Uttarakhand

पार्लियामेंट में हिमालयी प्रश्नों की अनदेखी

  • यहाँ के पहाड़ों में विकास के पैमाने मैदानी आधार पर

सुरेश भाई 

देहरादून : संसद में हिमालय के 11 राज्यों से कुल 40 सांसद चुनकर जाते हैं । जो अकेले बिहार राज्य के बराबर है। हिमालय के सवाल संसद में तभी  गूंजते हैं , जब तक उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों का साथ नहींं मिलता है। सन 2013 की आपदा के बाद भी देश के सांसदो के बीच चर्चा तभी हुई जब मरने वालों की अधिक संख्या बाहरी राज्यों से थी।

हिमालयी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की मॉग केवल विशेष राज्य तक सीमित रहती है। लेकिन वे यह कहने में असमर्थता दर्शाते है कि उनके पास से बह रही नदियां, उपजाऊ मिटटी, ऑक्सीजन देश के 60 करोड लोगो को मिलती है। इसलिये हिमालय और यहॉ के निवासियों की सेहत का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिये। इस अनदेखी के कारण ही यहॉ विकास के पैमाने मैदानी आधार पर है।

आजादी के 70 वर्ष बीत गये है। अभी हिमालय के अनुरूप विकास की रूपरेखा नही बनी है। इस बावत जब भी केन्द्र के सामने समस्या रखनी है, तो वे यहॉ के जल, जमीन, जंगल को वस्तुओं के रूप में विकास की बात करते है। पानी, पेड आदि के शोषण की बुनियाद पर अधिकांश योजनाओं आंकड़ा  मिलता है। इसके अनुरूप ही विकास योजनाओं का रास्ता खोलने हेतु अध्ययन होता है। निश्चित ही इसमें थोडे दिनों को रोजगार भी मिलता है। लेकिन विकासकर्ताओं को भरपूर लाभ मिलता है। वास्तविकता यह है कि पर्यटन और पंचतारा सस्कृति को हिमालय के हर कोने तक पहुॅचाया जा रहा है। ताकि शराब की ब्रिकी हो सके। पानी बेचकर हाइड्रोपावर प्रोजोक्ट बनाये जा सके इसी सिलसिले में चौडी सडको के निर्माण से लाखों पेडों को काटकर भारी मुनाफा मिल जाता है।

सन 2014 में श्री नरेन्द्र मोदी जी देश के प्रधानमंत्री बने, तो लोगों की आस जगी थी कि नमॉमि गंगे के साथ हिमालयी विकास के मॉडल पर विचार होगा । इसके लिये बकायदा उन्हें हजारों हस्ताक्षरों के साथ हिमालय नीति बनाने के लिये सरकारी ऑकडों के साथ एक दस्तावेज भी सौपा गया है। जिसमें एक हजार के लगभग पोष्टकार्ड और दर्जनों पत्र भी भेजे गये है।

संसद में 11जुलाई 2014 को हरिद्वार के सांसद व पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा हिमालयी राज्यों की अलग सामाजिक, राजनैतिक, भौगोलिक, सास्कृतिक स्थिति को ध्यान में रखते हुये एक अलग मंत्रालय बनाने की जोरदार पहल की है। इसके समर्थन में प्रो. सौगत राय, प्रेमदास राय, निनोंद इरिंग, एसएस अहलुवालिया, जगदम्बिका पाल, प्रहलाद सिह पटेल, अनुराग सिह ठाकुर, सत्यपाल सिह समेत 17 सांसदो ने बहस की थी। इसके उत्तर में राज्य मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिह द्वारा कहा गया कि सरकार हिमालयी क्षेत्रों के प्रति प्रतिबद्ध है।

संसद की यह बहस देखकर आस जगी कि प्रधानमंत्री जी आपदा प्रभावित केदारनाथ के पुर्ननिर्माण में जिस तरह से रूचि दिखा रहे है, अब वे हिमालय के लिये अलग मंत्रालय भी बनायेंगे और इसके संचालन के लिये मंत्र (नीति) भी निर्धारित कर देंगे। लेकिन 5 वे साल में पहुॅचने के बाद भी हिमालय के सवाल ज्यों के त्यों है। इस दौरान गंगा की अविरलता के सवालों की अनदेखी तो हुई है, साथ ही हिमालय के प्रति कोई गम्भीरता नही दिखाई गई है। राष्ट्रीय हिमालय नीति अभियान ने 8 सितम्बर 2017 को सांसदों के नाम खुला पत्र जारी किया था, वह भी संसद के गलियारों से गायब है।

पहले भी 17 मार्च 1992 को योजना आयोग के विशेषज्ञों ने भी डॉ. जेएस कासिम की अध्यक्षता में हिमालय विकास प्राधिकरण का खाका तैयार किया गया था। जिसे बाद में ठंडे बस्ते में डाल दिया था। इससे स्पष्ट है कि पार्लियामेंट में हिमालयी प्रश्नों की अनदेखी है।

(लेखक सुप्रसिद्ध समाजसेवी और पर्यावरणविद हैं )

devbhoomimedia

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