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आखिर सुदूरवर्ती पहाड़ों में नौकरी करने वालों की कौन सुनेगा सरकार ?

भारी बर्फवारी के दौरान जिला मुख्यालय और राजधानी से कट जाता है संपर्क 

राजेन्द्र जोशी 

देहरादून : उत्तराखंड राज्य का एक सीमान्त जिला है उत्तरकाशी, और इस जिले का भी सीमान्त या यूँ कहें दूरस्थ प्रखंड है मोरी। यह इलाका अभी भी मूलभुत सुविधाओं से कोसों दूर है। उत्तराखंड आजकल शीतलहर के प्रकोप से जूझ रहा है और प्रदेश के सीमान्त जिलों के अधिकांश ग्रामीण इलाके बर्फवारी के चपेट में हैं। प्रदेश की राजधानी देहरादून में मौसमविज्ञान केंद्र है जो राज्य के मौसम की जानकारी सरकार को उपलब्ध करवाता रहता है लेकिन राज्य के ऐसे स्थानों में बर्फवारी के चले बिजली-पानी की व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है और ऐसे स्थानों का जिला मुख्यालय सहित राज्य की राजधानी से संपर्क पूरी तरह कट जाता है। ऐसे में यहां तैनात सरकारी कर्मचारी और स्कूलों के अध्यापकों तक मौसम की जानकारी और मौसम के चलते सरकार या जिला प्रशासन द्वारा छुट्टी के आदेश यथा समय नहीं पहुँच पाते हैं और अध्यापक भारी बर्फवारी के बीच बच्चों को पढ़ाने को जहां मजबूर है वहीं छात्रों को भी पढ़ने के लिए बर्फवारी के बीच स्कूल पहुंचना पड़ता है।

ऐसी ही एक अध्यापिका शीला आर चौहान ने अपनी आप बीती सोशल मीडिया पर साझा की है।
उन्होंने कहा कि ”मेरी ज्वाइनिंग 01 November 2011 में रा. ई. का. जखोल ब्लॉक मोरी जिला उत्तरकाशी में LT हिन्दी के पद पर हुई। मुझे इस स्कूल में 8 साल हो गए हैं उस समय की बात करूँ तो यहां लाइट और नेटवर्क नहीं था पर वर्ष 2015-16 तक लाइट तो मौसम के अनुसार आ जाती है पर मोबाइल नेटवर्क के दर्शन महीने में कभी कभार ही हो पाते हैं। यहां वर्ष भर मौसम ठंडा ही रहता है और अक्टूबर से लेकर मार्च तक हमारे लिए यहां के मौसम के साथ सामंजस्य बैठाना काफी मुश्किल होता है दिसम्बर और फरवरी तो बहुत ही ज्यादा मुश्किल।
मौसम विभाग के पूर्वानुमान पर अत्यधिक वर्षा और बर्फबारी के कारण जिलाधिकरी महोदय छुट्टी का आदेश तो करते हैं जो नेटवर्क ना होने के कारण हम तक नहीं पहुंच पाता और सुगम के टीचर छुट्टी मनाते हैं और जहां के लिए छुट्टी हुई हम स्कूल लगाते है ये है हमारा शिक्षा विभाग,
किसी भी परिस्थिति को सहन करने की एक समय सीमा होती है पर ये तो शिक्षा विभाग है 5 साल कर दो सभी अध्यापकों को एक बार दुर्गम के स्कूलों में भेजो हमने ठेका ले रखा है दुर्गम में रहने का। मजे की बात देहरादून के टीचर्स और हमारा वेतन समान है उनको सारी सुविधाएं और हम अपने घर बात करने तक के लिए तरस जाते है ट्रांसफर की तो बात ही क्या करें अभी तो मैं ट्रांसफर के मानकों के आस पास भी नहीं हूं ये हमारी ट्रांसफर पॉलिसी कहती है ।
वैसे हमारा एक संघ भी है राजकीय शिक्षक संघ चुनाव के समय बहुत सारे लॉलीपोप ले के आते हैं चुनाव के बाद सब धृतराष्ट्र और कुंभकरण। सब सुगम में बैठे है कैसे महसूस करेंगे दुर्गम की पीड़ा ।
टीचर बनना मेरा सपना था जो मेरे अथक प्रयास के बाद पूरा हुआ अब तो ये लगता है कि कोई गुनाह तो नहीं कर दिया मैंने अपना सपना पूरा करके। मैं सिर्फ एक ही बात कहना चाहती हूं सब टीचर्स को एक बार दुर्गम में जरूर भेजो हमें भी अधिकार है अपने परिवार के साथ रहने का मैंने अपने बच्चों का बचपन नहीं देखा कोई लौटा सकता है क्या?”

मानवीय दृष्टिकोण से यदि देखा जाय तो अध्यापिका के सवाल कुछ महत्वपूर्ण भी हैं और कुछ चिंतनीय भी और कुछ व्यवस्था पर सवाल भी उठाते हैं कि आखिर क्या कुछ एक अध्यापक ही यह कष्ट झेलने को बने हैं? कमोवेश यह समस्या कई एनी विभागों में तैनात उन कर्मचारियों और अधिकारियों की भी है सुदूरवर्ती इलाकों में तैनात हैं और उनका राजधानी या जिला मुख्यालय में कोई ऐसा ”गॉड फादर’ नहीं जो उनकी समस्याओं को उठाये या इनकी दुर्गम क्षेत्रों से सुगम इलाकों में लाने को मदद करे

क्यों नहीं उत्तराखंड का शिक्षा विभाग और राज्य के अन्य विभाग पड़ोसी राज्य हिमाचल या उत्तरपूर्वी राज्यों की तबादला नीति का अध्ययन कर उसे अपने यहां लागू करता क्योंकि हिमाचल और उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियाँ लगभग एक जैसी ही हैं लेकिन वहां की तबादला नीति पारदर्शी है प्रत्येक अध्यापक या कर्मचारी की पता होता है उसे कितने वर्ष का सेवाकाल दुर्गम इलाकों में काटना होगा और उसके बाद वह कब सुगम में सेवा देने के लिए आएगा।

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