POLITICS

पार्टी प्रत्याशी चयन में पारदर्शी लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनानी होगी

राजनैतिक दलों द्वारा चुनाव के समय पार्टी प्रत्याशी चयन प्रक्रिया में नीर-क्षीर,विवेकी व्यवस्था को अपनाना होगा। मनमाने तरीके से प्रत्याशी थोपना लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करने वाला कदम है।

कमल किशोर डूकलान 

चुनावी राज्यों में राजनीतिक दलों द्वारा पार्टी प्रत्याशियों के नामों की घोषणा होते ही कई स्थानों से उनके विरोध की खबरें आने लगी हैं। पार्टी प्रत्याशी एवं समर्थकों दोनों के द्वारा विरोध किया जा रहा है। अनेक स्थानों पर तो टिकट के दावेदार ही विद्रोह की भूमिका में आ गए हैं। टिकट न मिलने से नाराज नेताओं के पार्टी छोड़ने के समाचार भी सामने आने लगे है।
अधिकांश मामले ऐसे भी हैं जिनमें दूसरे दल में गए नेता टिकट पाने से वंचित रह गए तो राजनैतिक दलों द्वारा दूसरे दलों से आये लोग टिकट की जुगत भिड़ा रहे हैं। कुछ नेता ऐसे भी हैं जो उम्मीदवार न बन पाने के कारण निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में उतरने की ताल ठोंक कर रहे हैं। आने वाले दिनों में उम्मीदवारी से वंचित नेता अथवा उनके समर्थक अपने-अपने दल के दफ्तरों के सामने धरना-प्रदर्शन करते और पैसे देकर टिकट बेचने का आरोप लगाते दिखें तो इसमें हैरानी नहीं होनी चाहिए।राजनीतिक दलों में पार्टी प्रत्याशियों द्वारा यह सब कोई नई बात नहीं है। अमूमन प्रत्येक चुनाव के मौके पर ऐसा ही देखने को मिलता है।
चुनाव के समय शायद ही कोई राजनीतिक दल ऐसा हो,जिसे टिकट के दावेदारों की नाराजगी से दो-चार न होना पड़ता हो। कहने को तो हर दल यह कहता है कि उसके पास प्रत्याशियों के चयन की एक तय प्रक्रिया है और वे व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही उनके नाम घोषित करते हैं,लेकिन इसमें न सच्चाई ही है और न ही प्रत्याशी चयन का मापदण्ड।
इसका पता इससे चलता है कि चुनाव के समय में प्रभावशाली नेता चार-छह दिन पहले दल विशेष की सदस्यता ग्रहण करने वाले गैर राजनीतिक लोग भी प्रत्याशी के रूप में कूद पड़ते हैं।
इनमें या तो नौकरशाह होते हैं या फिर नेताओं के सगे-संबंधी अथवा पैसे के बल पर चुनाव जीतने की क्षमता रखने वाले। यह सब इसीलिए होता है,क्योंकि राजनीतिक दलों ने प्रत्याशी चयन की कोई पारदर्शी, न्यायसंगत और लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं अपनाई है।
हालांकि इसके दुष्परिणाम चुनाव के समय ही राजनीतिक दलों को विद्रोह,भितरघात आदि के रूप में भोगते हैं, लेकिन राजनीतिक दल पार्टी प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया में कोई नीर-क्षीर,विवेकी व्यवस्था बनाने के लिए तैयार नहीं है। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि लोकतंत्र में प्रत्याशियों के चयन में लोक की कोई भूमिका ही न हो? इस भूमिका के अभाव में भी नोटा का इस्तेमाल बढ़ रहा है।
अच्छा होगा कि राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि मनमाने तरीके से प्रत्याशियों का चयन कर उन्हें जनता पर थोपना लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करने वाला कदम है।

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