तीसरे विकल्प बनने की उत्तराखंड में अभी भी चुनौती !
देहरादून : अपनी अदूरदर्शी नीति और आपसी खींचतान और कुर्सी मोह के चलते राज्य गठन के बाद प्रदेश में अभी तक तीसरा सशक्त विकल्प नहीं उभर पाया है। स्थिति यह है कि अभी तक हुए चार विधानसभा चुनावों में से दो बार कांग्रेस तो दो बार भाजपा सत्ता में आई है। तीसरे मजबूत विकल्प के अभाव में प्रदेश की राजनीति भाजपा व कांग्रेस के आसपास ही सिमट कर रह गई है।
उत्तराखंड क्रांति दल और बहुजन समाज पार्टी ने शुरूआती दौर में तीसरे विकल्प के तौर पर उभरने की आशा जगाई थी लेकिन आपसी खींचतान और कुर्सीमोह के चलते वर्तमान में ये दोनों ही दल हाशिए पर हैं। चुनाव के समय सक्रिय होने वाले शेष अन्य दल नाम के लिए झंडे-डंडे तो उठाए हैं लेकिन अभी तक मजबूत आधार नहीं बना पाए हैं।
उत्तराखंड के अस्तित्व में आने से लेकर अभी तक सूबे में द्विदलीय व्यवस्था ही चली आ रही है। अभी तक हुए चार चुनावों के परिणाम पर नजर डालें तो पहले चुनावों में कांग्रेस 36 सीट लेकर स्पष्ट बहुमत से सत्ता में आई थी। भाजपा के खाते में 19 सीटें आई थीं। इस चुनाव में बसपा ने सात व उक्रांद ने चार सीट जीत कर अपनी उपस्थिति का अहसास कराया था। 2007 के चुनावों में भाजपा ने 35 सीट लेकर सरकार बनाई।
भाजपा बहुमत से एक सीट कम थी लेकिन उक्रांद के तीन व तीन निर्दलीय के समर्थन से उसने पांच साल सरकार चलाई। उक्त चुनाव में बसपा को आठ सीटें मिली थी। इस समय तक प्रदेश में बसपा व उक्रांद को तीसरे विकल्प के रूप में देखा जाने लगा था। हालांकि, इसके बाद स्थिति में खासा बदलाव आया। वर्ष 2012 के चुनावों में कांग्रेस 32 सीट लेकर सबसे बड़ी पार्टी बनी।
उसने बसपा के तीन, उक्रांद के एक व तीन निर्दलीय विधायकों के सहयोग से सरकार बनाई। भाजपा को 31 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। इन चुनावों में तीसरे विकल्प की संभावनाएं हल्की होने लगी। कारण यह रहा कि कांग्रेस व भाजपा के इतर जो भी दल सीट ला रहा था, वह सत्ता सुख पाने के लिए सबसे बड़े दल को समर्थन देकर उसका दामन थाम रहा था।
यही कारण भी रहा कि प्रदेश की जनता ने वर्ष 2017 के चुनावों में भी इनको जमीन दिखा दी। अब दो माह बाद निकाय चुनाव होने हैं। ऐसे में प्रदेश में एक बार फिर कांग्रेस व भाजपा समेत बसपा, सपा, उक्रांद व इस बार आप भी इसकी तैयारियों में जुट गई है। भाजपा व कांग्रेस के लिए तो यह चुनाव प्रदेश में अपना सियासी वजूद बढ़ाने का रण है। वहीं, अन्य दल कहीं न कहीं प्रदेश में खुद को तीसरे विकल्प के रूप में स्थापित करने के प्रयास में जुटे हुए हैं। जाहिर है कि इन दलों के लिए यह राह इतनी आसान नज़र नहीं आ रही है।