 में प्रकाशित ‘हरी भरी उम्मीद’ (चिपको आन्दोलन और अन्य जंगलात प्रतिरोधों की परम्परा) किताब उस समाज को समर्पित है जो जंगलों के मायने समझता है।
किताब के लेखक शेखर पाठक ने 20वीं सदी तक के गढ़वाल-कुमाऊं के पहाड़ी इलाकों को चुप समाज (कमोवेश आज भी ये चुप समाज ही हैं) कहा है। अपने आप में ही प्रकृति प्रदत सौन्दर्य और संसाधनों की आत्ममुग्धता में मस्त तरीके से जीने वाला आत्मनिर्भर समाज। बाहरी सत्ता के दख़ल ने इस चुप समाज की संप्रभुता, संपूर्णता, सामाजिकता, आत्मसम्मान, आत्मनिर्भता और आत्ममुग्धता को निरंतर कमजोर करने का प्रयास किया। और, यह क्रम आज भी जारी है।
नि:संदेह, लेखक ने तरह-तरह के स्रोतों, किताबों, रिपोर्टों और शोध पत्रों ओर स्थानीय समाज से बाहर निकलकर चिपको आन्दोलन की गहनता, गम्भीरता, गौरव और गल्तियों की तीखी पड़ताल की है। जंगल और वनवासियों के नैसर्गिक अतंःसंबधों को व्यापक और बहुआयामी फलक देकर आम जन की सशक्त अभिव्यक्ति किताब में हुई है। घटनाओं और प्रसंगों के संदर्भ बहुत लुभाते हैं, उनसे ठोस, व्यवस्थित और प्रामाणिक जानकारियां मिलती है। चिपको के बहाने 20वीं सदी के प्रारम्भ से आखिर तक के पलते-बढ़ते उत्तराखण्ड के मन-मस्तिष्क का मिज़ाज़ इसमें है। इस नाते उस दौर के व्यक्तित्वों, संस्थाओं और शासन-प्रशासन की नीति-नियत से हम परिचित होते हैं। यह किताब विगत काल में उत्तराखण्ड की तमाम घटनाओं तथा जन-आन्दोलनों का प्रामाणिक दस्तावेजों और संदर्भों को साथ लिए उनकी गहन समीक्षात्मक कमेंट्री करती हुई लगती है। उत्तराखण्ड हिमालय के जंगलों पर अध्येयताओं की नज़र और लोक की समझ को समझते-समझाते हुए शेखर पाठक ने प्रचलित मिथक और मान्यताओं से हटकर इस किताब को लोक की नजर से लिखा है।
किताब बताती है कि शासकों ने हमेशा आम आदमी को जंगलों का दुश्मन माना। उनके लिए आम ग्रामीण जंगलों के ‘अवांछित याचक’ ही रहे हैं, जबकि सत्ता के लिए जंगल आय और आनंद के केन्द्र रहे हैं। बिडम्बना यह है कि देश में सन् 1864 में जंगलात विभाग के गठन से आज तक यह कुविचार हमेशा हावी रहा है।
उत्तराखण्ड में प्रारंभ से ही अंग्रेजी सत्ता का विरोध मुख्यतया जंगलात और कुली बेगार प्रथा थी जो कि बाद में स्वाधीनता आन्दोलन से स्थानीय निवासियों को जोड़ने के लिए प्रेरक बने। उस काल में ग्रामीण जनता का सबसे बड़ा और नजदीकी शत्रु जगंलात महकमा था। ग्रामीणों को जब भी मौका मिलता वे अपना विरोध प्रकट करते थे। परन्तु उनकी आवाज़ अनसुनी ही रह जाती थी। एक प्रसंग में ‘‘यूरोप के युद्ध मोर्चे पर कुमाऊं के एक घायल सिपाही के पास जब ब्रिटिश बादशाह आये और तकलीफ़ों के बारे में पूछा तो उसने तत्काल हज़ारों मील दूर स्थित अपने गांव और परिवार को परेशान करने वाले पटवारी तथा पतरौल के विरुद्ध शिकायत की थी (पृष्ठ-96)।’’
आजादी के बाद उत्तराखण्ड में वन और वनवासियों की स्थिति और सुधार के दृष्टिगत जन दबाव के बाद बलदेव सिंह आर्य की अध्यक्षता में कुमाऊं जंगलात जांच समिति-1959 (कुजजास) का गठन किया गया था। समिति ने जंगलों पर स्थानीय निवासियों के परम्परागत हक-हकूकों को स्वीकारते हुए महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे। लेखक का मानना है कि ‘‘समिति की मांगें यदि गम्भीरतापूर्वक मानी जातीं तो अगले दशकों में प्रकट व्यापक जन असन्तोष तथा जंगलात आन्दोलनों के उदय को रोका जा सकता था और प्राकृतिक संसाधनों की हिफ़ाज़त के ज़्यादा कारगर तरीके जन सहयोग से निकाले जा सकते थे (पृष्ठ-134)।‘‘
उत्तराखण्ड में 60 के दशक में जमीन और जंगलात के मुद्दे प्रमुखता से सार्वजनिक बहसों में मुखरित होने लगे थे। परिणाम स्वरूप, पहाड़ की मूलभूत समस्याओं के निराकरण के लिए सन् 1967 में पर्वतीय विकास परिषद का गठन किया गया। 30 मई, 1968 से तिलाड़ी जन-विद्रोह की याद में ‘वन दिवस’ मनाने की शुरूआत की गई। सन् 1969 के मध्यावधि विधान सभा चुनाओं में पहली बार पहाड़ी जमीन और जंगल की समस्यायें राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्रों में आई। यह गौरतलब है कि संपूर्ण हिमालय के समग्र विकास के दृष्टिगत मार्च, 1972 में पिथौरागढ़ के तत्कालीन विधायक हीरा सिंह बोरा ने केन्द्र सरकार को ‘हिमालय सैल’ का अभिनव विचार दिया था (पृष्ठ-1
1970 के दशक में यह बात आम थी कि उत्तराखण्ड के पहाड़ों की वन उपज स्थानीय सहकारी समितियों को न देकर बाहरी निजी ठेकेदारों को दे दी जाती थी। वे कम धनराशि में वन उपज का ठेका प्राप्त करके तुरंत ऊंचे दामों में पुनः बेच देते थे। इस सांठ-गांठ में सरकारी अधिकारी, नेता और अन्य प्रभावशाली लोग शामिल रहते थे। प्रदेश सरकार की ऐसे ही कई पक्षपातपूर्ण और गलत वन नीतियों के खिलाफ जनता में जगह-जगह विरोध होते थे। परन्तु इन छिटके विरोधों में एकजुटता और सामुहिकता आनी अभी बाकी थी। और, उसकी शुरुआत 22 अक्टूबर, 1971 को गोपेश्वर में हजारों लोगों के निर्णायक प्रदर्शन से हो गई थी। जिसमें जनता द्वारा चेतावनी के स्वर में ऐलान किया गया कि ‘‘जंगलों से प्राप्त कच्चे माल पर अपनी रोजी के लिए पहला हक हमारा है (पृष्ठ-179)।’’ यह निकट भविष्य में आक्रमक वन आन्दोलन के पनपने की पहली स्पष्ट आहट थी।

अपने परम्परागत जंगलों से बेदखल किए जा रहे ग्रामीणों के आक्रोश से बेखबर सरकार की मनमानी दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। कृषि यंत्रों के लिए सर्वाधिक उपयोगी अंगू और चमखड़ीक की लकड़ी तक बाहरी कम्पनियों को बेधड़क दी जा रही थी। परन्तु, स्थानीय सहकारी समितियों और कृषकों को हल, लाट और जुवा बनाने के लिए उपलब्ध नहीं हो पा रही थी। सरकार द्वारा यह प्रचारित किया गया कि अंगू और चमखड़ीक के बज़ाय पहाड़ में कृषि यंत्र चीड़ की लकड़ी से अधिक सुविधापूर्ण तरीके से बनाये जा सकते हैं।

सरकार की वन नीतियों के खिलाफ जगह-जगह पर संचालित आन्दोलन एक नई दिशा की ओर गतिशील हो रहे थे। कच्चे माल-वन उपज को बाहर न भेज कर उसका स्थानीय उपयोग, वन प्रबंधन में स्थानीय लोगों की सहभागिता, पहाड़ों में वनों के प्रस्तावित कटानों को निरस्त किया जाना आदि की प्रबल मांग की जाने लगी थी।
पांगरवासा-मंडल और मैखंडा-फाटा के वन कटानों को निरस्त कराने में सफलता के बाद रेणी के जंगल में होने वाले वन कटान को रोकने के लिए वन आन्दोलनकारी सक्रिय थे। पेड़ काटने के लिए ठेकेदार के मजदूर जैसे ही जंगल की ओर जाते दिखे ग्रामीण ढ़ोल, नगाड़ा, भंकारे और शंख बजा कर सारे इलाके को इतला कर देते थे। तब, वन कटान को गए सरकारी कर्मचारियों और ठेकेदार की गैंग को भागने के सिवा और कोई चारा नहीं रह पाता था।
एक तरफ रेणी के जंगल को बचाने के लिए स्थानीय जनता लामबंद हो रही थी तो दूसरी ओर जिला प्रशासन, चमोली ने गुपचुप तरीके से रेणी के जंगल के लगभग 2500 पेड़ों के कटान की तारीख़ 26 मार्च निर्धारित कर दी थी। और, बड़ी चालकी से सन् 1962 के चीन युद्ध के बाद सीमान्त क्षेत्र में ग्रामीणों की भूमि अधिग्रहण के मुआवज़े के वितरण के लिए जिला प्रशासन ने इसी दिन 26 मार्च, 1974 को मलारी, रेणी, लाता के अलावा और भी गांवों के लोगों को चमोली में बुला दिया। अतः इन गांवों में इस दिन केवल महिलायें, बूढ़े और बच्चे ही रह गये थे।
26 मार्च, 1974 को रेणी के सितेल जंगल को काटने आये लोगों से महिलाओं ने ‘इस जंगल को अपना मायका बताते हुए कहा कि यही उनके जीवन और जीवकोपार्जन का मुख्य आधार है। उन्होने मजदूरों को यह भी समझाया कि आज के दिन गांव के पुरुष चमोली गए हैं। अतः उनके आने तक का आप लोग इंतजार करिये।’ परन्तु सरकारी ताकत की धौंस दिखाते हुए बंदूकधारी फारेस्ट गार्ड ने महिलाओं को धमकाना शुरू कर दिया।
‘‘….औरतों के मन में इस बन्दूकधारी को नियन्त्रित करने हेतु मन्थन चल ही रहा था कि गौरा देवी ने अपनी आंगड़ी के बटन खोलते हुए कहा, ‘लो मारो बन्दूक और काट ले जाओ हमारा मायका!’ सर्वत्र चुप्पी छा गयी। नीचे ऋषिगंगा बह रही थी और ऊपर नन्दादेवी की तरफ़ उठते पहाड़ खड़े थे। बीच में यह प्रतिरोध के पराकाष्ठा पर पहुंचने की चुप्पी थी। इतिहास का एक असाधारण क्षण था यह। ऐसा क्षण 13 जनवरी, 1921 को बागेश्वर में प्रकट हुआ था या 23 अप्रैल, 1930 को पेशावर में। लगता था जैसे गौरा देवी तथा उनके सहयोगियों के मार्फत सिर्फ़ रेणी नहीं, पूरा उत्तराखंड बोल रहा था बल्कि देश के सब वनवासी बोल रहे थे (पृष्ठ-208)।’’ आखिरकार, मातृशक्ति के आगे सरकारी मनमानी को झुकना पड़ा। और, सितेल-रेणी का जंगल और गांव की महिलाओं का मायका लुटने से बचा लिया गया।
रेणी में 26 मार्च, 1974 को महिलाओं द्वारा अपने गांव के जंगल को बचाने की घटना प्रदेश, देश और दुनिया में चर्चा का विषय बनी। रेणी की जीत को महिलाओं का जन-आन्दोलन में प्रकट रूप में सामने आने की सफल कोशिश मानी गई। यह भी प्रमाणित हुआ कि सरकार की वनों के प्रति जो दोषपूर्ण नीति थी, उससे महिलायें सीधे और सर्वाधिक प्रभावित थी। यह सभी ने स्वीकारा कि पेड़ों को कटने से बचाने के समय गौरा देवी और उसकी साथियों के मन-मस्तिष्क में पहाड़ी जनजीवन के अस्तित्व एवं अस्मिता दोनों की रक्षा और सम्मान का विचार सर्वोपरि था। यह क्षण प्रकृति और मानव के आत्म-संबधों की खूबसूरत स्वयं-स्फूर्त अभिव्यक्ति थी।
पांगरवासा-मंडल, मैखंडा-फाटा और सितेल-रेणी के जंगलों को बचाने की जीत ने चिपको आन्दोलन को आम लोगों से लेकर नीति-नियंताओं की जुबान पर ला दिया था। मज़बूरन ही सही, प्रदेश सरकार का ध्यान उत्तराखण्ड के संदर्भ में कुमाऊं जंगलात जांच समिति, 1959 के सुझावों और चिपको की मांगों पर विचार करने की ओर गया।
अकादमिक जगत में वनों के संरक्षण और संवर्धन पर केन्द्रित लेखन और संगोष्ठियों का एक नया दौर शुरू हुआ। युवाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं में जगह-जगह पदयात्राओं का दौर चलने लगा। चिपको कार्यकर्ताओं ने गांव-इलाके के सांस्कृतिक समारोहों, लोक उत्सवों, भागवत कथाओं, जागरूकता शिविरों और कार्यकर्ताओं के आपसी मेल-जोल के माध्यम से चिपको के उद्धेश्य, संदेश और कार्यक्रमों को लोकप्रिय बनाया। वनों के प्रति ग्रामीणों की सामाजिक सक्रियता बढ़ी। नतीज़न, वन कटान के विरुद्ध धरने-प्रदर्शनों के कारण कई जगहों पर वनों की नीलामी स्थगित हुई। साथ ही, जंगलात के मजदूरों की मज़दूरी में वृद्धि और उनकी कार्य पद्धति एवं दशा में सुधार हुआ।
चिपको के शुरुआती दौर में एक अभिनव अभियान ने सबका ध्यान अपनी तरफ खींचा। यह अभियान कुमाऊं-गढ़वाल के युवाओं की साझे भागेदारी में उत्तराखण्ड के पूर्वी हिस्से अस्कोट से पश्चिमी हिस्से आराकोट तक की पैदल यात्रा करने का था। ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ के बैनर तले 25 मई, 1974 को अस्कोट (पिथौरागढ़) से यह यात्रा आरम्भ हुई थी। जंगलों की सुरक्षा, नशाबन्दी, जनजागृति, युवाओं को रचनात्मकता की ओर अभिप्रेरित करना और दुर्गम इलाकों में विकास की पड़ताल करना इस अभियान के प्रमुख उद्देश्य थे।
लेखक ने यह माना है कि ‘‘यात्राओं से जन-आन्दोलन विकसित होते हैं या नहीं यह आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ दिया जाय पर यात्राएं शिरकत करने वाले को समझदार और संवेदनशील अवश्य बनाती हैं (पृष्ठ-219)।’’ अस्कोट-आराकोट अभियान’ में भाग लेने वाले युवा बाद मेें उत्तराखण्ड के समग्र विकास के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय हुए और उन्होने अपनी एक लोकप्रिय सामाजिक पहचान बनाई।
परन्तु, इन सब सकारात्मक परिवर्तनों के बीच सरकारी चालाकियां बदस्तूर जारी थी। सरकार अप्रत्यक्ष तौर पर चिपको आन्दोलन को कमजोर करने के कई हथकंडे अपनाती रही। वन आन्दोलनकारियों को प्रलोभनों की पेशकश की जाने लगी। सरकार एक तरफ वन बचाओ समितियों की बात करती तो दूसरी तरफ जंगल का कटान जारी रखे हुए थी। जनप्रतिनिधि – सामाजिक कार्यकर्ता जो प्रारम्भ में चिपको आन्दोलन के साथ खड़े थे, सत्ता में आकर विरोध में आचरण करने लगे थे। सत्ता में पहुंचे उन अपने ही साथियों से वन आन्दोलनकारियों को लड़ना अधिक कष्टकारी और कठिन था।

इसी दौर में उत्तराखण्ड के कुछ सर्वोदयी और साम्यवादी विचारों के निकट सामाजिक कार्यकर्ताओं की सक्रियता में एक नया मोड़ आया। पर्वतीय युवा मोर्चा, युवा निर्माण समिति और उत्तराखण्ड सर्वोदय मण्डल ने आपसी सहमति से 25 मई, 1977 को गोपेश्वर में ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ का गठन किया। उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी चिपको विचार के विस्तार और विकास की ही उपज थी। चुनावी राजनीति से दूर रह कर उत्तराखण्ड के समग्र विकास को उचित दिशा और गति देना उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी का केन्द्रीय ध्येय विचार माना गया। (परन्तु अपने गठन के एक दशक बाद ही ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ को चुनावी राजनीति का हिस्सा बनना पड़ा।)

‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’ 70 और 80 के दशक में युवाओं को ‘पढ़ाई के साथ लड़ाई’ नारे को लिए सामाजिक सरोकारों से जोड़ने और उन्हें दक्ष करने की शीर्ष संस्था के रूप में लोकप्रिय हुई। ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’ के नेतृत्व में सन् 1984 से संचालित ‘नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन’ मूलतः चिपको आन्दोलन का ही विस्तार था। यह किताब उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के गठन से लेकर उसकी सामाजिक सक्रियता से शिथिल होने की भी पड़ताल है।
उस दौर में प्रमुखतया, गोपेश्वर-जोशीमठ, टिहरी-उत्तरकाशी और अल्मोड़ा-नैनीताल में फैली चिपकों की गतिविधियां अपने स्थानीय आवरणों के अनुकूल संचालित होने लगी थी। जुलाई, 1977 में हेंवलघाटी वन सुरक्षा समिति’ का ‘मरहम पट्टी अभियान’, सितम्बर, 1977 में संघर्ष वाहिनी का ‘भूस्खलन संघर्ष समिति आन्दोलन’, 28 नवम्बर, 1977 को नैनीताल कांड, दिसम्बर, 1977 में चांचरीधार और भ्यूंढार जंगलात आन्दोलन, जनवरी, 1978 में अदवाणी प्रतिरोध, 16 फरवरी, 1978 को हल्द्वानी प्रदर्शन और उस प्रदर्शन में ज्यादती के खिलाफ़ 24 फरवरी, 1978 को संपूर्ण उत्तराखण्ड के अभूतपूर्व बंद ने वन आन्दोलनकारियों को सफलता के नये मुकाम दिए।

राष्ट्रीय स्तर पर वन और पर्यावरण के प्रति बनी नई समझ के दृष्टिगत वन संरक्षण अधिनियम, 1980 अस्तित्व में आया। वन अधिनियम 1980 के लागू होते ही चिपको विचार को देश-दुनिया में वैचारिक समर्थन मिला। परन्तु अपनी जमीन पर उसे सामाजिक शंका और विरोध का भी सामना करना पड़ा। अधिकांश स्थानीय लोगों ने माना कि यह अधिनियम उनके जंगलों के परम्परागत अधिकारों की रक्षा के बजाय सत्ता के हित में जंगलों के संरक्षण और विकास के लिए बना है।

स्थानीय लोगों के मनोभावों को समझते हुए सरकार ने होशियारी से चिपको के शीर्ष नेतृत्वों को अलग-अलग तरीके से सार्वजनिक अभिनन्दनों, पुरस्कारों और सम्मानों के मोह-जाल में फंसाने के प्रयास आरम्भ कर दिए थे। और, बड़ी आसानी से सरकार ने इसमें कामयाबी भी हासिल कर ली थी। सरकार ने सीधी लड़ाई को तैयार चिपको के शीर्ष नेतृत्व को अपने पक्ष में करने की रणनीति बनाई। इसके तहत, सरकार द्वारा सुनियोजित तरीके से चुनिन्दा व्यक्तियों का व्यक्तिगत सम्मान किया जाने लगा। चिपको के आम कार्यकर्ताओं ने इसका कुछ सीमा तक विरोध भी किया। उनका मत था कि चिपको आन्दोलन का सम्मान होना चाहिए, व्यक्तित्वों का नहीं। कुवंर प्रसून और प्रताप शिखर जैसे कार्यकर्ता तो राजसत्ता से किसी भी प्रकार के सम्मान को लेने के विरोधी थे। परन्तु उनकी आवाज़ को अनुसुना कर दिया गया।
नतीज़न, सम्मानों ने चिपको के कुछ चेहरों को देश-दुनिया में ख्याति दी, इससे वे आदमी तो बड़े हो गए पर स्थानीय समाज और उनकी संस्थायें उनसे बहुत पीछे छूट गयीं। यह आन्दोलन दो वैचारिक पक्षों के जगह दो चेहरों को लिए आगे बढ़ने लगा। बाद में इन चमकते दो चेहरों ने सत्ता के चेहरे पर जन-उत्तरदायित्वों के सही निर्वहन न करने से जनता की नारज़गी से उपजी धूल को ही साफ करने में अपना योगदान दिया और दे रहे है। जिससे तबसे लेकर आज तक की सरकारें अपने को सहज और सुरक्षित महसूस कर सकी और कर रही हैं।
एक तरफ देश-दुनिया में चिपको आन्दोलन के प्रचार की धूम थी तो दूसरी तरफ उसके शीर्ष नेतृत्व के मध्य अहम और वहम की धूल मंडराने लगी थी। सम्मानों की ललक ने इसको और पनाह दी थी। व्यक्तिगत पुरस्कारों ने आम कार्यकर्ताओं में शंकायें और अलगाव भी पनपाया। इस नाते, पुरस्कारों ने चिपको आन्दोलन को ‘जोड़ा’ नहीं बल्कि ‘तोड़ा’ (आज भी सामाजिक आन्दोलनों को तोड़ने और कमजोर करने के लिए सरकार का ये सबसे कारगर अस्त्र-षस्त्र हैं)। व्यक्तिगत सम्मान, निर्णय, अनशन किसी आन्दोलन को चलाने में विघटन और भ्रम ही पैदा करते हैं, इसका चिपको प्रामाणिक उदाहरण है। योगेश चन्द्र बहुगुणा का यह कथन कि ‘‘इस आन्दोलन के फूट के बीज दो नेताओं की आकांक्षाओं की टकराहट के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं (पृष्ठ-390)।’’
यह अनोखी बात है कि चिपको के कुछ चेहरे इतना चमके कि उनकी चैंधियाती चकाचैंध में अन्य चेहरे फीके ही नहीं गुमनाम हो गए। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति और सम्मान से नवाजे गए सुंदरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट और कुछ हद तक गौरा देवी के अलावा और कोई भी चिपको का चर्चित चेहरा न बनाया गया और न बन पाया। चिपको के वीरानें में गुमनाम रहे चिपको आन्दोलन से जुड़े बहुसंख्यक कार्यकर्ताओं के परिवार आज भी कठिन दौर में हैं।
कवि राजा खुगशाल की एक कविता इन पक्तियों से विराम लेती है जो कि चिपको के शीर्ष नेतृत्व की उस समय की मंशा को बखूबी बयां करती है-
………
कुछ लोग
पृथ्वी के पर्यावरण पर बोलते हुए
चुपचाप बचा गये एक-दूसरे को
चिपको आन्दोलन की अपनी कमियां रही पर इसकी रचनात्मक उपलब्धियां कभी कम नहीं हुई। चिपको के ताप से तपे कार्यकर्ता जीवन के अनेक क्षेत्रों में बहुत गम्भीरता से कार्यरत और समर्पित रहे हैं। चिपको आन्दोलन की शिथिलता के बाद वापस अपने घरों और कर्मक्षेत्र को लौटे चिपको कार्यकर्ता अपनी रचनात्मकता को बनाये रखते हुए उसे निरंतर निखारने की ओर प्रत्यषील रहे हैं। उन्होने अपनी जीविका के संसाधनों को तलाशते हुए अलग-अलग क्षेत्रों में अपना महत्वपूर्ण सामाजिक योगदान दिया और दे रहे हैं। वास्तव में, 70 के दशक में युवाओं, महिलाओं और दलितों को अपने परिवेश के सामाजिक-आर्थिक सरोकारों से जोड़ने में चिपको आन्दोलन ने मुख्य प्रेरक का काम किया। चिपको से प्रशिक्षित जन-समुदाय अस्सी के दशक में ‘नशा नहीं रोजगार दो’ और 90 के दशक मेें ‘उत्तराखण्ड आन्दोलन’ में सर्वाधिक उद्वेलित रहा। आज भी उत्तराखण्ड के विविध क्षेत्रों में नेतृत्व की भूमिका में सक्रिय अधिकांश व्यक्तित्वों की पृष्ठभूमि और सामाजिक शिक्षण-प्रशिक्षण पाठशाला में चिपको विचार का महत्वपूर्ण योगदान है।

चिपको मूलतः पहाड़ी किसानों का आन्दोलन था। पहाड़ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मूल ताकत यहां की महिलायें रही है। ये अलग बात कि चिपको आन्दोलन की हिस्सेदारी में गौरा देवी के अलावा अन्य किसी महिला का प्रमुखता से नाम नहीं लिया जाता है। इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि वर्तमान व्यवस्था में महिलाओं के सामाजिक योगदान का आंकलन भी तो पुरुष आधिपत्य की मानसिकता ही करती है।

यह बात भी दीगर है कि चिपको में दलित वर्ग की भागेदारी को भी समय के अंतराल ने भुला दिया। चिपको पर लिखे गए अथाह लेखों और शोध-पत्रों में दलित योगदान का जिक्र चलते-चलते ही हुआ है। निःसंदेह, चिपको आन्दोलन में महिला और दलित वर्ग के योगदान पर गम्भीर शोध किए जाने की आवश्यकता है।
चिपको आन्दोलन दुनिया में छाया परन्तु वर्तमान मेें अपनी ही जन्मभूमि में उसका बस साया ही दिखता है। स्वतंत्रता के दशकों बाद आज भी वनों के प्रति आम जनता और सरकार की एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रहों में कोई तब्दीली नहीं आई है। जनता के लिए वन आज भी अनुछुये हैं और वन विभाग के लिए जनता वनों पर आक्रमणकारी। स्वाधीनता के बाद तराई-बाबर में शरणार्थी तो बसाये गये, परन्तु पहाड़ों में रहने वाले भूमिहीनों और आपदा में खेती, घर-बार गवांने वाले पहाडियों के लिए वहां कोई जगह नहीं दी गई। वन उपजों से अपनी जरूरतों को प्राप्त करने, अपने हक-हकूकों को जीवित रखने और रोजगार हासिल के मूलभूत अधिकार से भी स्थानीय पहाडियों को आज तक वंचित रखा गया है।
आज, कथित पर्यावरणविद केवल पद्म पुरुस्कारों की होड़ में दिखते हैं। आलवेदर रोड के लिए 50 हजार से 1 लाख तक पेड कट गये, इन पर कोई हलचल भी नहीं हुई। सत्ता के केन्द्र देहरादून के निकट थानों के कटते जंगलों पर पर्यावरण प्रतिष्ठा पाये इन प्रतिष्ठितों की कहीं कोई आवाज़ नहीं है। हो भी कैसे? पर्यावरणविद् पुरस्कारों के लडडू उनके गले में फंसे पडे हैं, आवाज कैसे निकलेगी? 70-80 के दशक में व्यवस्था के खिलाफ़ हुए आन्दोलनों को सरकारी सम्मान देकर चुप कराया जाता था। आज तो समाज सेवा का पर्याय ही पुरस्कारों प्राप्त करना लगता है। इसीलिए एनजीओ के प्रवक्ता बनकर देहरादून में सत्ता का सानिध्य चाहने वाले सरकारी सामाजिक कार्यकर्ताओं की भरमार है।
यद्यपि, असली और जुनूनी बहुसंख्यक सामाजिक कार्यकर्ता अभी भी नेपथ्य में समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैं। उन्हीं को उम्मीद मान कर इस किताब में उल्लेखित है कि ‘‘जब भी सरकार या सरकार से समर्थन पायी शक्तियां जनता के संसाधनों पर प्रहार करेंगी चिपको का ऐजेण्डा स्वयं ही हरा और हलचल भरा हो जायेगा। इसीलिए चिपको के विचार को ‘हरी भरी उम्मीद’ कहने का साहस किया गया है (पृष्ठ-488)।’’
आने वाले समय के लिए ‘हरी भरी उम्मीद’ की प्रबल आशा में यह किताब विराम लेती है। इतिहासकार अपनी सीमाओं को समझते हुए चिपको की भविष्य की उड़ान की ओर इशारा भर करते हैं। ‘‘आज लगता है कि चिपको आन्दोलन ‘वह बना दिया गया है’ जो ‘वह नहीं था’। वह आर्थिकी और पारिस्थितिकी का सन्तुलित समन्वय था। आज उसे कभी-कभी जिस तरह परिभाषित किया जाता है उसमें आम लोगों के वनाधिकार का सम्मान कायम नहीं रह सकता है। यहीं से चिपको को अपनी विलम्बित उड़ान लेनी होगी। पर यही वह बिंदु है जहां इतिहासकार को रुक जाना पड़ता है क्योंकि वह भविष्य विज्ञान के प्रयोग नहीं कर सकता है (पृष्ठ- 516-17)।

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