UTTARAKHAND

1971 की विजय के बावजूद भारत ने गंवाया कश्मीर समझौते का अवसर

भारत ने राष्ट्रीय हित से अधिक वाहवाही लूटने को यदि महत्व न दिया होता तो कश्मीर विवाद हो जाता समाप्त 

राजनीति में स्थापित क्षुद्रताओं ने भारत को अर्थहीन बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी

कमल किशोर डुकलान

आजादी के पहले और उसके बाद भारत के लोग संविधान के अतिरिक्त ऐसी धुर भारतीय सोच विकसित करने में नाकाम रहे जो आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भारतीयता का एक स्थिर दर्शन की परिभाषा को प्रतिपादित करती। वर्तमान समय में हम राष्ट्रीय हित की दिशा में आगे बढे हैं। वास्तव में समझौतापरस्त राजनीति विभाजनकारी सोच के लोगों को भी सत्ता में ले आती है।देश उसका प्रतिरोध नहीं करता,बल्कि उसे बर्दाश्त करता है। समय-समय पर इसके प्रमाण मिलते रहे हैं। सन् 1971 भी ऐसा ही एक पड़ाव था जब हमें महान विजय प्राप्त हुई, जिसमें हमने द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को दफन किया था। वह एक सैन्य विजय के साथ महान वैचारिक विजय भी थी। बस एक और कदम की दरकार थी कि कश्मीर विवाद समाप्त हुआ होता। हम पाकिस्तान के विचार को ध्वस्त कर देते। 1971 में गंवाए इस अवसर ने राजनेता इंदिरा गांधी के नजरिये की सीमाएं स्पष्ट कर दीं। शायद नेताओं की जमात सत्ता हित से आगे कुछ सोच भी नहीं पाती है।अगर सन् 1971 का युद्ध यदि कश्मीर-मुक्ति का मुख्य लक्ष्य लेकर चला होता तो इसके अलग ही परिणाम होते।

उस समय देश के नेता तो यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि युद्ध की इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर कश्मीर और फिर आगे पाकिस्तान समस्या का स्थायी समाधान भी हो सकता है। हमारी असल समस्या कश्मीर थी,लेकिन कश्मीर का कोई जिक्र नहीं करता। वे कैसे समझते कि पश्चिम में पाकिस्तान की पराजय बांग्लादेश की आजादी का मार्ग स्वत: बना सकती है। युद्ध से पूर्व पश्चिमी मोर्चे पर आक्रामक रणनीति के निर्देश जारी किए गए थे। सारी तैयारियां पूर्ण थीं।युद्ध से महज दो दिन पहले अचानक 1 दिसंबर को तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा रक्षात्मक रणनीति के निर्देश दिए गए। इसने पश्चिमी मोर्चे पर हमारे समस्त सैन्य आक्रमण प्लान पर अचानक ब्रेक लगा दिया। अब हम न हाजीपीर पर हमला कर पाते और न लाहौर स्यालकोट सेक्टरों पर। सेना के हाथ बांध दिए गए।

मानेकशॉ के जबरदस्त प्रतिरोध के बावजूद इंदिरा गांधी नहीं मानीं और कहा कि यदि हम पश्चिमी सीमा पर आक्रामक हुए तो अंतरराष्ट्रीय विरोध नहीं झेल पाएंगे। निक्सन-र्किंसग्जर का दबाव था,लेकिन रणनीति बदलने की आखिर मजबूरी क्या थी? इसका कश्मीर विवाद के भविष्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। हम युद्धविराम रेखा तक ही सीमित रह गए। छंब का हमारा 120 वर्ग किमी का इलाका भी पाकिस्तान के कब्जे में चला गया। एक दुर्भाग्यपूर्ण आदेश ने 1971 के युद्ध की उस विजय को हमारे लिए अर्थहीन कर दिया। जबकि उस युद्ध में कश्मीर वापसी की संभावनाएं स्पष्ट दिख रही थीं,पर सियासी नेतृत्व में साहस नहीं था। वह बंगाल की खाड़ी की तरफ बढ़ रहे अमेरिकी बेड़े से डर गया था।आखिर जिनकी प्रकृति ही भीरुता की हो, वे धमकियों से भी डर जाते हैं।

बंगाल में सेनाएं आक्रामक रणनीति के मुताबिक चल रही थीं। 16 दिसंबर को ढाका में जनरल नियाजी का आत्मसमर्पण होते ही रात में युद्धविराम घोषित कर दिया गया। हमारे राजनीतिक नेतृत्व में घबराहट इतनी अधिक थी कि हाजीपीर पास आदि तो छोड़िए छंब पर पुन: आक्रमण कर वापस अपने कब्जे में लेने का समय भी सेनाओं को नहीं दिया गया। यदि आक्रामक नीति कायम रहती तो हम हाजीपीर, स्कर्दू और गिलगिट पर काबिज होते। सेनाएं लाहौर,स्यालकोट में दाखिल हो रही होतीं। नौसेना कराची बंदरगाह को और थल सेना अमरकोट,थरपारकर तक बढ़ गई होती, मगर नहीं, क्योंकि इंदिरा गांधी बांग्लादेश की आजादी के निष्काम कर्म से ही संतुष्ट थीं।

बांग्लादेश बनाने की वाहवाही को भारत के राष्ट्रीय हित से अधिक महत्व दिया गया। शिमला समझौता हुआ। भुट्टो को उनके सैनिक मिल गए,पर हमने छंब गंवा दिया। बांग्लादेश बनने के बाद वहां की प्रताड़ित 85 लाख हिंदू आबादी की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी हमें लेनी चाहिए थी,लेकिन राष्ट्रीय हित की समझ के अभाव से ऐसा न हो सका।

राष्ट्रवाद का जन्म तो इस देश में जैसे 2014 के बाद हुआ है। उससे पहले सत्ताओं ने तुष्टीकरण के खेल में देश को सराय बना रखा था। 1971 तो एक महान जनरल की सैन्य विजय थी जिससे कश्मीर का हल निकलता,परंतु राजनीति की स्थापित क्षुद्रताओं ने इसे अर्थहीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

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