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सूबे के डीजीपी अशोक कुमार खुद भी तो नज़र आते हैं ”खाकी में इंसान”

अशोक कुमार पुलिस अधिकारी के साथ-साथ एक अच्छे लेखक

पुलिस फ़ोर्स के लिए अब तक किए बहुप्रतीक्षित निर्णय

उनकी सोच पुलिस फोर्स के आखिरी पायदान पर खड़े सिपाही तक है पहुँचती 

राजेंद्र जोशी 

देहरादून : कुछ लोग केवल वेतन पाने और फिर उससे अर्जित धन से अपने परिवार का लालन -पालन करने के लिए ही नौकरी करते हैं लेकिन कुछ लोग जो उन्हें जिम्मेदारी मिली हुई है उसपर रहते हुए नया कुछ करने की सोचते हैं, यह सब ऐसे ही नहीं होता इसके पीछे उनकी वर्षो की तपस्या और काम के प्रति लगन और जिस कार्य को वे कर रहे होते हैं उस कार्य को कैसे और बेहतर किया जा सकता है ताकि उसके परिणाम और अच्छे मिलें वह कार्य जनहितकारी सौर संवेदनशील हो इस विषय पर विचार करते हैं। हम बात कर रहे हैं सूबे के नए डीजीपी अशोक कुमार की। 1989 बैच के आइपीएस अधिकारी अशोक कुमार पुलिस अधिकारी के साथ -साथ एक अच्छे लेखक भी हैं, उनकी एक पुस्तक ”खाकी में इंसान” काफी पढ़ी गयी है, क्योंकि जैसा पुस्तक के शीर्षक से पता लगता है वह इस किताब के भीतर भी यही यानी खाकी के भीतर भी एक इंसान होता है जो कार्य के प्रति समर्पित तो होता ही है साथ ही समाज के पार्टी संवेदनशील भी होता है। 

अब सोचता हूँ कि आखिर डीजीपी अशोक कुमार को यह किताब लिखने का क्यों सूझा होगा या यहाँ विषय वस्तु उनके जेहन में क्यों आयी होगी तो उनके डीजीपी बनने के बाद यह साफ़ हो गया कि उन्होंने केवल पुलिस की नौकरी ही नहीं की बल्कि उस नौकरी को उन्होंने आत्मसात किया है, हालाँकि उनकी यह पुस्तक उनके डीजीपी बनने से काफी पहले शायद तब लिखी गयी थी जब वे सीआरपीएफ के ग्रेटर नोएडा रेंज के पुलिस महानिरीक्षक थे तब लिखी गयी है लेकिन इस पुस्तक की कथावस्तु को उन्होंने आम जनमानस के सामने यूँ नहीं परोसा। इसके पीछे उनका अनुभव और रोज़मर्रा के जीवन में पुलिस के सामने आने वाली चुनौतियों का अनुभव है। खैर बात पुस्तक की मैंने यहाँ इसलिए उद्धृत की कि पाठकों को यह न लगे कि अशोक कुमार ने यह पुस्तक यूँ ही लिख डाली। 

अब मूल विषय पर आते हैं जब से अशोक कुमार ने सूबे के डीजीपी की  कुर्सी संभाली है तभी से उनके निर्णय जहाँ पुलिस फ़ोर्स के लिए बहुप्रतीक्षित निर्णय कहे जा सकते हैं वहीँ उनके निर्णयों में जनहित और परोपकार की महक भी महसूस की जा सकती है तो वहीं पुलिस बल के लिए समर्पण के साथ -साथ अनुशासन का पाठ का भी सन्देश जाता है।  बात बहुत छोटी लेकिन यह बात उनके पुलिस के प्रति जागरूकता और संवेदनशीलता और आत्मीयता को भी प्रदर्शित करता है कि पुलिस के दरोगा से नीचे के पुलिस कर्मी अब अपने बाहों पर उत्तराखंड पुलिस के ”लोगो” का इस्तेमाल कर सकेंगे। अब आप लोग सोच रहे होंगे कि आखिर अब तक के किसी भी डीजीपी ने यह निर्णय क्यों नहीं लिया ?, मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूँ अब तक सूबे में दस डीजीपी हुए हैं और अशोक कुमार 11 वें ,लेकिन उनकी सोच पुलिस फोर्स के आखिरी पायदान पर खड़े उस सिपाही तक पहुँचती है जो दिन रात पुलिस फ़ोर्स के लिए अपनी जान लगाए हुए रहता है लेकिन उनकी कोई सुनने वाला आज तक नहीं था , डीजीपी अशोक कुमार की नज़र उस तक भी पहुंची है यह बात पुलिस महकमे के लिए गौरवान्वित करने वाली होनी चाहिए। 

वहीं उनका एक और निर्णय भी मुझे बहुत पसंद आया आज के वातावरण में आज जहां सरकारी नौकरी करने वाले लोगों को कई छुट्टियां मिलती हैं लेकिन पुलिस फ़ोर्स में काम करने वालों को कोई छुट्टी यानि साप्ताहिक अवकाश का प्रावधान नहीं था। बाकि छुट्टियाँ यदि वे चाहें तो ले सकते हैं लेकिन उच्चाधिकारियों के रहमोकरम और फ़ोर्स की उपलब्धता के आधार पर ही मिल सकती हैं , लेकिन डीजीपी अशोक कुमार ने पहले चरण में प्रदेश के पर्वतीय जिलों में उन्हें साप्ताहिक अवकाश का तोहफा दिया है ताकि पुलिसकर्मी अपने जहाँ अपने घर के कार्य निबटा सकें,वहीं अपने परिजनों को थोड़ा वक्त दे सके और कम से कम एक दिन तो पुलिस की नौकरी से बाहर निकल आम व्यक्ति की तरह जीवन जी सके।

बात तो बहुत छोटी हैं लेकिन इनके पीछे का मर्म बहुत बड़ा है। इसके पीछे आत्मसात करने की वो तपस्या है जिसका अनुभव वह व्यक्ति ही कर सकता है जिसने उस कर्म को जिया है।  जिस तरह एक तपस्वी को ज्ञान तब तक नहीं मिलता जब तक वह ज्ञान को पाने के लिए उसे आत्मसात नहीं करता। ठीक ऐसे ही डीजीपी अशोक कुमार में भी मुझे ”खाकी में इंसान” नज़र आता है जो सबकी फ़िक्र करता है। 

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