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राज्य स्थापना पर विशेष : विकास के आयाम छूता उत्तराखंड

उत्तराखंड भारत की समृद्ध सांस्कृतिक,ऐतिहासिक विरासत होने के कारण विकास सभी आयामों में यहां की मातृशक्ति का रहा विशेष योगदान

20 वर्षों में राज्य ने विकास के कई सूचकांकों पर देश के शीर्षस्थ राज्यों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई 

कमल किशोर डुकलान
पृथक पर्वतीय क्षेत्र उत्तराखण्ड पूर्व में आगरा और अवध संयुक्त प्रांत का एक हिस्सा था।रियासतों का गणराज्य में विलय के पश्चात जनवरी 1950 को संयुक्त प्रांत का नाम बदलकर उत्तर प्रदेश किया गया। 9 नवंबर सन् 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर भारत का 27 वां राज्य उत्तराखंड के रुप में उभरा।
उत्तराखंड का उल्लेख हिंदू धर्मग्रंथों में केदारखंड,मानखंड और हिमावत के रूप में मिलता है। यह क्षेत्र पवित्र धार्मिक स्थानों और मंदिरों के कारण देव भूमि कहलाई। इस राज्य की चोटियों और घाटियों में देवी-देवताओं के निवास होने के कारण देश तीर्थ स्थलों के रूप में जाना जाता है। उत्तराखंड को इसका श्रेय हिंदुओं के कुछ पवित्र तीर्थस्थानों को जाता है। यहां गंगा और यमुना नदी का उद्गम स्थल है।मुगल साम्राज्य में कुषाण साम्राज्य, कुडिंया, कनिष्क, समुद्रगुप्त, पौरव, कत्यूर, पाला राजवंश, चंद्र और पवार वंशज तथा अंग्रेजों ने उत्तराखंड पर शासन किया।
अगर उत्तराखंड के प्रारंभिक इतिहास की ओर प्रकाश डाला जाए तो पृथक पर्वतीय उत्तराखंड को कोल द्वारा बसाया गया था।कोल वंशज द्रविड़ भौतिक संरचना वाले आदिवासी लोग थे,जो बाद में वैदिक काल से उत्तर पश्चिम से आने वाले इंडो-आर्यन खस वंश में शामिल हुए। प्राचीन समय से ही उत्तराखंड ऋषि-ऋषियों की तपस्थली होने के कारण आदिकवि महर्षि वेद व्यास ने अट्ठारह पुराण और महाभारत जैसे महाकाव्य को यहीं लिपिबद्ध किया था।क्योंकि माना जाता है कि पांडवों ने इसी क्षेत्र में डेरा डाला था।
मध्ययुगीन काल में गढ़वाल के टिहरी गढ़वाल जिले के पहले निवासी और कुमाऊं द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में कुनिंदा थे।इस क्षेत्र में पश्चिम में गढ़वाल साम्राज्य और पूर्व में कुमाऊँ साम्राज्य में कुनिंदों का वर्चस्व था। इंडो-ग्रीक सभ्यता के साथ इनका घनिष्ठ संबंध था। वे केंद्रीय हिमालयी आदिवासी थे जिन्होंने शैव धर्म के प्रारंभिक रूप का अभ्यास किया था। उन्होंने तिब्बत के साथ साल्ट में कारोबार किया। पश्चिमी गढ़वाल के देहरादून जिले के कालसी क्षेत्र में अशोक के किनारों से स्पष्ट होता है कि इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म ने कुछ अतिक्रमण किए। लेकिन गढ़वाल और कुमाऊं ब्राह्मणवादी बने रहे। चौथी शताब्दी में,कुणिन्दा वंशजों को गुप्तों के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। 7वीं से 14 वीं शताब्दी के बीच शैव कत्यूरी कामाओं में कत्यूर बैजनाथ घाटी से अलग-अलग सीमा तक फैला हुआ था। 13 वीं -14 वीं शताब्दी से, पूर्वी कुमाऊं चंद्रवंश के तहत समृद्ध हुआ। इस अवधि के दौरान सीखने और पेंटिंग के नए रूपों का विकास हुआ।
17 वीं शताब्दी में गोरखा साम्राज्य अल्मोड़ा जिले से आगे निकल गए और कुमाऊँ साम्राज्य को अपनी राजधानी बनाई। 18वीं शताब्दी में गढ़वाल साम्राज्य भी गोरखाओं के चंगुल में आ गया और नेपाल का हिस्सा बन गया। 19 वीं शताब्दी में इन क्षेत्रों पर गोरखा साम्राज्य का विस्तार हुआ जिसे आगे चलकर ब्रिटिश राजाओं ने समाप्त किया।
बर्मन-टिबेटो समूह के लोग किरातों के रूप में जाने जाते हैं।माना जाता था कि गढ़वाल के चमोली जिले के नीति-माणा घाटी तथा उत्तरकाशी जिले के डुंडा विकास खण्ड में बुआशा,भोटिया और थारू आदि लोग बर्मन-टिबेटो समूह के पूर्वज थे।
आजादी के बाद, टिहरी की रियासत को उत्तर प्रदेश में मिला दिया गया। जहां उत्तराखंड गढ़वाल और कुमाऊं डिवीजनों में विभाजित हुआ।गढ़वाल और कुमाऊँ प्रारंभ से डिविजन अलग-अलग भाषाई और सांस्कृतिक प्रभाव वाले पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी रहे हैं। भाषा और परंपराओं के बीच विभिन्न जातीय समूहों और उनके अविभाज्य भौगोलिक प्रकृति की निकटता के परिणामस्वरूप,इन दोनों क्षेत्रों के बीच एक मजबूत बंधन मौजूद रहा है। इन बंधनों ने उत्तराखंड की एक नई राजनीतिक पहचान की नींव तैयार की। 1994 में, एक अलग राज्य की मांग ने स्थानीय लोगों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक दलों के बीच एकमत स्वीकृति प्राप्त की। 1998 तक, उत्तराखंड विभिन्न राजनीतिक समूहों द्वारा सबसे अधिक नाम था। मार्च 1998 और नवंबर 2000 में भाजपा सत्ता में आई तथा यहां की विषम भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेई जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की केन्द्र सरकार ने उत्तराखंड को 27वां नया राज्य बनाया गया।
उत्तराखंड भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत रही है। इन 20 वर्षों में राज्य ने विकास के कई सूचकांकों पर राज्य ने देश के शीर्षस्थ राज्यों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। राज्य आन्दोलन से लेकर इन बीस वर्षों में अगर देखा जाए तो उत्तराखंड में विकास के लेकर सभी आयामों में यहां की मातृशक्ति का महति भूमिका रही है।
उत्तराखंड में आत्मनिर्भर भारत के तहत महिला स्वयं सहायता समूह को उत्पादन एवं विपणन की दिशा में प्रशिक्षित कर और अधिक सशक्त बनाया जा सकता है। स्थानीय फलों और अनाजों से निर्मित विभिन्न प्रकार के उत्पाद,स्थानीय हस्तशिल्प,विभिन्न रेशों से निर्मित ऊनी वस्त्र,शॉल आदि उच्च गुणवत्तायुक्त उत्पादों का निर्माण हो ही रहा है।
राज्य में शिक्षा, स्वास्थ्य,पर्यटन,साहसिक पर्यटन एवं खेल,जैविक कृषि,खाद्य प्रसंस्करण, योग ध्यान और आयुर्वेद पर आधारित उद्यमों एवं व्यवसाय को बढ़ावा देकर पर्वतीय क्षेत्रों में महिलाओं, युवाओं, किसानों की आर्थिक स्थिति में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। अगर कहां जाए तो उत्तराखंड ने बहुत कम समय में शीर्ष स्तर पर अनेकों कृर्तिमान स्थापित किये हैं।
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