आखिर क्यों मुफ्त पाठ्यपुस्तकें समय पर सरकारी स्कूल के बच्चों को नहीं मिल पाती ?
राजकीय शिक्षक संघ के एससीईआरटी शाखा के अध्यक्ष डॉ० अंकित जोशी ने सरकारी विद्यालयों में समय पर मुफ्त पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध न हो पाने पर गंभीर चिंता व्यक्त की है । डॉ० अंकित जोशी का मानना है कि सरकारी विद्यालयों में अध्ययनरत छात्र-छात्राओं को गुणवत्तायुक्त शिक्षा मुहैया करवाना सरकार की जिम्मेदारी है । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बाकायदा एक विभाग बनाया जाता है ।
विभागीय ढाँचे में विभिन्न पद सोपान होते हैं । नैतिक जवाबदेही के साथ-साथ कानूनन भी विभाग / विभागीय अधिकारियों के दायित्व और जवाबदेही निर्धारित की जाती है । शैक्षिक सत्र भी पूर्व नियत होता है और छात्र संख्या में भी कोई बहुत बड़ा बदलाव नये सत्र में नहीं होता, मुश्किल से लगभग 10-15 प्रतिशत का ही अंतर रहता है ।
सरकार करोड़ों रुपये शिक्षा विभाग के कार्मिकों के वेतन पर व्यय करती है जोकि कुल बजट का लगभग 15 प्रतिशत होता है इसके बावजूद जिम्मेदार और जवाबदेह अधिकारी योजना नहीं बना पाते कि एक अप्रैल से अर्थात् सत्र के आरंभ से ही बच्चों को पाठ्यपुस्तकें मिल सकें।
दुःख इस बात का है कि ऐसा पिछले कई वर्षों से हो रहा है लेकिन विभाग ने अपनी कार्यशैली में कोई सुधार नहीं किया । पिछले सत्र में तो महानिदेशक महोदय द्वारा कई अधिकारियों का वेतन तक रोक दिया गया था लेकिन इस सत्र में फिर वही कहानी शुरू हो गई। समाज के ऐसे तबके का बच्चा सरकारी विद्यालयों में अध्ययनरत है जो अपने अधिकारों के लिए कभी भी अवाज नहीं उठा पता इसलिए शिक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर विभाग को अतिसंवेदनशील होना चाहिए ।
यह पाठ्यपुस्तकों की अनुपलब्धता ही थी जो मिशन कोशिश जैसा कार्यक्रम विभाग को नवाचार के रूप में अप्रैल-मई माह के लिए चलाना पड़ा, जो बाद में कभी विद्यासेतु बना और अब मिशन कोशिश -2 । शिक्षा प्रदान करने का यह मौजूदा तंत्र कितना संवेदनशील, जवाबदेह और जिम्मेदार है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब शैक्षिक सत्र आरंभ होने की तिथि पूर्व निर्धारित है उसके बावजूद प्रत्येक शैक्षिक सत्र के कुछ अति महत्त्वपूर्ण माह बिना पाठ्यपुस्तकों के पठन-पाठन के क्यों चलाये जाते हैं । कोई ठोस योजना क्यों नहीं बनाई जाती ? इस शिथिलता के लिए जवाबदेह कार्मिकों के विरुद्ध कार्यवाही क्यों नहीं होती ? आज व्यवस्था इतनी निष्ठुर और मूक दर्शक बन चुकी है कि अब किसी को समय पर पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध करवाना अपनी जिम्मेदारी ही नहीं लगती ।
शिक्षा विभाग के तीन-तीन निदेशालयों का आख़िर औचित्य ही क्या है जब छात्रहित, शिक्षकहित सभी कुचले जा रहे हों ।इस बात की विभागीय अधिकारियों को अब पीड़ा ही नहीं होती क्योंकि हर सत्र में ही ऐसा हो रहा है और जो बातें नियमित होती है वो एक आम बात हो जाती है । नियमित होने से उसकी किसी भी प्रथा या कुप्रथा के रूप में स्वीकार्यता बढ़ जाती है फिर भले ही वो समाज को कितनी भी हानि क्यों न पहुँचा रही हो ।
जो बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़ने आ रहा है उसका हक न केवल मुफ्त पाठ्यपुस्तकों पर है बल्कि गुणवत्तायुक्त शिक्षा पर भी है जिसे देने में विभाग और तंत्र असफल हो रहा है ।