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कम मतदान किसका नफ़ा किसका नुकसान !

  • गिरे मतदान प्रतिशत से सियासतदां सकते में……

राजेन्द्र जोशी 

देहरादून : उत्तराखंड के मतदाताओं की खामोशी ने जहां इस लोकसभा चुनाव में तमाम सवाल खड़े कर दिए हैं वहीं इस चुनाव में गिरे मतदान प्रतिशत की कमी से भी सियासतदां सकते में हैं। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में सूबे के मतदाताओं ने जो उत्साह दिखाया था इस बार वह उत्साह गायब नज़र आया। प्रदेश में गिरे हुए मतदान प्रतिशत ने कम से कम यह तो साफ़ कर दिया है कि प्रदेश में न कोई लहर थी और न कोई हवा।

प्रदेश के प्रमुख दोनों ही राजनीतिक दलों के मतदान से पहले के दावों पर यदि गौर किया जाय तो यदि ऐसा होता तो मतदाता घरों में नहीं ठिठकता और वह जरुर वर्ष 2014 में किये गए मतदान कि तरह इस बार भी घरों से बाहर निकलता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।घटे हुए चुनाव प्रतिशत पर राजनीतिक जानकारों का कहना है कि कुछ मतदाता तो दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दलों के बेसिर -पैर के दावों और अतिरंजित बयानबाजियों से खफा होकर घरों में बैठे रहे। इनका मानना है कि इस लोकसभा चुनाव में आम आदमी से जुड़े मुद्दे जहां गायब नज़र आये वहीं जिन मुद्दों का आम नागरिक से कोई लेना देना नहीं वे हावी रहे।

कुछ लोगों का कहना है उन्हें सियासत से कोई लेना देना नहीं ऐसे में देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मोदी ही बैठा रहे या राहुल बैठे उन्हें इससे कोई लेना -देना नहीं, उन्हें तो अपनी दो -जून की रोटी और अपने परिवार के पालन -पोषण की चिंता है जिस पर दोनों ही दलों ने कोई स्पष्ठ बात नहीं की। वहीं राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो मतदाताओं में कहीं न कहीं केंद्र सरकार के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी का असर भी जरुर दिखाई दिया, जिसका असर लोकसभा चुनाव पर पड़ा, ऐसा नहीं कि केंद्र सरकार के खिलाफ नाराजगी का असर इससे पहले के लोकसभा चुनावों में नहीं पड़ा है इससे पहले भी मुख्यमंत्री स्व.पंडित नारायण दत्त तिवारी के शासनकाल में भी यह दिखाई दिया था, जब केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार काबिज थी ,वरना 1984 में इसी प्रदेश जब यह उत्तरप्रदेश का हिस्सा हुआ करता था तत्कालीन समय में 63 फीसदी मतदान किया था, वह भी तब जब इतनी सुविधाएँ नहीं थी।

गिरते मतदान का असर प्रदेश की सरकार के कार्यों पर भी प्रभाव डालता है यह बात इस बार के गिरते चुनाव प्रतिशत ने साफ़ कर दिया है। वहीं यदि राज्य के अस्तित्व में आने के बाद के लोकसभा चुनावों के मतदान फीसदी पर नज़र दौडाई जाय तो यह बात साफ़ हो जाती है कि चुनाव -दर चुनाव यहां मतदान प्रतिशत में इजाफा ही नज़र आया। जो इस बार नज़र नहीं आया। वर्ष 2004 में प्रदेश में लोकसभा चुनाव में मतदान प्रतिशत सबसे कम 48.74 रहा था। इस लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने तीन,एक कांग्रेस ने तथा एक सीट समाजवादी पार्टी ने जीती थी।

उसके बाद वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में यह मतदान प्रतिशत बढ़कर 53. 43 हो गया इस चुनाव में कांग्रेस ने राज्य की पांचों लोकसभा सीटों पर विजय प्राप्त की। वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर पर सवार भाजपा ने 61.85 फीसदी मतदान के बाद सूबे की पांचों लोकसभा सीट कांग्रेस से छीनकर अपनी झोली में डाल दी थी।

कुल मिलाकर यदि इस बार के लोकसभा चुनाव के घटे मतदान प्रतिशत को देखा जाय तो यह साफ़ है न कोई करंट ही नज़र आया और न हवा अन्यथा मतदान प्रतिशत में जरुर बढोत्तरी दर्ज की जा सकती थी। खैर अब परिणाम के लिए 23 मई तक का इंतज़ार करना होगा लेकिन एक बात तो साफ़ है इस बार के परिणाम बहुत ही चौंकाने वाले हो सकते हैं ।

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