विकलांग व्यक्तियों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस पर विशेष – (International Day of Persons with Disabilities)
माया जोशी
अन्तर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस अथवा अन्तर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस प्रतिवर्ष 3 दिसंबर को मनाया जाता है। वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा के द्वारा “विकलांगजनों के अंतरराष्ट्रीय वर्ष” के रूप में वर्ष 1981 को घोषित किया गया था।
अक्सर हमारी विकलांग सोच ही शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के जीवन को कठिन बना देती है। वे अपनी शारीरिक अक्षमता को तो किसी हद तक झेल लेते हैं, परन्तु उसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव से जूझ पाना आसान नहीं होता।
ऐसा मानना है तंज़िला खान का जो विकलांग अधिकारों पर कार्य करने वाली एक जानी मानी कार्यकर्ता हैं और गर्ली-थिंग्स की संस्थापिका हैं। प्रजनन और यौनिक स्वास्थ्य और अधिकार पर आयोजित एशिया पैसिफिक क्षेत्र के सबसे बड़े अधिवेशन (10 वीं एशिया पैसिफिक कांफ्रेंस ऑन रिप्रोडक्टिव एंड सेक्सुअल हेल्थ एंड राइट्स) के बारहवें वर्चुअल सत्र में तंज़िला ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित अपने विचार साझा करते हुए कहा कि, “विकलांगों को अपनी पहचान बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है। हम खुद को समाज में फिट नहीं कर पाते हैं। उदाहरण के रूप में, सभी इमारतें केवल शारीरिक रूप से सक्षम व्यक्तियों के लिए ही सुलभ बनायीं जाती हैं। यही बात नीतियों और कानूनों पर भी लागू होती है। कभी-कभी लोगों की विकलांग सोच और दृष्टिकोण के चलते सम्पूर्ण देश या समुदाय तक निष्क्रिय और अपंग हो जाते हैं।”
एशिया पैसिफिक क्षेत्र में रहने वाले लोगों में 69 करोड़ लोग विकलांगता से ग्रसित हैं। हालांकि कई देशों ने विकलांगों के लिए रोज़गार और शिक्षा की पहुंच को बेहतर बनाने के लिए काफी प्रयास किये हैं, लेकिन उनके प्रजनन और यौनिक स्वास्थ्य की जरूरतों पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। महिलाओं के प्रजनन और यौनिक स्वास्थ्य अधिकार कुछ देशों में अभी भी वर्जित विषय हैं और विकलांग महिलाओं के संदर्भ में तो यह चुनौती और भी बड़ी हो जाती है।
प्रजनन और यौनिक स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी सीमित पहुँच का एक बहुत बड़ा कारण है स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की असंवेदनशीलता।
नेपाल की शिबू श्रेष्ठा जो ‘विज़िबल इम्पैक्ट’ में कार्यरत हैं, ने बताया कि उनके देश में युवाओं, विशेष रूप से अपंग महिलाओं, को इस सम्बन्ध में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वैसे भी नेपाल में युवा महिलाओं की परिवार नियोजन सम्बन्धी आवश्यकताएं भारी मात्रा में अपूर्ण हैं। तिस पर यह माना जाता है जो विकलांग हैं वे यौन रूप से सक्रिय नहीं हैं और इसलिए उन्हें प्रजनन और यौनिक स्वास्थ्य एवं परिवार नियोजन सेवाओं की आवश्यकता ही नहीं है।
नेपाल के तीन शहरों में विकलांग युवा व्यक्तियों पर किए गए एक अध्ययन में प्रतिभागियों ने कहा कि युवा विकलांगों को परिवार नियोजन सेवाएं प्रदान करते समय स्वास्थ्य सेवा कर्मियों का रवैया स्नेहशील और मित्रतापूर्ण नहीं होता है। शिबू ने सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) को बताया कि सेवा प्रदाता अक्सर यह कहते हुए पाये गए कि “क्या इन लोगों को भी इन चीज़ों की ज़रुरत है?”
अध्ययन में हिस्सा लेने वाले प्रतिभागियों ने बताया कि परिवार नियोजन के मुद्दों पर अभी भी खुलकर चर्चा नहीं की जाती है। कदाचित इसीलिए उनमें परिवार नियोजन विधियों के बारे में जानकारी बहुत कम है। महिला प्रतिभागियों ने बताया कि विवाहित जोड़ों में पति ही यह तय करता है कि परिवार नियोजन का कौन सा तरीका अपनाया जाये। और इस निर्णय में महिलाओं की सहभागिता न के बराबर होती है। एक महिला प्रतिभागी ने कहा,”वे (पुरुष) (सम्भोग के) अगले दिन आपातकालीन गर्भनिरोधक गोली खरीद कर लाने की पेशकश करते हैं और हमें उनकी बात माननी पड़ती है, क्योंकि हमारे पास इसके अलावा कोई और चारा ही नहीं है। हममें इतना आत्मविश्वास ही नहीं है कि हम स्वयं बाज़ार से गर्भनिरोधक खरीद सकें। इसलिए हम अक्सर असुरक्षित यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर हो जाते हैं।”
काठमांडू की एक विकलांग महिला ने कहा, “एक बार मैं जब ‘वैजाइनल टेबलेट’ खरीदने गई तो फार्मासिस्ट ने मुझे इस तरह देखा जैसे मैंने कोई हत्या कर दी हो। तब से मैं कभी अपने आप गर्भनिरोधक खरीदने नहीं जाती हूँ।”
गर्भनिरोधक के उपयोग से जुड़ी अनेक भ्रांतियां भी विकलांग व्यक्तियों में प्रचलित हैं – जैसे कि ‘कॉन्डोम और आईयूडी यौन संतुष्टि नहीं देते हैं’, या फिर ‘नसबंदी कराने से पुरुष कमज़ोर हो जाता है’ जैसी भ्रांतियां।
जब बड़े शहरों में रहने वालों के दृष्टिकोण और समझ का यह स्तर है तो सोचिये छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में क्या हाल होगा।
शिबू चाहती हैं कि विकलांगों के लिए सभी उचित जानकारी और सेवाएं उपलब्ध हों, जैसे कि ‘रैम्प’ (इमारत आदि में जीने के साथ-साथ ढलान-वाला रास्ता जिससे कि पहियेदार-कुर्सी पर लोग ऊपर-नीचे आ-जा सकें), शौचालय में ‘ग्रैब बार’ (हैंडल जिससे कि लोग आसानी से सहारे के साथ उठ सकें), अस्पताल आदि में रोगी को देखने के लिए कम ऊंचाई का बिस्तर, सांकेतिक भाषा व्याख्याकार, ऑडियो प्रारूप, ब्रेल लिपि में पठन सामग्री, आदि।
मुंबई के जनसँख्या शोध के लिए अंतर्राष्ट्रीय इंस्टिट्यूट में शोधरत स्रेई चंदा द्वारा भारत के दो महानगरों में किए गए अध्ययन से किसी दुर्घटना के कारण हुए निचले अंग विच्छेदन से ग्रसित विकलांग व्यक्तियों की दुर्दशा का पता चलता है। स्रेई के अनुसार अंग विच्छेदित लोगों को न केवल शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और आर्थिक बदलावों से जूझना पड़ता है, वरन उनकी यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताएं भी काफी हद तक अपूर्ण रह जाती हैं।
घुटने के नीचे से अपंग एक व्यक्ति ने कहा, “हम सभी बातें अपनी माँ के साथ तो नहीं साझा नहीं कर सकते। कुछ मुद्दों पर चर्चा के लिए दोस्तों की ज़रुरत होती है। मगर विकलांग होने के कारण यौन इच्छा और आवश्यकता के बारे में दोस्तों के साथ भी बात करना मुश्किल हो जाता है।”
एक अन्य युवा महिला, जिसके दोनों पाँव घुटने के नीचे से विच्छेदित थे, ने बताया कि जब वह गर्भवती हुई तो उसके पति ने उसे छोड़ दिया। जब वह प्रसूति के लिए अस्पताल गई तो स्वास्थ्यकर्मियों ने कहा, ‘आपके पैर नहीं हैं, हम आपका प्रसव करवाने का जोखिम नहीं उठा सकते।’
महिला ने बताया, “हालांकि मुझे बच्चे को जन्म देने की प्रक्रिया में कोई विशेष परेशानी नहीं हुई, लेकिन हर किसी से अपने बारे में ‘लिबंलेस’ (अपंग) जैसे शब्द सुनकर बहुत कष्ट हुआ।”
महिला ने बताया, “हालांकि मुझे बच्चे को जन्म देने की प्रक्रिया में कोई विशेष परेशानी नहीं हुई, लेकिन हर किसी से अपने बारे में ‘लिबंलेस’ (अपंग) जैसे शब्द सुनकर बहुत कष्ट हुआ।”