TRAVELOGUE

बीते 20 वर्षों में सूबे में स्थित किसी एक भी हेरिटेज प्रॉपर्टी का पर्यटन विभाग नहीं कर पाया दोहन

विरासत को पर्यटन से जोड़ने पर आज तक नहीं हो पाया काम 

देवभूमि मीडिया ब्यूरो 
देहरादून : उत्तराखंड सदियों से विदेशियों के आकर्षण का केंद्र रहा है, यहां के पर्यटक स्थल जहां विश्व में अपना एक अलग स्थान रखते हैं वहीं यहां प्राचीन विरासत भी बहुतायत में हैं लेकिन उत्तराखंड का पर्यटन महकमा आज तक विश्व प्रसिद्द ऐसी किसी भी विरासत का सूबे में पर्यटकों को आकर्षित करने में कोई काम कर पाया हो ऐसा अभी तक सामने नहीं आ पाया है। 
बात चाहे विश्वप्रसिद्ध पर्यटक स्थल नैनीताल की हो या मसूरी की या फिर लैंसडोन या फिर रानीखेत की पर्यटन विभाग ने यहां की विरासत को पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए क्या किया होगा यह अभी तक सामने नहीं आया है।  जबकि नैनीताल का चर्च ऑफ सेंट जॉन इन द वाइल्डरनेस हो या सेंट जोसेफ कॉलेज, नैनीताल या राजभवन दोनों ही ब्रिटिश काल की धरोहरों में शामिल हैं। लेकिन इनकी पहुँच आज तक पर्यटकों तक नहीं हो पाई है। वहीं ऐसे ही और धरोहर नैनीताल और उसके आस-पास के इलाकों में जो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हो सकती है लेकिन वहां तक पहुँचने की पर्यटन विभाग ने जहमत नहीं उठाई। इतिहासकार बताते हैं कि ब्रिटिशकाल में नैनीताल में पांच कब्रिस्तान थे। इनमें से फिलहाल दो का ही वजूद है। इनमें एक कालाढूंगी मार्ग पर है और दूसरा चीड़ के जंगलों के पास। इसे सीमिट्री नियर पाइंस भी कहा जाता है। कुछ समय पहले यहां ब्रिटेन की सूजी गिल्बर्ट अपनी नानी की कब्र ढूंढने पहुंची थी और सोशल मीडिया पर यहां पहुंचकर उन्होंने यह जानकारी साझा की थी।
मसूरी देश का पहला हिल स्टेशन था, जहां स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था की गई थी।  वेल्स बंदोबस्त के बाद सन् 1842 के नियम 10 के तहत इस क्षेत्र के नियमन के लिए एक स्थानीय समिति का गठन किया गया था। अंग्रेजों के आने से पहले मसूरी मुख्यतः चरवाहों का अड्डा बताया जाता है। यहाँ बहुतायत में उगने वाली मंसूर झाड़ी को उनके पशु चरते थे इसी “मंसूर” झाड़ी के नाम पर इस का नाम मसूरी पड़ा। 
मसूरी के इतिहास पर काम करने वाले जय प्रकाश उत्तराखंडी का कहना है कि यदि मसूरी समेत देहरादून, नैनीताल और चकराता के कब्रिस्तानों की कब्रों के बारे में एक शोध पत्र तैयार कर उसे पर्यटन से जोड़ा जाए तो यहां हर साल लाखों देशी व विदेशी पर्यटक यहाँ आ सकते हैं। लेकिन इन अनमोल कब्रों की देख रेख करने वाला कोई नहीं है और वे तेजी से क्षतिग्रस्त हो रहीं हैं। आज भी इंग्लैंड, यूरोप, अमेरिका और आस्ट्रेलिया से ऐसे सैकड़ों लोग मसूरी आते हैं जो इन कब्रों में सोये अपने पूर्वजों के बारे में जानने के लिए बेताब रहते हैं, पर इन कब्रों को देखकर खाली हाथ निराश लौट जाते हैं क्योंकि इनके बारे में कोई ख़ास जानकारी अभी उपलब्ध नहीं है।
मसूरी अंग्रेजो के जमाने का पर्यटक स्थल ही नहीं रहा बल्कि यह अंग्रेजों की रहने की सबसे उम्दा जगह भी रही है। मसूरी में कब्रिस्तान में ब्रिटिशकाल के दो कब्रिस्तान हैं. इसकी स्थापना साल 1829 के करीब बतायी जाती है।  इनमें से एक लंढौर और दूसरी कैमल्स बैंक रोड के पास है।  इसमें भारी संख्या में विदेशियों की कब्रें है मगर काफी कब्रें टूट चुकी हैं।  जो कई नामी गिरामी अंग्रेजों की कब्रें हैं जिन्हे देखने विश्वभर में फैले यहाँ दफनाए गए लोगों के रिश्तेदार गाहे -बगाहे आते रहते हैं लेकिन इन कब्रों का ठीक से रखरखाव न होने के चलते वे मायूस होते रहे हैं।  पर्यटक विभाग चाहता तो इस जगह की तरफ भी विदेशी सैलानियों को आकर्षित कर सकता था। बताया जाता है कि इन कब्रों  अंग्रेजों के खिलाफ महारानी लक्ष्मी बाई का मुकदमा लडऩे वाले आस्ट्रेलियाई जॉन लैंग जिन्हे भारत माँ के एक गोरे सपूत तक कहा जाता है,को स्थानीय लोग हर साल याद करते हैं और बाकायदा 19 दिसंबर को उनका जन्मदिन भी मनाते हैं। पेशे से वकील और पत्रकार इस अंग्रेज ने वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया था और अंग्रेज हकूमत के रानी पर लगाए गए झूठे आरोपों की ब्रिटिश अदालत में जमकर धज्जियां उड़ाई थी। इसके अलावा कई ब्रिटिश सैन्य अधिकारी व उनके परिजन शामिल हैं। हालांकि, इनमें कई कब्रें ऐसी हैं जिनके वशंजों के बारे में बहुत जानकारी नहीं है। लेकिन इन्हे जानकारी जुटाकर आगे लाने की जरुरत है। 
वहीं मसूरी के प्रसिद्ध होटले सवॉय भी अपने आपमें किसी विरासत से कम नहीं है। लगभग सवा सौ साल पुरानी यह इमारत आज मसूरी की तारीख का हिस्‍सा है। हालांकि अब इस होटल को वेलकम ग्रुप ने ले लिया है लेकिन इसका इतिहास आज भी जिन्दा है। आज का सवॉय 19वीं शताब्‍दी का मसूरी स्‍कूल था जिसका नाम बाद में बदलकर मेडॉक स्‍कूल रख दिया गया। स्‍कूल की जर्जर हो चुकी इस इमारत को 1890 में इंग्‍लैंड से आए लिंकन ने खरीदी और फिर 12 साल की मेह‍नत के बाद वर्ष 1902 में इसे लंदन के मशहूर होटल सवॉय के तर्ज पर खड़ा किया। 121 कमरों के इस होटल में भारत से सभी होटलों से सबसे बड़ा बॉल रूम, आलिशान पार्क, गार्डन, टेनिस कोर्ट, रेसकोर्स और बिलयर्ड रूम यहां तक की होटल का अपना अलग पोस्‍ट ऑफिस अंग्रेजों के लिए एक ख्‍वाब के सच होने जैसा था।
बताया जाता है कि सन् 1828 में मसूरी केलंढौर बाजार की स्थापना हुई।  सन् 1829 में यहाँ दैनिक उपभोग के लिए जरूरी सामानों की बिक्री का व्यवसाय शुरु हुआ था।  यह व्यवसाय जिस भवन में प्रारंभ हुआ था वर्तमान में यह डाकघर है।  मसूरी में पहला विद्यालय सन् 1834 में मैकिनोन द्वारा स्थापित किया गया और सन 1836 में यहाँ क्राइस्ट चर्च की स्थापना हुई।  इसकी स्थापना बंगाल इंजीनियर्स के रेनी टेलर ने करवाया था।  मसूरी में हिमालयन क्लब की स्थापना 1841 में हुई। जबकि यहां पर ही सन 1850 में भारत की पहली बीयर की फैक्ट्री भी मसूरी में ही बनी। मसूरी में पहला बैंक सन 1836 में स्थापित हुआ था।  इस बैंक का नाम था, उत्तर-पश्चिम बैंक. कुछ समय के लिए इसका उपयोग सरकारी बैंक के रूप में हुआ। यह मसूरी में रहने वाले सरकारी कर्मचारियों एवं उनके परिवार के लोगों की सुविधा के लिए पूंजी कोष के रूप में काम करता था। यह बैंक सन् 1842 में बंद भी हो गया था। इसके बाद सन् 1859 में  बैंक ‘द डैल्ही एंड लंदन बैंक’ की स्थापना हुई और सन् 1862 में ‘द बैंक ऑफ अपर इंडिया’ की स्थापना हुई।  सन् 1874 में ‘द हिमालय बैंक’ की स्थापना हुई जो कि बाद में बंद हो गया था और सन् 1891 में ‘एलायंस बैंक ऑफ शिमला’ को खोला गया था जिसे बाद में सन 1917 में इलाहाबाद बैंक में मिला दिया गया। 
ठीक इसी तरह लैंसडौन में भी अंग्रेजों का कब्रिस्तान 1887 के दौरान बना। यहां लंबे समय तक अंग्रेजी सेनाए रहीं। यहीं सेंट मैरी चर्च भी ऐतिहासिक है।  माना जाता है कि यहां अंग्रेज अधिकारियों की सबसे अधिक कब्र हैं। यहां प्रतिवर्ष देश विदेश से इनके वंशज अपने परिजनों को श्रद्धासुमन अर्पित करने आते हैं। वहीं रानीखेत में ब्रिटिश सेना ने 1869 में एक रेजीमेंट स्थापित की थी। इसके बाद ही यहां कब्रिस्तान भी बना था। बताया जाता है कि यहां ब्रिटिश व कॉमनवेल्थ राष्ट्रों के 20 से अधिक बड़े अधिकारियों की कब्रें बनी हुई हैं। जिन्हे देखने कभी कभार उनके नाते -रिश्तेदार आते रहते हैं, लेकिन जानकारी ठीक से न होने के कारण कई मायूस होकर लौट जाते हैं। 

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