कांग्रेस के बागियों को संसदीय कमेटियों में स्थान से खफा है भाजपाई
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
देहरादून। इस बार विधानसभा चुनाव में बगावत भाजपा पर भारी पड़ती दिखाई दे रही है। नाम वापसी पर भाजपा के रणनीतिकार बागियों को बैठा पाने में सफल नहीं हो पाए। सत्रह बागियों को पार्टी से बाहर करने का निर्णय बताता है कि भाजपा में बगावत इस बार जरूरत कोई गुल खिलाने वाली है। बगावत के मामले में अभी भी कांग्रेस भाजपा से कम प्रभावित नज़र आती है। इतना ही नहीं भाजपा कार्यकर्ता इस बात से भी नाखुश हैं कि पार्टी ने कांग्रेस के बागियों को संसदीय कमेटियों में स्थान जो दे दिया है जिनसे कभी भाजपा का बैर था और जो अब सूबे में भाजपा का भविष्य तय करेंगे यह उन्हें किसी भी कीमत पर गवारा नहीं है।
पार्टी के नेताओं का कहना है कि पार्टी के नीतिगत फैसलों में कांग्रेस के बागियों की दखल उन्हें मंजूर नहीं। भाजपा के कुछ नेताओं का कहना है कि भाजपा के नैतिक पतन की यह पराकाष्ठा है। इन नेताओं का कहना है की अब कांग्रेस के बागी नेता बताएँगे कि सात बार विधानसभा चुनाव जीत चुके हरबंश कपूर या मदन कौशिक सहित कई ऐसे नेता जिन्होंने उत्तराखंड में विपरीत परिस्थितियों में पार्टी को जिन्दा रखा बागी नेता अब उनकी दिशा तय करेंगे, उनका कहना है यह नैतिक पतन की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है।
भाजपा ने जिन सत्रह बागियों को बाहर का रास्ता दिखाया है, वे सभी अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव मैदान में हैं। सत्रह की इस सूची में घनसाली से दो बागी हैं। इस तरह सोलह सीटों पर भाजपा के बागी अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ मैदान में हैं। उक्रांद कोटे से भाजपा सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे दिवाकर भट्ट 2012 के चुनाव में भाजपा के टिकट से चुनाव लड़े थे। उसके बाद वह विधिवत पार्टी में शामिल हो गए। इस बार जब उन्हें टिकट नहीं मिला तो वे पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। इसके बाद भी भाजपा ने उन्हें मज़बूरी में बागी माना है। उनको पार्टी से बाहर करने में हुई देरी से पार्टी की निष्पक्षता की कार्यवाही पर सवाल उठने लगे हैं।
कार्यवाही की जद में आए इन बागियों के अलावा जिला और मंडल स्तर के कई पदाधिकारी तथा कार्यकर्ता हैं, जो बागियों के साथ खड़े हैं। उन पर भी पार्टी ने कार्यवाही शुरू कर दी है। कुछ जिलों में दो दिन का अल्टिमेटम दिया गया है। सक्रिय न होने पर पार्टी से बाहर करने की चेतावनी उन्हें दी गई है। पार्टी के लिए काम न करने वाले पदाधिकारी तथा कार्यकर्ता वहां अधिक हैं, जहां या तो बगावत हुई है या फिर कांग्रेस से आए लोगों को सीधे टिकट थमा दिया गया है। कुल मिलाकर नामांकन वापसी के बाद यह बात साफ हो गई है कि अनुशासित कही जाने वाली पार्टी को इस बार 70 विधानसभा सीटों में से कम से कम डेढ़ दर्जन सीटों पर अपने लोगों से ही बगावत का दंश झेलना पड़ेगा।
दूसरी तरफ भाजपा के मुकाबले कांग्रेस काफी हद तक डैमेज कंटोल कर पाने में सफल हुई है। मुख्यमंत्री के खिलाफ किच्छा से खम ठोक रही शिल्पी अरोड़ा नामांकन वापस लेने को तैयार हो गई, कैंट समेत कुछ अन्य सीटों से भी अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ हुए नामांकन वापस हुए हैं। लेकिन कांग्रेस की राह भी इतनी आसान नहीं है। खटीमा सीट पर हालात इस कदर नियंत्रण से बाहर हो गए कि बागी प्रत्याशी समर्थकों ने मुख्यमंत्री हरीश रावत को अंदर तक नहीं घुसने दिया। देहरादून की राजपुर सीट से पार्टी प्रत्याशी के खिलाफ एक सभासद समेत दो बागी चुनाव मैदान में हैं, पार्टी किसी को नहीं बैठा पाई। इसके बावजूद कांग्रेस भाजपा से कम करीब दस सीटों पर बगावत झेल रही है।
दोनों पार्टियों के प्रदेश अध्यक्ष ही खुद इस बार बगावत से दो चार हो रहे हैं। रानीखेत सीट से भाजपा प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट के खिलाफ प्रदीप नैनवाल अडिग हैं तो सहसपुर सीट से कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के खिलाफ आर्येंद्र शर्मा पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। दोनों पार्टियों के प्रदेश अध्यक्ष अपनों से ही घिरे हुए हैं। जो उन्हें संकट में डालने के लिए काफी हैं।
इस चुनाव में राज्य में सत्ता की दावेदार भाजपा-कांग्रेस आमने-सामने तो हैं, लेकिन कई सीटों पर उनके अपने ही सामने हैं। जहां उत्तराखंड में बहुत कम वोटों के अंतर से चुनावी हार-जीत होती है, वहां अपने यदि मुकाबले में होंगे तो हार का कारण भी बन सकते हैं।