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राज्य आंदोलन के 25 साल और उभरते पांच बड़े सवाल

मलाल : उत्तराखंड राज्य की जो परिकल्पना थी, अभी वह नहीं बन पाया

राज्य आंदोलनकारी का यह है कहना

सरकार की असंवेदनशीलता और उपेक्षा के चलते राज्य वासियों, शहीद परिवारों और पीड़ितों को न्याय नहीं मिला। दोषियों की मदद होती रही और वे एक एक करके प्रमोशन पाते गए। दुर्भाग्यपूर्ण है कि राज्य आंदोलन की अवधारणा के सवाल सरकारों के एजेंडे में कभी रहे नहीं।

रविंद्र जुगरान, पूर्व उपाध्यक्ष, राज्य आंदोलनकारी सम्मान परिषद 

देवभूमि मीडिया ब्यूरो 

देहरादून : रामपुर तिराहा कांड की 25वीं बरसी पर एक बार फिर राज्य के शहीदों का संघर्ष और कुर्बानी याद की जा रही है। साथ ही राज्य आंदोलन की मूल अवधारणा के उन सवालों के भी जवाब तलाशे जा रहे हैं,जो राज्य आंदोलनकारियों की निगाहों में आज नेपथ्य में चले गए हैं और राज्य में शासन करने वाली सरकारों ने भी इस मुद्दे को कभी भी महत्व नहीं दिया हाँ केवल रस्मअदायगी के लिए इस दिन को जरूर याद किया।

राज्य आंदोलनकारियों की मानें तो पर्वतीय राज्य की जिस मूल अवधारणा के लिए लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी, वो आज भी हाशिये पर है। अवधारणा से जुड़े पांच प्रमुख सवाल उन्हें राज्य गठन के 19 साल बाद भी शिद्दत से साल रहे हैं, जिनके हल वे सबसे पहले होते देखना चाहते थे।

राज्य आंदोलनकारी,प्रदीप कुकरेती कहंते हैं कि 25 साल कम नहीं होते। हमें बेहद पीड़ा है कि हमारी सरकारों ने रामपुर तिराहा कांड के दोषियों को सजा दिलाने के लिए कोई पहल नहीं की। राज्य अवधारणा के सवाल हाशिये पर हैं। जिस उत्तराखंड राज्य की परिकल्पना की गई थी, अभी वह नहीं बन पाया है। 

पांच बड़े सवाल करते हैं जो अब भी करते हैं परेशान

1. दोषियों को सजा क्यों नहीं मिली?

1994 में देर रात को रामपुर तिराह में तत्कालीन यूपी पुलिस ने राज्य आंदोलनकारियों के साथ जो जघन्य अपराध किया, उसकी सजा दोषियों को आज तक क्यों नहीं मिली? राज्य गठन के बाद सत्ता पर काबिज रहीं सरकारों से ये अपेक्षा थी कि वे दोषियों को सलाखों के पीछे भेजती, लेकिन सरकारों के लिए ये सवाल गैरजरूरी हो गया। प्रदेश सरकार की ओर से इस मसले को सीबीआई कोर्ट में नए और प्रभावी ढंग से लड़ने की कोशिश तक नहीं हुई।

2. पहाड़ की राजधानी पहाड़ में क्यों नहीं?

आंदोलनकारियों को इस सवाल का जवाब भी अब तक नहीं मिल पाया है। राज्य गठन के 19 साल पूरे होने जा रहे हैं, लेकिन स्थायी राजधानी तक तय नहीं हो पाई है। राजधानी आयोग बनाने से लेकर उसकी रिपोर्ट छुपाने और उसे मतलब से दिखाने के अलावा सरकारों की ओर से वहां विधानमंडल भवन बनाने और वहां कुछ सत्र आयोजित करने का ही काम हो पाया। लेकिन राजधानी के मसले पर गैरसैंण आज भी एक अबूझ पहेली है।

3. पलायन, पर्यटन और रोजगार की ठोस नीति क्यों नहीं?

पलायन राज्य आंदोलन की अवधारणा का सबसे प्रमुख मुद्दा रहा और आज भी प्रदेश सरकार के लिए ये सबसे गंभीर प्रश्न है। जबकि राज्य गठन के बाद इस सवाल का सबसे पहले हल तलाशे जाने की उम्मीद की जा रही थी। पर्यटन को तो राज्य की आर्थिकी की रीढ़ माना गया और सबसे अधिक रोजगार की संभावनाएं इसी क्षेत्र से पैदा होने का सपना देखा गया। लेकिन इनमें से कोई भी सपना साकार नहीं हो पाया। 

4. शिक्षा अब भी हाशिये पर क्यों?

शिक्षा भी राज्य आंदोलन की अवधारणा का मूल मसला रहा। आंदोलनकारियों का मानना था कि राज्य बनेगा तो पर्वतीय क्षेत्रों में स्कूल और कालेज खुलेंगे। वहां पर्याप्त संख्या में शिक्षक उपलब्ध होंगे, लेकिन आज सरकारें सरकारी स्कूलों में ताला लगा रही है। बुनियादी सुविधाओं के अभाव में गांव खाली हो रहे हैं। इस कारण स्कूल और कालेजों में छात्र संख्या गिर रही है। आंदोलनकारियों का सवाल है कि पहाड़ उतरकर मैदान में आ जाए, इसके लिए उन्होंने कभी भी संघर्ष नहीं किया था।

5. आज भी क्यों नहीं मिलता डाक्टर व दवा?

आंदोलनकारियों का एक बड़ा प्रश्न स्वास्थ्य सुविधाओं और सेवाओं से जुड़ा है। लेकिन राज्य आंदोलन की अवधारणा का यह प्रश्न भी नेपथ्य में चला गया। आज भी पहाड़ में डाक्टर और दवा दोनों नहीं है। आंदोलनकारियों का कहना है कि जिला अस्पताल आज रेफरल सेंटर बन गए हैं। 

जल,जंगल और जमीन पर बाहरी तत्वों का कब्जा 

राज्य आन्दोलनकारियों का कहना है कि राज्य आंदोलन के दौरान शहीदों और राज्य वासियों की सोच थी कि अपना राज्य बनेगा अपने संसाधन मजबूत होंगे पलायन पर रोक लगेगी लेकिन राज्य के अस्तित्व में आने के दिन से लेकर आज तक पहाड़ के जल , जंगल और जमीनों पर बाहरी तत्वों का कब्जा होना शुरू हो गया है जबकि मूल निवासी अपने ही प्रदेश में खुद को लूटतेदेख रहे हैं।  अब तक की कोई भी सरकार राज्य के लिए कोई हिमाचल जैसा ठोस भू-कानून नहीं सकी है, राज्य के तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों पर भी राज्य वासियों का हक़ नहीं रहा।  

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