भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम पर 28 दिसम्बर 1815 को बसा टिहरी का सफरनामा बड़ा ही अनोखा है. महाराजा सुदर्शन शाह ने ऐतिहासिक टिहरी की स्थापना की थीं। 204 साल के सफर में इसके अनेक रुप टिहरी वालों ने देखे। आज हेंवलघाटी के चिपको नायक प्रताप शिखर की कालजयी कहानी-“जीरो प्वाइन्ट पर टिहरी’ उनके होनहार बेटे अरण्य रंजन की वाल पर देखी. मन भर आया. सबकुछ चल चित्र की माफिक …..प्लीज आप भी पढ़िए प्रताप शिखर जी कहानी- “जीरो प्वाइन्ट पर टिहरी’
टिहरी के आकाश पर कौए इधर-उधर उड़ रहे हैं। उन्हें बैठने के लिये किसी पेड़ की तलाश है। पर उन्हें दूर-दूर तक एक भी पेड़ नहीं नजर आ रहा है। सभी पेड़ काटे जा चुके हैं। रानी बाग, मोती बाग और सिमलासू में आमों के सभी पेड़ अपने खुशबू और मिठास को साथ लेकर जमीन में लोट रहे हैं। घण्टाघर की पहाड़ी पर उगे हुए हरे-भरे पेड़ विलीन हो चुके हैं।टिहरी के आकाश पर कौए इधर-उधर उड़ रहे हैं। उन्हें बैठने के लिये किसी पेड़ की तलाश है। पर उन्हें दूर-दूर तक एक भी पेड़ नहीं नजर आ रहा है। सभी पेड़ काटे जा चुके हैं। रानी बाग, मोती बाग और सिमलासू में आमों के सभी पेड़ अपने खुशबू और मिठास को साथ लेकर जमीन में लोट रहे हैं। घण्टाघर की पहाड़ी पर उगे हुए हरे-भरे पेड़ विलीन हो चुके हैं। बाजार में जहाँ-तहाँ खड़े विभिन्न किस्म के पेड़ों को जमीन पर गिराया जा चुका है। भैरव चौक में भट्ट की किताबों की दुकान के आगे खड़ा पीपल का पुराना पेड़ भी परिदृश्य से गायब हो गया है।
टिहरी से सैकड़ों किलोमीटर दूर इलाहाबाद में अपने कमरे में बैठा है डॉक्टर माणिकनाथ। उसकी यादों में भैरवचौक का वह पीपल का पेड़ सामने आकर खड़ा हो जाता है। पीपल के उस पेड़ के नीचे खड़ी मेघा को माणिकनाथ अपनी इन्तजार में सड़क पर दूर तक नजर गड़ाए देख रहा है। इसी पेड़ के नीचे उसकी मेघा से पहली मुलाकात हुई थी। उसके बाद तो वे दोनों कई बार मिले। उन दोनों की मुलाकातों के साक्षी रहे हैं मसीही पुस्तकालय, सुमन पुस्तकालय और भट्ट की किताबों की दुकान। उन दोनों ने एक होना चाहा था, पर शास्त्री जी की बेटी मेघा और दलित युवक माणिकनाथ के एक होने में सबसे बड़ी बाधा के रूप में जातिवाद आकर खड़ा हो गया था।
‘जब धर्म बदला जा सकता है तो जाति को भी तो बदला जा सकता है। माणिकनाथ ने कहा था, मैं भी अपनी जाति को बदलकर ब्राह्मण बन जाऊँगा।’ मेघा ने कहा था- हाँ, एक उपाय है तुम अगर मेहनत करके आई.ए.एस. या एम.बी.बी.एस. डॉक्टर बन जाओ तो तुम्हारी जाति अपने आप बदल जाएगी। तब तुम एक नयी जाति वाले हो जाओगे। तुम्हारी नयी जाति होगी अफसर की या उच्च वर्ग की। तुम अछूत नहीं रहोगे। अब जातियाँ सम्पन्न और विपन्न वर्ग के तहत बँट रही हैं।
ये शब्द उसके लिये प्रेरणा बन गए। इन शब्दों की उष्मा ने ही उसे आज एम.बी.बी.एस. डॉक्टर के रूप में बदल दिया है। यह एम.बी.बी.एस. की उपाधि उसके लिये जाति बदलने का प्रमाण-पत्र बन गयी है। अब वह जल्दी ही अपने नीड़ का निर्माण करेगा। टिहरी में मेघा उसका इन्तजार कर रही है। टिहरी बाँध के कार्य को बाँध-निर्माण निगम ने पूर्ण कर दिया है। अब टिहरी शहर को डुबाने की तैयारियाँ चल रही है। कुछ दिनों के बाद टिहरी बाँध की विशाल जलराशि में पूरा शहर डूब जाएगा, पर लोग टिहरी को छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। लोग टिहरी से इस तरह चिपके पड़े हैं, जैसे दुधमुहाँ बच्चा अपनी माँ की छाती से चिपका हुआ हो।
संजू की नानी मुँह-अंधरे उठ जाती है और संगम पर जाकर स्नान करके लौट आती है। कलश के गंगाजल को वह सत्येश्वर महादेव और राधाकृष्ण के मन्दिर में चढ़ाती है। भगवान को पुष्प अर्पण कर वह घर लौटती है। टिहरी के अधिकांश लोग शहर की गली-गली में मौजूद मन्दिरों में सुबह-सवेरे जाकर भगवान का दर्शन कर आते हैं। मेघा के पिता शास्त्री जी माथे पर तिलक-चन्दन लगा और कंठी-माला धारण कर मन्त्रों को उच्चारित करते हुए अपने दिन का प्रारम्भ करते हैं। धवल-वस्त्र विभूषित शास्त्री जी के घर का रास्ता मस्जिद के सामने से जाता है। मस्जिद के सामने से गुजरते हुए उनका सिर स्वयं ही खुदा की इबादत में झुक जाता है। मस्जिद के अन्दर बैठे ईशा बेग साहब की नजर जब शास्त्री जी पर पड़ती है तो वे उन्हें राम-राम कहना नहीं भूलते हैं।
उधर श्रीचन्द की चौरी के निकट के गुरुद्वारे से गुरु ग्रन्थ साहब की पवित्र वाणी का उद्घोष लाउडस्पीकर के जरिए होता है और टिहरी के लोग उसको चाव के साथ सुनते हैं। चनाखेत में इस समय क्रिकेट टूर्नामेन्ट चल रहा है। बहुत सारे लोग वहाँ मौजूद हैं। राजमाता कमलेन्दुमती शाह के द्वारा स्थापित नरेन्द्र महिला विद्यालय में सांस्कृतिक कार्यक्रम, वाद-विवाद और भाषण-प्रतियोगिता आयोजित की जा रही हैं। एक सौ दस फीट ऊँचा घण्टाघर टन-टन के निनाद से लोगों को समय का भान करवा रहा है। प्रताप इण्टर कॉलेज, नरेन्द्र महिला विद्यालय और महारानी नेपालिया गर्ल्स इण्टर कॉलेज पूर्व राजा-रानियों की याद दिला रहे हैं। काले कोटों में सजे-धजे वकील, जिला जज, मुंसिफ, सी.जे.सम., एस.डी.एम. और तहसीलदार एक ही परिसर में बने कोर्ट में आ-जा रहे हैं। शाम के वक्त टिहरी का बाजार चहल-पहल से भर उठता है। मेघा और माणिकनाथ की कई मुलाकातें इसी टिहरी बाजार में हुई हैं।
राजवंश के अन्तिम स्तम्भ कैप्टन शूरवीर सिंह ने अपने आवास पुराना दरबार का एक हिस्सा बेच दिया है। उन्हें किताबें खरीदनी है। अपने लिये कपड़े सिलवाने हैं। चूड़ीदार पैजामा, अचकन और सिर पर पगड़ी बाँध कर जब कैप्टन साहब बाजार में निकलते हैं तो भीड़ अपने आप छँट जाती है। उनके पीछे-पीछे उनकी किताबें, चश्मा और थर्मस में चाय लेकर चलता है उनका सेवक गुलाब सिंह। गुलाब सिंह कैप्टन साहब का सेवक है, मित्र है, बॉडीगार्ड है, रसोइया है, सेक्रेट्री है, चौकीदार है और अर्दली है। उसका और कैप्टन साहब का चोली-दामन का साथ है। कैप्टन साहब जब अपने लिये चार जोड़ी कपड़े सिलवाते हैं तो गुलाब सिंह के लिये भी साथ-साथ कपड़े सिलवाए जाते हैं। कैप्टन साहब का अधिकतर समय अपने ग्रन्थागार में गुजरता है। ग्रन्थागार ही उनका मन्दिर है, वही उनका गुरुद्वारा है और वही उनकी मस्जिद है।
कभी-कभी कैप्टन साहब के कदम अपने गुरुभाई डॉक्टर महावीर प्रसाद गैरोला के घर की तरफ मुड़ जाते हैं। दोनों गुरु भाई घण्टों गुफ्तगू करते हैं। डॉक्टर गैरोला ने आध्यात्मिक साम्यवाद के प्रवर्तक के रूप में पिछले दिनों ख्याति प्राप्त की है पर कैप्टन साहब उनके इस सिद्धान्त के कायल नहीं हो पाए हैं। लेकिन मरते दम तक टिहरी को न छोड़ने के लिये दोनों मित्र एकमत हैं। डॉक्टर गैरोला वास्तव में एक दार्शनिक हैं। कैप्टन साहब के विचारों में वह टिहरी के प्लेटो हैं, पर टिहरी के लोग उन्हें सनकी समझते हैं। उन्होंने टिहरी बाँध का समर्थन किया है। उनका मानना है कि टिहरी बाँध से देश का विकास होगा। वे कहते हैं कि एक शहर की बलि देकर अगर देश का विकास सम्भव है, तो ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है।
टिहरी शहर से सटा हुआ है अठूर का ग्रामीण क्षेत्र। यह पूरा क्षेत्र भी टिहरी के साथ-साथ जल-समाधि लेने वाला है। शादी-ब्याह और जीवन-मरण के अवसर पर अठूर के आठों गाँवों के लोग एकजुट हो जाते हैं। उन्हें विस्थापित करके उत्तराखण्ड के तराई क्षेत्र में जहाँ-तहाँ बसाया जा रहा है। एक साथ जीने मरने वाले लोग तराई में जाकर एक-दूसरे से अनजान और बेगाने हो गए हैं। आचार्य असवाल अठूर की धरती से उखड़कर देहरादून में जाकर बस गए हैं। उन्होंने अपनी वसीयत में लिख दिया है- ‘टिहरी न नया है न पुराना। टिहरी के साथ नया और पुराना का विश्लेषण लोगों ने अपनी सुविधा के लिये जोड़ लिया है। मैं उस टिहरी की बात कर रहा हूँ, जहाँ भागीरथी और भिलंगना का संगम होता है। जहाँ शेष तीर्थ और धनुष तीर्थ स्थित हैं। जहाँ गणेश जी की प्राचीन रक्तवर्ण शिला है। मेरी मृत्यु पर उस टिहरी में भागीरथी और भिलंगना के संगम पर मेरी चिता जलाई जाए।’ डॉक्टर माणिकनाथ इलाहाबाद से टिहरी के लिये रवाना हो चुके हैं। अतीत की स्मृतियों और भविष्य की कल्पनाओं में खोए हुए वे अपनी बर्थ पर आँखें मूँदकर चुपचाप बैठे हैं। स्मृति के पर्दे पर उन्हें भैरव चौक के पीपल के पेड़ के पीचे मेघा खड़ी दिख रही है। वह माणिकनाथ को आता हुआ देखकर खिलखिलाती हुई मस्जिदवाली गली की तरफ चली जाती है।
रेलवे स्टेशन के बुक-स्टॉल पर डॉक्टर माणिकनाथ अखबार खरीदते हैं। मुख्य पृष्ठ पर छपी खबर पर उनकी नजर पड़ती है- ‘अफगानिस्तान के काबुल शहर पर बम-वर्षाः टिहरी शहर पर धन वर्षा।’ काबुल शहर पर बम वर्षा जारी है। टिहरी शहर पर धन वर्षा जारी है। काबुल में लोग छिप रहे हैं। टिहरी में लोग कब्रों से उठकर बाहर आ रहे हैं। काबुल में लोग शहर छोड़कर भाग रहे हैं। टिहरी में शहर छोड़कर गए हुए लोग वापस लौट रहे हैं। काबुल में बम वर्षा से उजड़े हुए मकानों को फिर से बनवाया जा रहा है। टिहरी में बने-बनाए मकानों को तोड़ जा रहा है। काबुल में लोग फिर से बसाए जा रहे हैं। टिहरी में लोगों को हटाया जा रहा है। बम-वर्षा के थमने के बाद काबुल में जीवन लौट आया है, पर टिहरी में धन-वर्षा के बाद मरघट का सन्नाटा छा गया है। काबुल में संगीत की स्वर लहरियाँ गूँज रही हैं, पर टिहरी में सियार और उल्लू राग गा रहे हैं। काबुल में संस्कृति जड़ पकड़ रही है, पर टिहरी में संस्कृति मिट रही है। काबुल में बिछड़े हुए भाई मिल रहे हैं, पर टिहरी में भाई-भाई बिछड़ रहे हैं। वहाँ काबुल शहर का अस्तित्व प्रकट हो रहा है, यहाँ टिहरी का अस्तित्व मिट रहा है। बम-वर्षा खतरनाक होती है, पर धन-वर्षा उससे भी अधिक खतरनाक होती है।
टिहरी के गोकुल सिंह पर धन-वर्षा का असर नहीं पड़ा है। गोकुल सिंह के हितैषी उसे पकड़कर विध्वंस और पुनर्वास अधिकारी के कार्यालय में ले गए हैं। पर गोकुल सिंह अलग किस्म की मिट्टी से बना हुआ है। वह मुआवजा लेने से इन्कार कर रहा है। वह टिहरी को भी नहीं छोड़ना चाहता। अपने हितैषियों के आग्रह पर और पुनर्वास अधिकारी के दबाव में आकर वह दतावेजों पर अपने दस्तखत कर देेता है। उसे पता है कि दस्तखत करने का मतलब है अपने घर-आँगन, बन्धु-बान्धवों से बिछड़ जाना और अपनी प्यारी भागीरथी के दर्शन से वंचित हो जाना।
अपने नाम के चेक को हाथ में लेते ही गोकुल का रक्तसंचार तेज हो गया और त्योरियाँ चढ़ गई। वह क्षमता से अधिक दबाव सहन नहीं कर पाया। उसने एक ठहाका मारा और चेक को टुकड़े-टुकड़े करके पुनर्वास अधिकारी की मेज पर पटक दिया।
गोकुल की दिमागी हालत ठिकाने पर नहीं है। वह ठहाके मारते हुए कहता है- ‘तुम लोगों ने इस कागज के टुकड़े के बदले में मेरा सब कुछ छीन लिया है। मुझे मेरे घर से निकाल बाहर कर दिया है। अब मेरा कोई घर-बार नहीं। लो, तुम्हारी सरकार का दिया हुआ कुर्ता। यह पैजामा भी ले लो। लो, यह रही तुम्हारी सरकार की दी हुई बनियान। इसे भी ले लो।’ गोकुल पुनर्वास दफ्तर से बाहर चला आता है और अपने शरीर के कपड़े उतार कर फेंक जाता है। गेट के बाहर आकर वह अपना जांघिया भी उतार कर हवा में उछाल देता है। वह बड़बड़ा रहा है- ‘मैं तुम्हारे बन्धनों से मुक्त हो गया हूँ। मैं दुनियादारी के सभी झंझटों से मुक्त हो गया हूँ। अब टिहरी मेरा घर है। टिहरी का आकाश मेरी छत है। आहा! कितना आनन्द आ रहा है?’ आनन्द के सरोवर में डूबकर गोकुल नाचते-नाचते गाने लगता है। उसके कण्ठ से निकले स्वर हवा में फैल जाते हैं: टेमरू कू सोटा बाबा! ध्यान धरी रे! खरफुकू जोगी बाबा! ध्यान धरी रे!
नंग-धड़ंग गोकुल टेमरू का डण्डा हाथ में लेकर पगलाया हुआ सा सरकार की खोज में इधर उधर चक्कर काट रहा है। लोग सहानुभूति प्रकट करते हुए कहते हैं- ‘बेचारा पागल हो गया है’ गोकुल सरकार को टेमरू के डण्डे से मारना चाहता है। वह सरकार की तलाश कर रहा है, पर सरकार उसे कहीं मिल नहीं रही है। मन्त्री जी कहते हैं- ‘मैं सरकार नहीं हूँ। मैं जनता का सेवक हूँ।’ जिलाधिकारी कहते हैं- ‘मैं सरकार नहीं हूँ। मैं जनता का नौकर हूँ।’ लोग देख रहे हैं कि गोकुल खुद से बात करते हुए बार-बार कह रहा है: ‘तो फिर सरकार कौन है?’
लोकतन्त्र में सरकार कोई एक व्यक्ति नहीं होता। लोकतन्त्र में सरकार सर्वत्र विद्यमान और सर्वशक्तिमान होते हुए भी अदृश्य होती है। राजतन्त्र में राजा ही सरकार होता है, पर लोकतन्त्र में राजा की तरह सरकार का कोई आकार नहीं होता। लोकतन्त्र में सरकार निराकार होती है। हमारे प्रभु भी निराकार हैं। सरकार और प्रभु दोनों ही राजा को रंक और रंक को राजा बना सकते हैं। गाकुल को नहीं पता कि वह जनता की एक इकाई है। इसलिये वह स्वयं सरकार है। लोकतन्त्र में जनता की सरकार होती है। यदि गोकुल सरकार को डण्डे से पीटना चाहता है तो उसे खुद को ही पीटना पड़ेगा।
गोकुल कभी भैरव मन्दिर आगे, कभी मस्जिद के आगे और कभी गुरुद्वारे के आगे शीर्षासन की मुद्रा में दिखाई पड़ जाता है। वह किसी से कुछ नहीं कहता। बस, हर घड़ी टिहरी को बचाने की कामना करता रहता है। एक गाय उसके इर्द-गिर्द मँडराती रहती है। पागल होने से पहले गोकुलसिंह अपनी इस गाय की बड़ी सेवा करता था, पर अब वह उसकी तरफ देखता भी नहीं है। मौत की सजा पाए व्यक्ति को फाँसी पर चढ़ाने से पूर्व उसकी अन्तिम इच्छा के बारे में पूछा जाता है। इसी तरह टिहरी को डुबाने से पहले उसकी अन्तिम इच्छा के बारे में टिहरीवासियों ने पूछा- डूबने से पहले तेरी अन्तिम इच्छा क्या है? टिहरी ने कहा- मेरे बच्चों! इस सदी की पहली दीवाली तुम सब एक साथ मिलकर मनाओ।
टिहरीवासियों ने टिहरी की अन्तिम इच्छा का पालन किया। नगर की सभी महिलाएँ अपने-अपने सिल-बट्टे लेकर सत्येश्वर महादेव के मन्दिर में एकत्र हुईं। सबने एक-साथ मिलकर उड़द की दाल पीसी। मन्दिर में ही सबने मिलजुलकर पकौड़ों को तला। पकौड़े खाने मुल्लाजी आए, सरदार जी आए, पण्डित जी और पादरी जी भी आए। सब लोग आपस में गले मिले। सबकी आँखों में आँसू थे। यह टिहरी में उनकी अन्तिम दीवाली थी। फिर एक दिन शहर में दर्जनों बुलडोजर दाखिल हुए। उन पर सवार भारी बूटों वाले भीमकाय लोग शहर को एक-तरफ से रौंदने लगें। दुकान, मकान स्कूल-कॉलेज, अस्पताल, न्यायालय और घण्टाघर सहित सभी कुछ उन्होंने जमींदोज कर दिया। शहर की टेलीफोन व्यवस्था को ठप्प कर दिया गया। विद्युत-आपूर्ति बन्द कर दी गई। पेयजल व्यवस्था दम तोड़ने लगी। डाक-तार और परिवहन व्यवस्था भी समाप्त कर दी गई। टिहरी का एकमात्र पुल भी ध्वस्त कर दिया गया। पुराने दरबार के अपने ग्रन्थागार में कैप्टन शूरवीर सिंह दुर्लभ ग्रन्थों को निकालकर मेज पर सजा रहे हैं। बुलडोजरों की आवाज उनके सीने पर सैकड़ों हथोड़ों जैसा आघात कर रही हैं। अब वे कुर्सी पर मूक-बधिर की तरह खामोश बैठ गये हैं। उनके मुख से जोर से आवाज निकलती है- हाय! मेरी किताबों का क्या होगा? मेरी किताबें, हाय, मेरी किताबें। यह कहते हुए उनकी आँखें पथरा जाती हैं और वाणी शान्त हो जाती है। आवाज को सुनकर उनका सेवक गुलाब सिंह चाय की केतली लेकर आता है।
‘हजूर साहब! ठाकुर साहब!’ कहता हुआ वह उन्हें झिंझोड़ता है। कैप्टन साहब के चरणों में गिरकर उसकी वाणी भी मूक हो जाती है। दार्शनिक गैरोला ने भैरव मन्दिर में डेरा जमा लिया है। मन्दिर में वे नौ मन आटे का रोट काटना चाहते हैं। उनका इरादा मन्दिर में पूजा करते हुए जल समाधि लेने का है। अपने कोट पर उन्होंने राम का फोटो टांग लिया है। आध्यात्मिक साम्यवाद की सफेद किताब उन्होंने अपने सीने से चिपका ली है। उनके अनुयायी उन्हें छोड़कर चले गये हैं। पिछले सालों की तरह इस वर्ष भी उन्होंने टिहरी का वर्षफल बनवाया है। वर्षफल पर लिखा है: मृत्यु योग। अपने वर्षफल पर भी उन्होंने शायद मृत्युयोग लिख दिया है।
डॉक्टर गैरोला ने अपनी वसीयत भी लिख छोड़ी है- मैं टिहरी हूँ। राजमहल मेरा सिर है और सेमल का तप्पड़ मेरे पैर। भागीरथी और भिलंगना मेरे पैर धोती हैं, सिमलासू और दोबाटा मेरे दाँए-बाँए हाथ हैं। घण्टाघर और चनाखेत मेरा हृदय है। सुमन चौक मेरी नाभि है। मैं डूबकर देशवासियों का कल्याण करूँगा। मैं तरणताल में जल-क्रीड़ा का जल बनूँगा। मैं झील की नहरों में, पवन के झोंकों में, चन्द्रमा के प्रकाश में विलीन होकर अपने देशवासियों का कल्याण करूँगा। संजू की नानी मरते दम तक अपने पूर्वजों के मकान को छोड़ना नहीं चाहती। वह अपने खण्डहर हुए मकान में ही रहने के लिये जगह बना रही है। ध्वस्तीकरण टीम के मुखिया दरोगा विकरालसिंह विध्वंस और पुनर्वास अधिकारी को खबर देते हैं- ‘सर! सारे शहर को ध्वस्त कर दिया गया है। पुराना दरबार के एक कोने में दो बूढ़े मरे पड़े हैं। उधर भैरव चौक में एक बूढ़ा अखण्ड पूजा कर रहा है।’
विध्वंस और पुनर्वास अधिकारी ने निर्देश दिया- ‘उन दोनों बूढ़ों को सम्मान के साथ संगम पर अन्त्येष्टि कर दी जाए। दूसरे बूढ़े को पूजा करने दी जाए। वह बूढ़ा तो बाँध-निर्माण का प्रबल समर्थक रहा है। बाँध का विरोध करने वाले तो धन की वर्षा में भीगते हुए टिहरी से जा चुके हैं।’ उसी समय सिपाही विनाशानन्द और धनगर्जनदास एक कृषकाय व्यक्ति को उठाकर वहाँ आए और कहने लगे- ‘सर! यह आदमी ठक्कर बापा छात्रावास के खण्डहर में बेहोश पड़ा था। इसका कहना है कि मैं कहाँ जाऊँ? नई टिहरी में तो ठक्कर बापा छात्रावास बना ही नहीं है। मुझे यहीं इन खण्डहरों में जीवन बिताने दो।’ दरोगा विकराल सिंह ने कहा- ‘अरे! यह तो भवानी भाई है। बड़ा मन्दबुद्धि है यह भवानी भाई! जब टिहरी में धन-वर्षा हो रही थी, तब यह उसमें नहीं भीगा। सिपाहियों! इसे मेरे घर ले जाओ।’
जीरो प्वाइन्ट पर कुछ लोग एक अर्थी को लेकर आए हैं। यह अर्थी आचार्य चिरंजीलाल असवाल की है। आचार्य ने अपने देहरादून निवास पर जब सुना कि टिहरी को डुबाने की पूरी तैयारियाँ की जा चुकी हैं तो इस समाचार को सुनकर नब्बे साल के आचार्य की हृदयगति रुक गई। उनकी वसीयत के अनुसार उनके पुत्र भागीरथी-भिलंगना के संगम पर उनका दाह-संस्कार करेंगे, पर शवयात्रा को जीरो प्वाइन्ट से आगे बढ़ने से रोक दिया गया है। दिवंगत आचार्य के पुत्र दरोगा विकराल सिंह को आचार्य की वसीयत दिखाते हैं और कहते हैं ‘दरोगा साहब! हम आचार्य असवाल की वसीयत के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार टिहरी में भागीरथी और भिलंगना के संगम पर ही करेंगे। कृपया हमें टिहरी जाने दें।’ उधर दरोगा साहब कह रहे हैं- ‘श्रीमान मैं मजबूर हूँ। मैं सरकारी हुक्म से बँधा हूँ और किसी को टिहरी में नहीं जाने दे सकता।’ दरोगा शवयात्रियों को सरकारी हुक्म का कागज दिखा रहा है और उधर आचार्य असवाल की मृत्यु का समाचार सुनकर अठूर के सभी आठों गाँवों के लोग शवयात्रा में शामिल होने के लिये तराई के विभिन्न स्थानों से टिहरी में चले आए हैं। जीरो प्वाइन्ट पर भीड़ बढ़ती जा रही है। भीड़ में संजू भी शामिल है। वह अपनी नानी को लेने के लिये टिहरी जाना चाहता है पर उसे भी टिहरी में घुसने नहीं दिया जा रहा है। संजू सिपाही धनगर्जनदास के साथ बहस में उलझा हुआ है- ‘मुझे टिहरी जाने दो। मैं अपनी नानी को लेने के लिये आया हूँ। मेरी माँ ने मुझे यहाँ सिर्फ इसलिये भेजा है। टिहरी में मेरी नानी न जाने कहाँ रह रही होगी? मैं नानी को लेकर ही यहाँ से वापस जाऊँगा। मेरी नानी को अगर कुछ हो गया तो तुम पुलिस वालों को शाप लगेगा।’ पुलिस वाले उसकी नहीं सुन रहे हैं। संजू लगातार कहता जा रहा है- अरे! तुम लोग इस जगह को जीरो प्वाइन्ट क्यों कह रहे हो? यह तो टिहरी की परिधि से बाहर बना हुआ है। टिहरी का असली जीरो प्वाइन्ट तो भागीरथी-भिलंगना का संगम है। संगम को केन्द्र-बिन्दु बनाकर वृत की परिधि सिमलासू और दोबाटा तक जाती है। आपका जीरो प्वाइन्ट तो टिहरी को वृत्त से बाहर कर देता है। इसलिये आपका यह जीरो प्वाइन्ट नकली है, झूठा है।
डॉक्टर माणिकनाथ एम.बी.बी.एस. भी जीरो प्वाइन्ट पर पहुँच गया है। उसे भी वहीं रोक दिया गया है। शास्त्री जी और मेघा के बारे में वह किस्से पूछे? उसे बता दिया गया है कि टिहरी शहर वीरान हो चुका है। लोग अपने-अपने हिस्से का धन बटोर कर, टिहरी से अन्यत्र चले गए हैं। माणिकनाथ मेघा के बिना स्वयं को अधूरा महसूस कर रहा है। उसे अपनी पूरी दुनिया डूबती नजर आ रही है। उसके सामने तो उसकी पल्लव ललित मृदुगंध पुष्पित टिहरी की छवि है। पीपल का पेड़ है और मेघा का खिल-खिल हँसता हुआ चेहरा है। अब जीरो प्वाइन्ट पर ठक्कर बापा छात्रावस के पूर्व-छात्र भी पहुँच चुके हैं इन पूर्व छात्रों में कोई डॉक्टर है, कोई इंजीनियर है, कोई आई.ए.एस. और कोई पी.सी.एस. है। कुछ राजनीतिक दलों के नेता हैं, कुछ सामाजिक कार्यकर्ता हैं, कुछ लेखक और पत्रकार हैं। इन्हें ठक्कर बापा छात्रावास के व्यवस्थापक भवानी भाई ने बुलाया था, पर इन्हें टिहरी पहुँचने में देर हो गई है। ये सभी जीरो प्वाइन्ट पर ही रोक लिये गए हैं।
सिपाही विनाशनानन्द समाचार लेकर आए- सर! एक आदमी मस्जिद के आगे सिर के बल उल्टा खड़ा है। वह कह रहा है- टिहरी नहीं डूबेगी उसके नजदीक एक सफेद रंग की गाय खड़ी है। एक खण्डहर में एक बुढ़िया हमें आता हुआ देखकर छिप गई। है। उसी खण्डहर में एक गौरेया का जोड़ भी घोंसला बनाकर रहता है। बुढ़िया के साथ-साथ गौरेया का जोड़ा भी छिप गया है। दरोगा ने निर्देश दिया- ‘गाय को मेरे घर में ले जाकर खूँटे पर बाँध दो। घोंसला बनाने का हुक्म आदमी या चिड़िया, किसी को नहीं है, इसलिये गौरेया को घोंसले सहित मेरे मकान शहतीर पर रख दो। बुढ़िया को इस लड़के के सुपुर्द कर दो। वह बढ़िया इस लड़के की नानी है शायद। जो आदमी सिर के बल उल्टा खड़ा है, उसे उसी हालत में रहने दो। वह आदमी शायद गोकुल सिंह है और पागल हो गया है। मैं स्वयं जाकर उससे बात कर लूँगा।’
जीरो प्वाइन्ट पर लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। इस भीड़ में आचार्य असवाल की शवयात्रा में शामिल अठूर के लोग हैं, ठक्कर बापा छात्रावास के पूर्व-छात्र हैं, संजू और माणिकनाथ जैसे इक्के-दुक्के लोग हैं। इस भीड़ में लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है। सुरंगों के गेट गिराने में विलम्ब हो रहा है। सुरंग के मुहाने पर एक श्वेत वस्त्रधारी सन्त गंगाकुटी बनाकर रहते हैं। वे वहाँ से हटने का नाम नहीं ले रहे हैं। सन्त आँखें मूँदकर धीमी आवाज में कह रहे हैं- ‘टिहरी से कोई नहीं हटेगा। बाँध नहीं बनेगा।’ सन्त की बगल में ईसाबेग साहब भी सन्त की तरह सिर पर सफेद साफा बाँध कर श्वेत वस्त्रों से सुसज्जित होकर बैठे हैं वे भी धीमी आवाज में बुदबुदा रहे हैं ‘या खुदा! इन्हें अक्ल बख्श!’
भागीरथी के उस पार गंगा कुटी के सामने दिगम्बर गोकुल सिंह आनन्द विह्वल होकर नाच रहा है और भैरव का जागर गा रहा है: ह्वैलू बाबा! नगरी रख्वालू! ध्यान धरी रहे! ह्वैलू बाबा। बस्ती जग्वालू! ध्यान धरी रे! केन्द्र और राज्य सरकार के उच्च अधिकारी एवं नेतागण टिड्डी दल की तरह गंगाकुटी के सन्त और ईसाबेग साहब पर टूट पड़े हैं। कोई उनकी बाँहें खींच रहा है तो कोई टाँगें खींच रहा है। किसी ने दाढ़ी और किसी ने बाल पकड़ रखे हैं। खींचो की आवाज के साथ सब लोग एक साथ जोर लगा रहे हैं, पर उन दोनों को हिला नहीं पा रहे हैं। खींचने वाले पसीना-पसीना हो गए हैं।
गंगा कुटी में अब स्वामीरामतीर्थ, महाराजा सुदर्शनशाह, महाराजा कीर्तिशाह, मियाँ हुसैनखां और सरदार प्रेम सिंह की आत्माएँ प्रकट हो चुकी हैं। टिहरी बाँध विरोधी संघर्ष समिति के अध्यक्ष एडवोकेट वीरेन्द्र सकलानी की आत्मा भी संघर्ष समिति की पत्रावली के साथ वहाँ मौजूद हैं। अब इनके साथ कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार और आचार्य चिरंजीलाल असवाल की आत्माएँ भी मिल गई हैं। गंगा कुटी के सन्त और ईसाबेग साहब को केन्द्र और राज्य सरकारें पूरी ताकत से ऊपर खींच रही हैं। टिहरी की धरती और पवित्र आत्माएँ उन्हें नीचे की तरफ खींच रही हैं…..