VIEWS & REVIEWS
उत्तराखंड में पत्रकारिता की आड़ में चल रहे हैं कई संगठित गिरोह
पत्रकार संगठन और क्लब दलाली के अड्डे
नये और भावी पत्रकार समझ लें, अकेले रहें गिरोह के सदस्य न बनें
गुणानंद जखमोला की फेसबुक वाल से साभार
पिछले 15 दिन मे दो क्लबों की कार्यकारिणी बनी। मैं इन्हें गिरोह कहता हूं, कारण यह है कि इनमें पहले से ही तय होता है कि कौन किस पद पर किसको बिठाना है। पद हासिल करने के बाद पत्रकारों का कितना हित होता है, यह अलग बात है। लेकिन इसकी आड़ में अधिकांश पदाधिकारी अपने लिए या संस्थान के लिए दलाली करते हैं। संस्थान इन्हें क्लब या संगठन का पदाधिकारी इसलिए बनने देते हैं ताकि ये वो संस्थान के कार्यों के लिए दलाली कर सकें। मसलन किसी को खनन पट्टा दिलाना है, विश्वविद्यालय खोलना है और यहां तक कि यदि उनका कोई बड़ा अधिकारी और मालिक उत्तराखंड भ्रमण पर आ रहा है तो उसकी सरकारी गेस्ट हाउस में रहने-खाने की व्यवस्था करना है। ये क्लब और पत्रकार संगठन इन्हीं उल्टे कार्यो के लिए गठित होते हैं। सरकार भी यही चाहती है कि मीडिया जनता तक सच्चाई न पहुंचाये। इसलिए ऐसे चाटुकारों-दलालों की सरकार में बड़ी कद्र होती है।
कुछ अपवाद छोड़ दिये जाएं तो पदाधिकारी वही बन सकते हैं जो उन्नत किस्म के लाइजनर हों। चाटुुकार हों। एक उदाहरण दे रहा हूं कि 2011 की बात है। मैं नया-नया देहरादून आया था। एक संस्थान का मालिक कार्बेट घूमने आया तो उसका एक पत्रकार पांच घंटे तक सीएम खंडूड़ी से केवल यह मिन्नत करते रहा कि केवल एक कर्सी काॅल उसके मालिक को कर दें ताकि उसके नंबर बढ़ सके। बाद में वो प्रेस क्लब का अध्यक्ष बन गया। यह है पत्रकारिता। एक ने अपने ग्रुप एडिटर के रिश्तेदार को विवादित 180 खनन पट्टा हरीश रावत सरकार में दिला दिया तो आज वो संपादक बन गया है।
कोरोना काल में 32 साल के युवा पत्रकार आशुतोष ममगाईं की मौत हो गयी। पांच दिन बाद उसकी मां का भी कोरोना के कारण निधन हो गया। आशुतोष का दो साल का बेटा और विधवा पत्नी किस हाल में है, किस संगठन या क्लब ने उसके परिवार की सुध ली? कोरोना काल में मुख्यधारा के अखबारों और न्यूज चैनल ने अनगिनत पत्रकारों और फोटोग्राफरों की बलि ले ली गई। पहाड़ के कई ब्यूरो आफिस बंद हो गये। किसी ने सवाल नहीं उठाया न कोई पत्रकारों की मदद के लिए आगे आया।
एक प्रमुख अखबार ने तो नये साल पर अपने रिपोर्टरों को पांच लाख के विज्ञापन एकत्रित करने का टारगेट दे दिया। और संस्थान का अनपढ़ मैनेजर उनसे तू-तड़ाक कर रहा था। यानी इतने बुरे हालत हैं पत्रकारों के, गरीब की लुगाई की तर्ज पर कोई भी धमका दें। कोरोना काल की आड़ में कई अच्छे पत्रकारों की नौकरी इसलिए लील ली गई कि वो सरकार के खिलाफ लिख रहे थे और उनकी आंखों की किरकिरी बने थे। उनके लिए पत्रकार संगठन या क्लब क्या करते हैं? मैं मानता हूूं कि क्लब या संगठन में अंतर होता है लेकिन क्या क्लब का काम क्रिकेट प्रतियोगिता कराकर कोरोना फैलाना है। पत्रकारिता कर कोरोना पीड़ित होते तो समझ में आता। पत्रकारिता में बदलाव और अन्य विषयों पर कार्यशाला भी तो हो सकती है। क्लब का दारू का बार और किसी देशी शराब के ठेके के साथ लगे होटल में अंतर तो होना चाहिए? क्लब या संगठन इसलिए होते हैं कि उनके सदस्य सुरक्षित महसूस करें।
पत्रकारिता का पेशा बुरा नहीं है। कोरपोरेट जर्नलिज्म ने हमें बुरा बना दिया है। 90 प्रतिशत पत्रकार पूरी ईमानदारी से काम करते हैं लेकिन ये जो दस प्रतिशत पत्रकार हैं, इन्होंने बेड़ा गर्क किया है इस पेशे का। मेरा मानना है कि ईमानदारी से भी पत्रकारिता में सम्मानजनक तरीके से बहुत अच्छा कमाया जा सकता है, बशर्ते आपको काम आता हो। नये पत्रकार साथियों से अपील है कि वो किसी गिरोह का हिस्सा बनने से अकेले ही चलें। काम की कद्र है रिश्तों से कुछ समय ही दौड़ा जा सकता है। इस फील्ड में रोज कुआं खोदना होता है। इसलिए स्वयं पर ही विश्वास रखें। मेहनत करें और आगे बढ़े। मंजिल जरूर मिलेगी।