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कैसे चुने जाते हैं राज्यसभा के लिए सांसद ? समझिए पूरी प्रक्रिया ……
नौ नवम्बर को राज्यसभा की उत्तरप्रदेश 10 और उत्तराखंड की एक सीट के लिए होना है चुनाव
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
जानिए राज्य सभा की पृष्ठ भूमि
काउंसिल ऑफ स्टेट्स, जिसे राज्य सभा भी कहा जाता है, एक ऐसा नाम है जिसकी घोषणा सभापीठ द्वारा सभा में 23 अगस्त, 1954 को की गई थी। इसकी अपनी खास विशेषताएं हैं। भारत में द्वितीय सदन का प्रारम्भ 1918 के मोन्टेग-चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन से हुआ। भारत सरकार अधिनियम, 1919 में तत्कालीन विधानमंडल के द्वितीय सदन के तौर पर काउंसिल ऑफ स्टेट्स का सृजन करने का उपबंध किया गया जिसका विशेषाधिकार सीमित था और जो वस्तुत: 1921 में अस्तित्व में आया। गवर्नर-जनरल तत्कालीन काउंसिल ऑफ स्टेट्स का पदेन अध्यक्ष होता था। भारत सरकार अधिनियम, 1935 के माध्यम से इसके गठन में शायद ही कोई परिवर्तन किए गए।
संविधान सभा, जिसकी पहली बैठक 9 दिसम्बर 1946 को हुई थी, ने भी 1950 तक केन्द्रीय विधानमंडल के रूप में कार्य किया, फिर इसे ‘अनंतिम संसद’ के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। इस अवधि के दौरान, केन्द्रीय विधानमंडल जिसे ‘संविधान सभा’ (विधायी) और आगे चलकर ‘अनंतिम संसद’ कहा गया, 1952 में पहले चुनाव कराए जाने तक, एक-सदनी रहा।
स्वतंत्र भारत में द्वितीय सदन की उपयोगिता अथवा अनुपयोगिता के संबंध में संविधान सभा में विस्तृत बहस हुई और अन्तत: स्वतंत्र भारत के लिए एक द्विसदनी विधानमंडल बनाने का निर्णय मुख्य रूप से इसलिए किया गया क्योंकि परिसंघीय प्रणाली को अपार विविधताओं वाले इतने विशाल देश के लिए सर्वाधिक सहज स्वरूप की सरकार माना गया। वस्तुत:, एक प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित एकल सभा को स्वतंत्र भारत के समक्ष आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए अपर्याप्त समझा गया। अत:, ‘काउंसिल ऑफ स्टेट्स’ के रूप में ज्ञात एक ऐसे द्वितीय सदन का सृजन किया गया जिसकी संरचना और निर्वाचन पद्धति प्रत्यक्षत: निर्वाचित लोक सभा से पूर्णत: भिन्न थी। इसे एक ऐसा अन्य सदन समझा गया, जिसकी सदस्य संख्या लोक सभा (हाउस ऑफ पीपुल) से कम है। इसका आशय परिसंघीय सदन अर्थात् एक ऐसी सभा से था जिसका निर्वाचन राज्यों और दो संघ राज्य क्षेत्रों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया गया, जिनमें राज्यों को समान प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। निर्वाचित सदस्यों के अलावा, राष्ट्रपति द्वारा सभा के लिए बारह सदस्यों के नामनिर्देशन का भी उपबंध किया गया। इसकी सदस्यता हेतु न्यूनतम आयु तीस वर्ष नियत की गई जबकि निचले सदन के लिए यह पच्चीस वर्ष है। काउंसिल ऑफ स्टेट्स की सभा में गरिमा और प्रतिष्ठा के अवयव संयोजित किए गए। ऐसा भारत के उपराष्ट्रपति को राज्य सभा का पदेन सभापति बनाकर किया गया, जो इसकी बैठकों का सभापतित्व करते हैं।
देहरादून : भारत में संसद के दो सदन हैं, लोकसभा और राज्यसभा। लोकसभा चुनाव अमूमन हर पांच साल में होते हैं। इसकी प्रक्रिया से लगभग सभी लोग परिचित हैं। लोग अपने संसदीय क्षेत्र के प्रतिनिधि के लिए सीधे वोटिंग करते हैं और चुने हुए सांसद उस क्षेत्र का लोकसभा में प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन राज्यसभा जिसे हमारे संविधान में उच्च सदन भी कहा गया है, के सांसदों का चुनाव कैसे होता है ? ये प्रक्रिया थोड़ी जटिल सी है और इसमें लोग सीधे सांसदों का चुनाव नहीं करते हैं। बल्कि इनका चुनाव विधायकों द्वारा किया जाता है। और एक महत्वपूर्ण बात जिस पार्टी के जिस राज्य में ज्यादा विधायक आते हैं वहां से केंद्र सरकार में सत्तारूढ़ दल ही लगभग विजय प्राप्त करता रहा है। भले ही तिकड़म बाजी से विधायकों को कोई प्रलोभन न दिया गया हो। राज्यसभा की चुनाव प्रक्रिया को ‘इनडायरेक्ट इलेक्शन’ कहा जाता है। उत्तराखंड और उत्तरप्रदेश में नौ नवंबर को राज्यसभा की 11 सीटों के लिए यह चुनाव होने जा रहे हैं।
चुनाव से पहले आइए जान लेते हैं कि चुनाव की प्रक्रिया कैसे होती है…………..
राज्यसभा में आखिर हैं कुल कितनी सीट ?
संविधान के अनुच्छेद 80 के मुताबिक राज्यसभा में कुल 250 सदस्य हो सकते हैं। इनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति नामित करता है और बाकी 238 सदस्यों को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रतिनिधि चुनते हैं। राष्ट्रपति साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक कामों में विशेष ज्ञान या अनुभव रखने वाले लोगों को नामित करते रहे हैं। देश के उपराष्ट्रपति राज्यसभा के अध्यक्ष यानि चेयरपर्सन होते हैं। इस सदन के सदस्यों का कार्यकाल छह सालों का होता है। राज्यसभा में मौजूदा उम्मीदवारों की संख्या 245 है, जिनमें से 233 सदस्य राज्यों और संघ राज्य क्षेत्र दिल्ली तथा पुडुचेरी के प्रतिनिधि हैं और 12 राष्ट्रपति द्वारा नाम निर्देशित हैं।
प्रदेशों के बीच कैसे होता है सीटों का बंटवारा
राज्यसभा में सीटों का बंटवारा राज्यों की जनसंख्या के मुताबिक होता है। मतलब कि कौन सा राज्य सदन में कितने सदस्य भेज सकते हैं, ये उस राज्य या केंद्र शासित प्रदेश की जनसंख्या पर निर्भर करता है। इसलिए राज्यों का बंटना या नए राज्यों का बन जाना राज्यसभा में सीटों के बंटवारे को प्रभावित करता है। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या सबसे ज्यादा है, इसलिए वहां से सबसे ज्यादा 31 राज्यसभा सदस्य चुने जाते हैं।
जानिए राज्यसभा की चुनाव प्रक्रिया
राज्यसभा सदस्यों का चुनाव ‘इनडायरेक्ट इलेक्शन’ प्रक्रिया के तहत होता है। इसमें राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लोग नहीं, बल्कि उनके चुने हुए विधानसभा प्रतिनिधि यानी कि विधायक वोट करते हैं। राज्यसभा में विधायकों के वोट करने की इस प्रक्रिया को ‘केवल एक ही स्थानान्तरणीय वोट के जरिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व का सिस्टम’ या फिर ‘proportional representation with the single transferable vote system’ कहते हैं। इसका मतलब ये होता है कि जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व होगा और विधायक एक ही वोट डालेंगे, जो एक उम्मीदवार से दूसरे उम्मीदवार को ट्रांसफर हो सकता है।
वोट का ट्रांसफर दो सूरतों में होता है। पहली, जब उम्मीदवार को जीतने के लिए जितने जरूरी हैं, उससे ज्यादा वोट मिले हों। दूसरा, जब किसी उम्मीदवार को इतने कम वोट मिले हों कि उसके पास कोई मौका ही न हो।
हर विधायक का वोट एक ही बार गिना जाता है। इसलिए वो हर सीट के लिए वोट नहीं कर सकते हैं। बैलट पेपर पर उम्मीदवारों के नाम होते हैं और विधायक इन नामों पर अपनी वरीयता के मुताबिक 1,2,3,4 और ऐसे ही आगे के अंक लिख देते हैं। जब विधायक किसी उम्मीदवार को ‘1’ वरीयता देता है, तो उम्मीदवार को ‘पहली वरीयता’ का वोट मिल जाता है। उम्मीदवार को जीतने के लिए ऐसे ही एक ‘तय नंबर’ के ‘पहली वरीयता’ वोट चाहिए होते हैं। ये ‘तय नंबर’ राज्य की कुल विधानसभा सीटों और वहां से राज्यसभा में जाने वाले सांसदों की संख्या पर निर्भर करता है।
उदाहरण के लिए यह समझिए गणित ………..
राज्यसभा सीट जीतने के लिए उम्मीदवार को जितने ‘पहली वरीयता’ के वोट चाहिए होते हैं, उनकी गणना के लिए एक फॉर्मूला है = [कुल विधायकों की संख्या / (चुनाव के लिए राज्यसभा सीटें + 1)] + 1।
अब उत्तर प्रदेश के उदाहरण से समझते हैं। प्रदेश में कुल विधायकों की संख्या 403 होती है। मान लीजिए 10 राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव होना है। तो जीत के लिए ‘पहली वरीयता’ के वोट कुछ इस तरह पता चल सकते हैं- [403 / (10 + 1)] + 1=37। यानि कि जिस उम्मीदवार को 37 ‘पहली वरीयता’ के वोट मिल जाएंगे, वो राज्यसभा सीट जीत जाएगा।
इसके अलावा वोट देने वाले प्रत्येक विधायक को यह भी बताना होता है कि उसकी पहली पसंद और दूसरी पसंद का उम्मीदवार कौन है। इससे वोट प्राथमिकता के आधार पर दिए जाते हैं। यदि उम्मीदवार को पहली प्राथमिकता का वोट मिल जाता है तो वो वह जीत जाता है नहीं तो इसके लिए चुनाव होता है।
लोकसभा की तरह राज्यसभा नहीं होती कभी भी भंग
राज्यसभा के सभापति भारत के उपराष्ट्रपति होते हैं। इसके सदस्य छह साल के लिए चुने जाते हैं। इनमें से एक तिहाई सदस्यों का कार्यकाल प्रत्येक दो साल में पूरा हो जाता है। इसका मतलब साफ़ है कि प्रत्येक दो साल पर राज्यसभा के एक तिहाई सदस्य बदलते रहते हैं न कि यह सदन भंग होता है। यानी राज्यसभा हमेशा बनी रहती है यह कभी भी लोकसभा की तरह भंग नहीं होती ।
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