कोटद्वार अब कहलाई जाएगी कण्वनगरी
कण्व ग्राम के आधार पर बनी कण्व नगरी
राकेश पुंडीर – मुंबई
मुंबई । आज यह खबर पढ़ कर अति प्रशन्नता हुई कि मुख्यमंत्री त्रवेंद्र सिंह रावत जी ने एतिहासिक व पौराणिक नगरी कोटद्वार का नाम इस नगरी के वास्तविक नाम कण्व ग्राम के आधार पर कण्व नगरी कर दिया है ।
खोह नदी तथा मालन नदी और महाब पर्वत की गोद में बसा यह एतिहासिक नगर दरअसल हजारों वर्ष पूर्व महाऋषि कर्ण्व का आश्रम हुआ करता था आदिकाल में यहां मालन नदी किनारे स्तिथ गुरुकुल पौराणिक शिक्षा दीक्षा का केंद्रबिंदु हुआ करता था ।
यदि संपूर्ण रूप से इस नगरी का इतिहास जानना है तो आपको इसके पौराणिक पृष्ठभूमि को जानना आवश्यक है ….
सतयुग की बात है, एक बार महान प्रतापी राजा त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग जाने की उत्कट इच्छा हुई। उन्होंने अपनी इच्छा देवराज इंद्र को प्रकट की किन्तु देवराज ने यह कहते हुए निषिद्ध कर दिया की यह प्रकृति के नियमों के विरुध्द है मृत्यु पश्चत ही स्वर्ग में पहुंचा जा सकता है उनके अनुनय विनय पर भी देवराज टस से मस नही हुए। फलस्वरूप उन्होंने अपने कुलहितैषी महाऋषि विश्वामित्र को उनके तपबल से सशरीर स्वर्ग जाने की उत्कट इच्छा प्रकट की। काफी अनुनय विनय के पश्चात ऋषि विस्वमित्र मान गए और उन्होंने अपने तपोबल से त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग में भेज दिया लेकिन मध्याकाश में ही इंद्र ने अपनी शक्ति से त्रिशंकू महाराज को नीचे पृथ्वीलोक की ओर धकेल दिया। ऋषि विश्वामित्र के तपोबल से राजा नीचे धरती पर नही गिरे परंतु आकाश में ही अटक गए।
ऋषि विस्वमित्र ने इसे अपनी प्रतिष्ठिता का प्रश्न मानते हुए एक और स्वर्ग के निर्माण की ठान ली और एक दूसरा स्वर्ग निर्माण हेतु घोर तप में लींन हो गए. इंद्र को भय हुआ की दूसरे स्वर्ग निर्माण के कारण उसकी महत्ता कम हो जायेगी … इंद्र ने स्वर्गलोक की मुख्य अप्सरा मेनका को ऋषि विस्वमित्र की तपस्या भंग करने हेतु धरा पर भेज दिया … अप्सरा मेनका ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने पृथ्वीलोक पहुंची और उनकी तपस्या भंग करने का प्रयास करने लगी। कई विकट परस्थितियों के पश्चात वह ऋषि विस्वमित्र की तपस्या भंग करने में सफल हो गई नेत्र खुलने पर विश्वामित्र बहुत कुपित हुए और मेनका को श्राप देने जैसे ही उद्यत हुए मेनका ने ऋषि से क्षमा मांगते हुए कहा…. की हे ऋषिश्रेष्ठ मै तो स्वयं पूर्ववत शापित हूँ और श्रापवश ही मुझे मृत्युलोक आना पड़ा है । हे ऋषिश्रेष्ठ ैंने अपने महाराज के निर्देश का पालन करते हुए सिर्फ अपने कर्त्यव्य का निर्वाहन किया है …। विश्वामित्र का क्रोध तनिक शांत हुआ और मेनका की बातें धैर्य से सुनी…..वे मेनका के उत्तर से सहमत हुए और मेनका के असीम सौन्दर्य पर इतना मुग्ध हो गए की वह अपना उद्येश्य ही भूल गए … ! विश्वामित्र पूर्व में एक शक्तिशाली क्षत्रिय रजा थे , कामधेनु के कारण रिषि वशिष्ठ से उलझने के कारण उन्यहोने राजपाठ त्हयाग दिया था और तपोबल प्राप्त करने तपस्वी बन गये…. यह जान कर मेनका विश्वामित्र से बहुत प्रभावित हुई और उसने विश्वामित्र को उसे अपनाने का अनुरोध किया … ऋषि ने मनन मंथन कर उसे सहर्ष स्वीकार कर दिया …कालचक्र चलता रहा और श्राप अवधि तक मेनका को विश्वामित्र के संग ही निवास करना पड़ा … परिणाम स्वरूप दोनों की शकुंतला के रूप में एक सुंदर पुत्री का जन्म हुआ .…मेनका श्रापवश पृथ्वीलोक आई थी और श्राप की समयावधि पूर्ण होने पर अप्सरा मेनका स्वर्गलोक लौट गयी , रिषि विश्वामित्र घोर तप में लीन थे , इसलिये वह पुत्री शकुंतला को विश्वव मित्तर के परम मित्र *महरिषि *कर्णवा* को सौंप गयी … व स्स्वयं स््वर्ग प्रस्थान कर गई … ऋषि कर्णवा का आश्रम गढ़वाल की आज की नगरी कोटद्वार ” क्षेत्र में मालनी नदी के तट पर स्थित था … कालांतर में यह क्लाशी क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता था।
कालांतर में कोटद्वार क्षेत्र की मालनी नदी के तट पर हस्तिनापुर के रजा दुष्यंत की सकू (शकुन्तला ) से भेंट होती है और दोनों गंधर्वव विवाह बंधन में बंध जाते हैं …यही पर ऋषि कर्णवा के आश्रम में उनके पुत्र “भरत” का जन्म होता है…. क्रोधी ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण कुछ समय तक राजा दुष्यंत शकुंतला को भूल जाते हैं…. परन्तु १५ वर्ष पश्चात् श्राप की अवधि समाप्त हो जाती है और उन्हें शकुंतला की याद आ जाती है …याद आते ही वे हस्तिनापुर से शकुंतला को लेने कर्णवा आश्रम आते हैं और शकुंतला को हस्तिनापुर चलने का अनुनय करते हैं. परन्तु शकुंतला पिता समान ऋषि कर्णव को वृद्धावस्था में नहीं छोड़ सकती थी इसलिए वो सिर्फ पुत्र भरत को साथ ले जाने का अनुरोध करती हैं वो महान नारी अपने कर्त्यव्य की बलि वेदी पर राजशाही ठाठ ठुकरा देती है।
राजा दुष्यंत हार मान शकुंतला की बात स्वीकार कर पुत्र भारत को लेकर हस्तिनापुर चले आते है….कालांतर में यही भरत हस्तिनापुर के राजसिंहासन के उत्तरधिकरी हुए और उन्ही के नाम पर हमारे देश का नाम “भारत “ हुआ ।
वे चक्रवर्ती सम्राट हुए और उनके उनके वंशज भरतवंशी कहलाये । कौरव और पांडव राजा भारत की छटवी पीढ़ी के वंशज थे।
कर्णवा आश्रम नामक स्थल कोटद्वार क्षेत्र में मालनी नदी के तट आज भी विद्यमान है और आज यह एक सुंदर टूरिस्ट प्लेस बन चुका है…
—