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पहाड़ के इस सरकारी अध्यापक ने किया अनोखा कारनामा

नवाचारी अवॉर्ड से भास्कर जोशी को नवाज़ चुकी है  केंद्र सरकार

मोहन पहाड़ी

“दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र अल्मोड़ा के एक गांव में मामूली से प्राइमरी स्कूल को अपनी कठिन तपस्या से देश की सुर्खियों में ला चुके भास्कर जोशी उत्तराखंड की एक ऐसी प्रेरक हस्ती बन चुके हैं, जिन्हे हाल ही में केंद्र सरकार ने नवाचारी अवॉर्ड से नवाज़ा है। अरविंदो सोसायटी ने उनके नवाचारों पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की है।”

आज इस स्कूल में बच्चों के लिए कंप्यूटर, स्मार्ट क्लास, फर्नीचर, पेयजल, खेलकूद का सामान, प्रोजेक्टर आदि उपलब्ध हो गए हैं। स्कूल भवन की मरम्मत भी करा दी गई है। उन्होंने यहां के बच्चों को शाम को ट्यूशन के लिए भी गांव की ही शिक्षित युवतियों को डेढ़-डेढ़ हजार रुपए मानदेय पर नियुक्त कर रखा है। वह लगातार स्कूल में नवाचारी प्रयोग करते रहते हैं। बच्चों के लिए वह तरह-तरह के नए-नए कोर्स तैयार करते रहते हैं। उनमें प्रकृति प्रेम और कलात्मक अभिरुचियों को प्रोत्साहित करते हैं। उन्होंने बच्चों के पाठ्यक्रम को अलग-अलग श्रेणियों में सूचीबद्ध कर रखा है, मसलन, भाषा दिवस, प्रतिभा दिवस, नो बैग डे, बाल विज्ञान उद्यान दिवस, हरित कदम दिवस, नशा-मुक्ति अभियान दिवस, सामुदायिक सहभागिता दिवस आदि। बच्चों को खेल-खेल में विज्ञान का पाठ पढ़ाया जाता है। प्रतिभा के विकास के लिए उनसे कहानियां और कविताएं लिखवाई जाती हैं। अब स्कूल के बच्चे टॉफ़ी के रेपर, पॉलीथिन इकट्ठे कर गुलदस्ते बनाते हैं, पौध रोपण करते हैं, अपना किचन गार्डन सजाते हैं। वह कोशिश कर रहे हैं कि निकट भविष्य में इसी स्कूल परिसर में क्षेत्र के पढ़े-लिखे बेरोजगारों को कंप्यूटर का प्रशिक्षण भी मिले।

इस स्कूल को ऐसे सुखद हाल में पहुंचाने में जोशी को कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। शुरुआती दिनो में उनको बजेला गाँव के हर घर पर दस्तक देनी पड़ी। गांव वालों के ताने-उलाहने झेलने पड़े। कई अभिभावक तो अपनी आंचलिक भाषा-बोली में उनको गालियां देने से भी बाज नहीं आए लेकिन वह अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए उन स्थितियों से कत्तई विचलित नहीं हुए। हां, ये बात उन्हे जरूर तकलीफ़ पहुंचाती थी कि वे अभिभावक किसी शरारत वश नहीं, बल्कि आर्थिक मजबूरी में अपने बच्चों को बकरियां चराने भेज देते हैं ताकि चार पैसे की कमाई हो सके। इस तरह उनका एक लंबा वक़्त अपने स्कूल के बच्चों के माता-पिताओं को समझाने-बुझाने में बीता। उसके बाद धीरे-धीरे पशुओं को चराना छोड़छाड़ कर बच्चे नियमित रूप से स्कूल आने लगे।

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