रवीन्द्र नाथ टैगोर के जन्मदिन (7 मई,1861) पर नमन
अरुण कुकसाल
‘किसी समय कहीं एक चिड़िया रहती थी। वह अज्ञानी थी। वह गाती बहुत अच्छा थी, लेकिन शास्त्रों का पाठ नहीं कर पाती थी। वह फुदकती बहुत सुन्दर थी, लेकिन उसे तमीज नहीं थी।
राजा ने सोचा ‘इसके भविष्य के लिए अज्ञानी रहना अच्छा नहीं है’….उसने हुक्म दिया चिड़िया को गंभीर शिक्षा दी जाए।
पंडित बुलाए गए और वे इस निर्णय पर पंहुचे कि चिड़िया की शिक्षा के लिए सबसे जरूरी हैः एक पिंजरा। और फिर पिंजरे में रखकर चिड़िया ज्ञान पाने लगी। लोगों ने कहा ‘चिड़िया के तो भाग्य जगे !’……….
‘महाराज, चिड़िया की शिक्षा पूरी हो गई’।
राजा ने पूछा, ‘वह फुदकती है ?
भतीजे-भानजों ने कहा, ‘नहीं !’
‘उड़ती है ?’
‘एकदम नहीं !’
‘चिड़िया लाओ,’ राजा ने आदेश दिया।
चिड़िया लाई गई। उसकी सुरक्षा में कोतवाल, सिपाही और घुड़सवार साथ चल रहे थे। राजा ने चिड़िया को उंगली से खूब टटोला। लेकिन चिड़िया के भीतर केवल किताबों के पन्ने सरसराए।…..
खिड़की के बाहर नवपल्लवित अशोक के पत्तों में बंसंत की हवा मर्मर ध्वनि कर रही थी। अप्रैल की सुबह उदास हो उठी।
‘गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी ‘तोते की शिक्षा’ के शुरू और आखिर के अंश’।
महान दार्शनिक रूसो ने सन् 1750 के करीब घोषित कर दिया था कि ‘शिक्षा बच्चे को एक जिम्मेदार नागरिक की अपेक्षा चतुर और चालाक बनाने में ज्यादा सहायक है’। दार्शनिक रूसो और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रचलित शिक्षा प्रणाली को मानवीय जीवन के उथलेपन, रुढ़ियों, उदे्श्यहीनता और जुमलेबाजी का जनक माना था। रूसो के शैक्षिक विचारों को आगे बढ़ाते हुए टैगोर ने कहा कि ‘बच्चे की सहजता, सक्रीयता, नवीनता के प्रति आग्रह और पंरम्पराओं से मुक्त होने के जन्मजात गुणों पर ही शिक्षा सबसे पहला प्रहार करती है’। वास्तव में टैगोर का शिक्षा दर्शन शिक्षा से उत्पीड़ित ऐसे ही बच्चे की मन-मस्तिष्क से निकली आवाज है। टैगोर के सहयोगी कृषि विज्ञानी एल. के. एमहर्स्ट ने इसे ‘उनकी बचपन में स्वयं की भोगी कुंठाओं से आज के बच्चे को बचाना माना है’।
रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म कोलकत्ता में 7 मई, 1861 में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। (रोचक बात यह है कि उनके परदादा का नाम पंचानन कुशरी था, जिन्हें सभी ‘ठाकुर मोशाय’ कहते थे। अंग्रेज लोग उन्हें ठाकुर के उच्चारण में टाकुर-टाकुर (जो समय के साथ टैगोर में बदल गया) बोलते थे। बाद में उनके परिवार में ठाकुर और टैगोर उपनाम प्रचलन में आ गए।) अपने माता-पिता की 14वीं संतान रवीन्द्रनाथ के एक बड़े भाई सतेन्द्रनाथ पहले भारतीय आईसीएस थे। टैगोर की प्रारम्भिक से उच्च शिक्षा का क्रम कभी नियमित नहीं रहा। कविता लेखन से प्रारम्भ साहित्यक सफर कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, यात्रा संस्मरण, शैक्षिक दर्शन, संगीत और चित्रकारी में समाप्त हुआ। 40 से अधिक प्रकाशित पुस्तकों में ‘गीताजंलि’, ‘वाल्मिकी प्रतिभा’, ‘गोरा’, ‘शिक्षा की गड़बड़ी’, ‘जीवन-स्मृति’ रचनाओं को विशेष ख्याति मिली। ‘काबुलीवाला’ कहानी विश्व प्रसिद्ध हुई और वर्ष 1913 को उन्हें साहित्य का नोबेल पुरुस्कार मिला। बिट्रिश सरकार ने उन्हें सन् 1915 में ‘सर’ (नाइटहुड) की उपाधि दी, जिसे उन्होने ‘जलियावाला कांड’ के विरोध में सन् 1920 में वापस कर दिया था। 20वीं सदी के महान विश्व कवि, शिक्षाविद्, दार्शनिक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर का कोलकता के अपने पैतृक घर में 7 अगस्त, 1941 को निधन हो गया।
टैगोर के शिक्षा दर्शन की प्रारम्भिक झलक सन् 1892 में प्रकाशित उनकी ‘शिक्षा की गड़बड़ी’ पुस्तक में है। तत्कालीन अग्रणी विचारक राजा राममोहन राय, ईश्वरी चन्द विद्यासागर और बकिंम चन्द चट्टोपाध्याय के विचारों से काफी हद तक वे सहमत थे। इसी आधार पर टैगोर ‘शिक्षा को प्रकृत्ति से तारतम्य, मात्रभाषा में शिक्षण और मनुष्य की संप्रभुत्ता’ के केन्द्र में संचालित करने का विचार देते हैं। इसी परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए सन् 1901 में उन्होने ‘शान्ति निकेतन’ आवासीय विद्यालय की स्थापना की थी। लार्ड कर्जन के सन् 1905 में बंगाल विभाजन से तस्त्र होकर शिक्षा को राष्ट्रीयता का प्रबल वेग मानते हुए सन् 1909 में उनका ‘गोरा’ उपन्यास प्रकाशित हुआ। वैदिक और आंग्ल शिक्षा के परस्पर समन्वयन से सन् 1918 में ‘विश्व भारती’ की उन्होने स्थापना की थी। जहां राष्ट और धर्म के अस्तित्व को नकारते हुए विश्व दर्शन की परिकल्पना उन्होने की थी। इसी प्रकार सन् 1922 में शिक्षा में उद्यमिता के विचार को व्यवहारिक रूप में अपनाते हुए ‘श्रीनिकेतन’ का उन्होने संचालन किया था। ‘क्राइसिस इन सिविलाइजेशन’ उनका अन्तिम लेख है, जिसमें उन्होने मानव धर्म की अवधारणा को मूर्त रूप देने के आधारों पर चर्चा की है।
वास्तव में, टैगोर जीवनभर शैक्षिक प्रयोगधर्मी ही रहे। उनका कहना था कि ‘शिक्षा का अर्थ बच्चे को समझाना नहीें है, वरन उसके मन-मस्तिष्क में जीवन के प्रति सीखने-सिखाने की एक झंकार उत्पन्न करना है’। ऐसा तभी संभव है जब स्कूली कक्षा में बच्चे अपने स्वाभाविक चहकते गुणों के साथ उपस्थित रहेगें। वे विश्वभर के बच्चों और युवाओं की शिक्षा को राष्ट्र और धर्म की सीमाओं से आजाद करके ‘असत्य से संघर्ष और सत्य से सहयोग’ का कारगर माध्यम बनाने चाहते थे। इसके लिए वे निरंतर अनेकों देशों के शिक्षा माध्यमों को समझने और समझाने हेतु भ्रमणशील रहते थे। इस दौरान पूरी दुनिया ने रवीन्द्रनाथ टैगोर में महान दार्शनिक, कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार, संगीतकार, अध्येयता, घुम्मकड़, शिक्षाविद्, चित्रकार सब कुछ एक साथ देखा था।
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