POLITICS
राजनीतिक हिंसा की पराकाष्ठा, निशाने पर भाजपा
पश्चिम बंगाल में पराकाष्ठा राजनीतिक हिंसा को राजनैतिक, सांस्कृतिक संगठनों एवं मीडिया द्वारा दिया जाने वाला मौन समर्थन वैचारिक असहिष्णुता का परिचायक
कमल किशोर डुकलान
पिछले कुछ वर्षों से पश्चिम बंगाल में भाजपा कार्यकर्ताओं पर हमला और राज्य के दौरे पर गए राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री जे.पी.नड्डा के काफिले पर हमला एक प्रकार से राजनीतिक हिंसा और असहिष्णुता की पराकाष्ठा ही है। शर्मनाक यह है कि यह हमला करने वाले राज्य में शांति एवं कानून व्यवस्था का जिम्मा अपने ऊपर लेने वाली पुलिस की उपस्थिति में हुआ। आखिर भाजपा इस नतीजे पर क्यों न पहुंचे कि ऐसे हमले सत्तारूढ़ राजनीतिक दल की शह पर हो रहे हैं? यह प्रश्न इसलिए भी हैं,क्योंकि यह हमला राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा के काफिले में शामिल सभी भाजपा नेताओं की गाड़ियों पर किया गया जिसे रोका नहीं जा सका।
अमूमन हम देखते हैं कि राज्य में जब भी कोई राष्ट्रीय पार्टी का अध्यक्ष अथवा केन्द्र सरकार के मंत्री गण आते हैं तो सुरक्षा के नाम राज्य का पुलिस महकमा सुरक्षा के प्रबंधन के लिए पूर्व में ही सक्रिय हो जाता है। पश्चिम बंगाल में भी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री जे.पी.नड्डा जी की राज्य के पुलिस विभाग को पूर्व सूचना होने के बावजूद सुरक्षा के प्रबंध करने में भी ढिलाई का परिचय दिया गया। यह तो गनीमत रही कि जेपी नड्डा बुलेट प्रूफ वाहन से यात्रा कर रहे थे,अन्यथा उनके लिए वैसा ही जोखिम पैदा हो जाता जैसा पिछले कुछ वर्षों से पश्चिम बंगाल में ममता सरकार द्वारा भाजपा के अन्य नेताओं के लिए होता आ रहा है।
बंगाल में राजनीतिक हिंसा कोई नई नहीं है,इस प्रकार की कार्रवाई खतरनाक भी हैं सुशासन और परिवर्तन की बात करने वाली ममता सरकार आज उस स्तर को छूती हुई दिखाई दे रही है जैसे वाम दलों के शासन के समय दिखती थी। स्पष्ट है कि बंगाल का राजनीतिक रूप से पतन हो रहा है।
यह देखना दयनीय है कि जब राजनीतिक हिंसा के लिए कुख्यात अन्य राज्य उससे मुक्त हो रहे हैं तब बंगाल और केरल में वह बेलगाम होती दिख रही है। इन दोनों राज्यों की राजनीतिक हिंसा का चिंताजनक पक्ष यह है कि उसे लेकर अन्य राजनीतिक दलों और सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों के साथ ही मीडिया का एक हिस्सा भी उदासीनता का परिचय देता दिखाई दे रहा है।
यह उदासीनता इसीलिए भी दिखाई जा रही है,क्योंकि राजनीतिक हिंसा के निशाने पर भाजपा है। यह अनदेखी राजनीतिक हिंसा को दिया जाने वाला मौन समर्थन तो है ही, वैचारिक असहिष्णुता का परिचायक भी है। यदि विपक्षी दल भाजपा का राजनीतिक रूप से मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं तो इसका यह मतलब नहीं कि वे उसके खिलाफ बंगाल और केरल में की जाने वाली राजनीतिक हिंसा पर मौन साधे रहें। इस मौन के नतीजे अच्छे नहीं होंगे। किसी भी दल के प्रति दिखाई जाने वाली राजनीतिक हिंसा बिना किसी किंतु-परंतु अस्वीकार्य होनी चाहिए।
यह देखना दुखद है कि भाजपा जिस राजनीतिक हिंसा से दो चार है उसकी अन्य राजनीतिक दल निंदा करना तो दूर रहा,उसका संज्ञान भी नहीं लेते। समस्या केवल यही नही है कि विपक्षी दल केरल और बंगाल की राजनीतिक हिंसा पर चुप्पी साधे रहते हैं,बल्कि यह भी है कि वे केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के शासन करने के अधिकार को भी अलोकतांत्रिक तरीके से चुनौती देने में भी लगे हुए हैं। नए कृषि कानूनों की वापसी पर अड़े विपक्षी दल जैसा रवैया प्रदर्शित कर रहे हैं उससे यही प्रतीत होता है कि उन्हें अपने राजनीतिक स्वार्थो की अधिक परवाह है।