PERSONALITY

उत्तराखंड के गांधी स्व. इंद्रमणि बडोनी की अधूरी आत्मकथा

महीपाल सिंह नेगी
Indramani Badoni, who is called Gandhi of Uttarakhand, died just a year before the state was formed. He was very ill for the last time. Then she started writing her autobiography titled “Jeevan Yatra”.
उत्तराखंड के गांधी कहे जाने वाले इंद्रमणि बडोनी जी का निधन राज्य बनने से मात्र एक साल पहले हो गया था। आखिरी समय वह काफी बीमार रहे। तब उन्होंने अपनी आत्मकथा “जीवन यात्रा” नाम से लिखनी शुरू की थी।
हालांकि तब उनकी उम्र बहुत ज्यादा नहीं थी, 75 बरस के ही थे। लेकिन उन्हें एहसास हो गया था कि जीवन यात्रा अब थमने वाली है। उन्होंने जीवन यात्रा लिखनी तो शुरू की लेकिन पूरी नहीं लिख पाए। शायद, लगभग 20 – 25 पृष्ठ लिख पाए थे। इनमें से कुछ पृष्ठ मुझे इंद्रमणि बडोनी विचार मंच के संस्थापक सचिव रमेश उनियाल जी के माध्यम से प्राप्त हुए थे, जिसमें से कुछ हिस्सा मैंने जुलाई 2005 में अपनी पत्रिका “उत्तराखंड आजकल” में संपादित किए थे। इसके अलावा शायद कहीं भी अन्यत्र यह पृष्ठ छपे नहीं हैं। इन्हें प्रकाशित करने की योजना तो बनी लेकिन सभी पृष्ठ मेरे पास उपलब्ध नहीं हैं। कुछ हिस्सा यहां “गढ़वाल डायरी” के अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहा हूं – –
” जीवन यात्रा” “मैंने कभी भी यह नहीं सोचा था कि मैं अपनी जीवन यात्रा लिखूं। किन्तु साथियों के तथा अपने विचारों के समर्थकों के कहने पर तथा आज जब मैं अपने को किसी काम करने के योग्य नहीं समझता हूं और ना ही कर सकता हूं, तो मेरे मन में एक विचार आया कि जीवन यात्रा अब पूरी होने वाली है इसलिए यह अच्छा ही होगा कि अपने जीवन की बातों को याद करके आगे वालों के लिए लिख दूं। मेरे लिखने से मेरे सभी साथी तथा मेरे साथ या मेरे विचार के लिए जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी है या जो देने के लिए तत्पर हैं, उनकी कार्य निष्ठा आगे आने वालों के लिए प्रेरणादायक सिद्ध हो ……।
……. मेरे पिताजी घर के बड़े थे तथा माताजी पास के ही गांव की थी। पिताजी पंडित थे और अपने काम में प्रवीण थे। हम सब पांच बहने और तीन भाई थे। इतने बड़े परिवार का पालन करना तथा शिक्षा दीक्षा करना कोई मामूली कार्य न था। पिताजी 6 महीने घर में पंडित का कार्य करते थे तथा 6 महीने नैनीताल में रिक्शा चला कर अपने परिवार का पालन पोषण करते थे। मैंने कक्षा चार गांव से पास कर दिया, लेकिन इसके बाद पढ़ना बहुत कठिन था। टिहरी में मिडिल में स्थान मिलना बहुत कठिन था।
टिहरी के अलावा रौड़ धार खास पट्टी में भी एक मिडिल स्कूल था, मेरे पिताजी ने नैनीताल से खर्च का प्रबंध कर के एक रिश्तेदार के साथ मुझे रौड़धार मिडिल स्कूल में भर्ती करवा दिया। उस समय वहां थाती, डागर, कड़ाकोट आदि दूर-दूर के लड़के भी पढ़ते थे। हम 5 लड़के एक साथ रहते थे। 7 लड़कों का डेरा घरुणा गांव में था।
अगले साल विद्यालय चंद्रबदनी के पास जुराना गांव में देवी की धर्मशाला में स्थानांतरित कर दिया गया। हमारे प्रधानाचार्य श्री रविदत्त जी टिहरी निवासी थे। वह भी धर्मशाला में रहते थे। हमारा कक्षा 7 का परीक्षा केंद्र टिहरी प्रताप इंटर कॉलेज में था। ……..।
…… 7 वीं पास करने के बाद मैं नैनीताल जाना चाहता था, ताकि आगे की पढ़ाई भी कर सकूं और वहां अपना रिक्शा भी देख सकूं। पिताजी तैयार नहीं थे, कि 7 पास कर लिया है अब कहीं नौकरी लग जाएगी। लेकिन हमारे रिक्शा के पुराने कुली जेठा सिंह जी ने पिताजी को मना लिया। मैं उनके साथ चल दिया।
पहले दिन हम समीप की पट्टी हिंदौ में, दूसरे दिन लस्या होते हुए तिलवाड़ा, तीसरे दिन कर्णप्रयाग, चौथे दिन आदिबद्री होते हुए जगदी चट्टी, पांचवें दिन गैरसैंण होते हुए मेहलचौरी, छठे दिन चौखुटिया, सातवें दिन द्वाराहाट होते हुए खेत, आठवें दिन ……(अपठनीय) और फिर नवें दिन नैनीताल पहुंचे। नैनीताल मेरे लिए स्वर्ग के समान था…….।
…… मैं 10 से 5 बजे तक स्कूल में रहता और फिर शाम को रिक्शा देखता। 7 बजे एक आदमी खाना बनाने चले जाता। तब कभी-कभी मैं भी रिक्शे पर काम करने लगा। रिक्शा से जो किराया मिलता, वह खाने के लिए भी पूरा नहीं होता था। एक दिन कोई नवाब मेरे रिक्शे पर बैठा और उसने मुझे 50 रु इनाम दिया और कहा पढ़ाई मत छोड़ना। …….।
……. मैं कुली लोगों की चिट्ठी लिखता था। हर रोज चार-पांच चिट्ठी लिखना तो मेरा काम हो गया था। हम लोग रिक्शे में आदमी को खींचना अच्छा काम नहीं समझते थे। नाव चलाना व घोड़े रखना ठीक काम लगता था। ( रिक्शा का मतलब, हाथ से खींचने वाला रिक्शा) ………………..” (आगे की जीवन यात्रा कल जारी रहेगी। कृपया, ” गढ़वाल डायरी” पढ़ते रहिए।)

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