मनोवृत्ति को आत्मीयता से समझने और उनमें साहस और सकारात्मकता के भावों को पुनः जागृत करने की जरूरत
डॉ. अरुण कुकसाल
….प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और सामाजिक चिंतक प्रो. पी. सी. जोशी का यह कथन बेहद प्रासंगिक है कि ‘‘….यह स्वीकार करते हुए अत्यंत लज्जा महसूस करता हूं कि मैंने देश-दुनिया में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में यथाशक्ति काम किया और प्रतिष्ठा भी प्राप्त की लेकिन उत्तराखंड के निर्माण और विकास संबंधी शोधकार्य में कोई भी योगदान नहीं दे पाया। मुझे यह भी महसूस करते हुए लज्जा होती है कि दिगोली ग्राम, जहां मेरा जन्म हुआ जिसने अनेक प्रतिभाशाली व्यक्तियों को जन्म दिया जिन्होने शिक्षा, प्रशासन आदि क्षेत्रों में नाम कमाया लेकिन अपने गांव के प्रति इन प्रतिभाशाली व्यक्तियों का कोई प्रत्यक्ष योगदान न हो सका।
मुझे एक बार जियोर्जिया में एक अर्थशास्त्री ने इस कटु सत्य का अहसास कराया। उसने कहा कि उसकी उन्नति उसके ग्राम और उसके समस्त समुदाय की उन्नति के साथ हुई है। उसके पूछने पर मुझे यह स्वीकार करना पड़ा कि मेरी उन्नति अपने ग्राम और अपने इलाके की उन्नति के साथ नहीं हुई है, उससे कटकर हुई है।
जो राष्ट्रीय उन्नति स्थानीय उन्नति को खोने की कीमत पर होती है वह कभी स्थाई नहीं हो सकती। उत्तराखंड के बुद्धिजीवियों का देश की उन्नति में कितना ही बड़ा योगदान हो, उनके उत्तराखंड की समस्याओं से अलगाव और उत्तराखंड की उन्नति में योगदान से उनकी उदासीनता उनके जीवन की बड़ी अपूर्णता है। यह राष्ट्र की भी बड़ी त्रासदी है।’‘ (प्रो पी.सी. जोशी, पहाड़-8, नैनीताल, वर्ष-1995)
प्रो. पी. सी. जोशी के उक्त विचार मुझे हमेशा प्रेरक बनकर अपने गांव-इलाके से जोड़े रखने में सहायक सिद्ध हुआ है।
अतः आज आवश्यकता गांव में रहकर ग्रामीणों के मनोविज्ञान और जीवनीय दिक्कतों को समझने तथा स्थानीय अवसरों, संसाधनों एवं सम्भावनाओं के अनुरूप कारगर कार्य करने की हैं। समाज में अधिकांश परिवर्तन स्वःस्फूर्त, स्वाभाविक एवं समयागत होते हैं। उन्हें रोका भी नहीं जा सकता और उनके मार्ग में अनावश्यक अवरोध भी खडे़ नहीं किए जाने चाहिए। वास्तविकता यह है कि परिवर्तनशीलता स्थानीय समाज को जीवन्तता तथा नवीन परिस्थितियों के अनुकूल आकार लेने की ओर प्रेरित एवं विकसित करती हैं। बस, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिवर्तनों को स्थानीय उद्यमशीलता से जोड़ने की जरूरत है। इसके लिए स्थानीय संसाधनों के मौलिक स्वरूप को समझते हुए उनके सर्वोत्तम उपयोगों की ओर क्रियाशील होना होगा।
इन्हीं अर्थों में मेरे गांव चामी की तरह उत्तराखण्ड के सभी गांवों की परिर्वतनशील विकास प्रक्रिया को एक सही दिशा और गति देनी होगी। इसके लिए बाहर नहीं वरन् स्थानीय समाज में ही उपलब्ध संसाधनों, चुनौतियों एवं अवसरों को तलाशना और तराशना होगा।
मैं गांव में रहते हुए इस बात से पूर्णतया आश्वस्त हूं कि इस कोरोना काल से उपजी आपदा स्थानीय विकास के समग्र अवसरों में तब्दील होकर ग्रामीण पहाड़ी समाज को पुनः पैतृक आत्मनिर्भर स्वरूप प्रदान करने में सहायक होगा। ऐसा इसलिए कि गांव के सयानों के साथ-साथ युवा और बच्चे अपने गांव और पैतृक भूमि की नये संदर्भों में अहमियत को समझ रहे हैं। उदाहरण देता हूं, कि गांव के युवाओं को लगता है कि उदासी और नकारात्मकता का भाव सबसे ज्यादा रोज इन खंडहर हो गये घरों को देखने से ही उपजता है। इसके लिए गांव के युवाओं की प्रवासियों से अपने पैतृक घरों को ठीक करने की अपील ने रंग जमाया। नतीजन, विगत वर्षों में गांव के अधिकांश टूटे-फूटे घर आज आधुनिक और खूबसूरत स्वरूप में आ गये हैं। समस्या यह है कि दिन में बंदर और रात को सुअर खेतों को नुकसान पहुंचाते हैं। इसके विकल्प में जड़ी-बूटी और ऐसी फसलों की ओर हम उन्मुख हुए हैं जिन्हें जानवर नुकसान नहीं पहुंचाते है। यह क्या कम है कि गांव के युवाओं ने अपने ही प्रयासों से पुस्तकालय और कम्प्यूटर सैंटर चलाने की पहल की है। प्रवासी बन्धुओं की मदद और मार्गदर्शन से इस कैरियर सैंटर को डिजिटल करने की ओर गांव के युवा प्रयासरत हैं।
ये युवा चामी ग्राम सभा का आगामी 25 वर्षों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक मास्टर प्लान पर कार्य कर रहे हैं। इसमें गांव के इतिहास, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक आदि पहलुओं पर कार्य किया जा रहा है। इन युवाओं की यह पहल भविष्य के नये आयामों के द्वार खोलेगी। अभी उनके चिन्तन और प्रयासों में थोड़ी हिचकिचाहट की छाया है, पर समय के साथ यह कुहासा भी छटेगा। मेरी समझ यह कहती है कि यदि हम गांव में रह रहे ग्रामीणों और उनके प्रवासी बन्धु-बांधुओं के बीच निरन्तर सही, सुगम और पारदर्शी समन्वयन को सफलतापूर्वक संचालित कर लें तो पलायन की चर्चा ही निरर्थक लगेगी।
मैं पुनः यह बात विनम्रता के साथ परन्तु मजबूती से कहना चाहता हूं कि किसी भी स्तर से गांव के समग्र विकास की बात कही जाती है तो उसे/उन्हें स्वयं इस तरह का व्यवहारिक आचरण और पहल करनी होगी। हमें दूसरों से कहने-लिखने से ज्यादा खुद साबित करके दिखाना होगा।
गांव में आना-जाना और गांव में ग्रामीणों जैसा स्थाई तौर पर रहना इन दोनों प्रवृत्तियों में बहुत अन्तर है। गांव में जीवकोपार्जन करके जीवन चलाने की दिक्कतें दिखती कम हैं उसे गांव में रहकर ही महसूस किया जा सकता है।
अच्छी पढ़ाई के लिए देहरादून और अच्छे इलाज के लिए दिल्ली से नजदीक कोई सुविधा सरकार और समाज हमारे उत्तराखंडी पहाड़ी गांवों को नहीं दे पाई है। बावजूद इसके, हम ग्रामीण पहाड़ी लोग शहरी कुंठाओं से ग्रस्त नहीं हुये हैं। यही हमारी ताकत और पहचान है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की प्रारंभिक रिपोर्ट कहती हैं कि कोरोना महामारी के असर से विश्वस्तर पर 16 प्रतिशत युवाओं ने अपना रोजगार खोया है। उत्तराखंड में यह आंकड़ा 30 प्रतिशत से कम नहीं होगा। इस हिसाब से तकरीबन 1.5 लाख नये युवाओं को तुरंत रोजगार देने की चुनौती हमारे सामने है। इस तरह पहाड़ के प्रति गांव में आगामी एक साल के अंदर 7 से 10 नये युवा नये रोजगार को प्राप्त करने की लाइन में होंगे। यह भी महत्वपूर्ण है कि अपने वर्तमान रोजगारों से छूटने के बाद वापस आने वाले ये युवा अधिकांशतया 30 वर्ष से कम आयु के हैं। यही आयु होती है जब युवा शिक्षा, प्रशिक्षण और रोजगार पर अपने मन – मस्तिष्क को केन्द्रित करता है।
ऐसे समय में अपने गांव – इलाके वापस आने वाले युवाओं की मनोदशा – मनोवृत्ति को आत्मीयता से समझने और उनमें साहस और सकारात्मकता के भावों को पुनः जागृत करने की जरूरत है। अभी तो उन पर बेवजह छाये अपराध बोध को कम करके उन्हें सामान्य जीवन की मुख्य धारा में लाने की सार्थक पहल करनी होगी।
मुझे गढ़वाल के इतिहास में ‘बावनी अकाल’ का घ्यान आ रहा है। विक्रम संवत् 1852 (सन् 1795) के भयंकर अकाल में गढ़वाली लोग कई दिनों तक भूख से बेहाल रहे परन्तु उन्होने अपनी खेती के परम्परागत बीजों को नहीं खाया। उन्हें विश्वास था जब तक ये परम्परागत बीज उनके पास उपलब्ध है उन पर जीवनीय संकट नहीं आ सकता है। वे आश्वस्त थे कि कुछ समय के दुर्दिनों के बाद अपने इन मौलिक बीजों का खेती में उपयोग करने से वे अकाल पर विजय प्राप्त कर लेंगे। उनका विश्वास सही साबित हुआ उन्हीं बीजों के बदौलत बाद में उनके जीवन में फिर से खुशहाली आ गई थी।
इसी तरह गांव के बुजुर्गों से जो उन्होने अपने सयानों से सुना था कि सन् 1920 की महामारी (इस महामारी की वजह से उत्तराखंड की जनसंख्या जो सन् 1911 में 22 लाख थी घटकर सन् 1921 में 21 लाख अर्थात इन 10 सालों में 1 लाख कम हो गई थी।) के समय भी पहाड़ के लोग जान बचाने जगंलों की ओर भागते समय अपने मूल्यवान धन के साथ तोमड़ियों (बीज रखने के लिए बड़ी -स्वस्थ्य लोकियों को झाल में ही सुखाया जाता है। झाल सूखने के बाद उनके अन्दर बचे-खुचे को बाहर निकाल कर उसके खोल में कृषि उपज के बीजों को रखा जाता है। ऐसा करके बीजों पर कीड़ा नहीं लगता और वे दीर्घकाल तक सुरक्षित रहते हैं।) में खेती-किसानी के बीजों को ले जाना नहीं भूले थे। पूर्ववत महामारियों में अपने पूर्वजों के अनुभवों के बल पर इन्हीं बीजों के कारण महामारी टलने के बाद उन्हें अपनी ग्रामीण जीवन-चर्या को फिर से चलाने में कोई विशेष दिक्कत नहीं आई थी।
आज हमें भी अपने मन-मस्तिष्क में विगत शताब्दियों में आई भयंकर विपत्तियों से निपटने में हमारे पूर्वजों द्वारा अपनाई गई सकारात्मकता के बीजों को पुर्नजीवित करने की जरूरत है। इन 100 सालों में पहाड़ी गांवों और ग्रामीणों की जीवन शैली का परिदृश्य बदल चुका है। मानवीय समझ और भौतिक सुविधाओं का आधुनिक जीवन शैली के अनुरूप विकास – विस्तार हुआ है। जीवनीय आशायें और अवसर आज पहले की अपेक्षा ज्यादा प्रभावी रूप में विद्यमान हैं। उन्हें नई गति और दिशा देने की जरूरत है। अनवरत सामाजिक विकास में शताब्दी पूर्व के हुनर को पुनःस्थापित करना और कराना ज्यादा मुश्किल नहीं है।
यह वक्त नकारात्मकता की ओर देखने का नहीं वरन अपने कोे और अपनों के बीच की जद्दोजेहत से बाहर आकर पहाड़ और पहाड़ी जीवन – चर्या के परम्परागत सामांजस्य को देखने – समझने और उसे अपनाने की जरूरत है। और यह हम गांठ बांध ले कि यह कार्य केवल सरकारी भरोसे तो कदापि संभव नहीं है। संपूर्ण समाज की सामुहिक नागरिक शक्ति ही आत्मनिर्भर जीवन की जीवंतता को पुनः स्थापित करेगी।