मुश्किल में हैं राजाजी नेशनल पार्क में रहने वाले करीब 8 से 10 वन गुर्जरों के परिवार
देवभूमि मीडिया ब्यूरो
देहरादून। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के बॉर्डर के जंगलों में रहने वाले वन गुर्जरों पर भी लॉकडाउन का खास असर पड़ा है। लॉकडाउन की वजह से न तो इनके मवेशियों को चारा मिल पा रहा है और न ही इनके पास खुद खाने के लिए राशन बचा है। लॉकडाउन के कारण वन गुर्जरों के मुख्य व्यवसाय दूध के कारोबार पर काफी फर्क पड़ा है, क्योंकि बंदी की वजह से मवेशियों का दूध भी नहीं बिक रहा है। ऐसे में खाने पीने के लाले पड़े हुए है।
इस समय गर्मी का मौसम है और इस दौरान जंगलों में इनके मवेशियों के लिए चारा भी नहीं मिल रहा है। उपर से लॉकडाउन है। वैसे इस मौसम में वन गुर्जर अपने मवेशियों के साथ उत्तराखंड के ऊंचाई वाले बुग्याल (घास के बड़े बड़े मैदानों) वाले इलाकों में जाते थे। यहां पर ये अपने मवेशियों के साथ सर्दियों तक रहते थे। इन ऊंचाई वाले इलाकों में इनके जानवरों के लिए भरपूर चारा भी मिलाता था और इन दूध का कारोबार भी चलता था। लेकिन लॉकडाउन के कारण ये ऊंचाई वाले इलाकों के बुग्याल में भी नहीं जा सकते है। ऐसे में इन जंगलो में रहने वाले वन गुर्जरों पर लॉकडाउन के कारण कई तरह की मार पड़ी है। हालत तो ये हैं कि जहां इस लॉकडाउन में सरकार और सामाजिक संगठन जरूरतमंदों की मदद कर रहे हैं लेकिन वहीं इन वन गुर्जरो की तरफ कोई नहीं देख रहा है। वैसे वन गुर्जरो का जंगलों से पुराना नाता रहा है। वन गुर्जर जंगलों में अपने मवेशियों के साथ लंबे समय तक रहते हैं।
देहरादून के से सटे राजाजी नेशनल पार्क में रहने वाले करीब 8 से 10 वन गुर्जरों के परिवार लॉकडाउन के कारण परेशानी में हैं। वन गुर्जरों का मुख्य और पुश्तैनी दूध का व्यवसाय बिल्कुल खत्म होने की कगार पर आ गया है। वहीं, वन गुर्जरों के प्रधान मुस्तफा कहते है उनकी कई पुश्त जंगलों में रह रही है। वे कहते है कि 1834 से उनके पूर्वज यही रह रहे हैं। लेकिन कभी उन्होंने और उनके पूर्वजों ने ऐसा समय नहीं देखा. मुस्तफा मानते है कि इस समय वन गुर्जरों की हालत बड़ी खराब है। न तो उनका दूध बिक रहा है और न ही उनके जानवरों को चारा मिल रहा है। साथ ही वो बुग्यालों में अपने मवेशियों के साथ नहीं जा पा रहे हैं। वहीं, वन गुर्जरों को बच्चों का पेट पालने में दिक्कत आ रही है। जैसे-तैसे ये अपने परिवार का पेट पाल रहे है। नूरजहां कहती है कि कि घर में पहले से जो कुछ राशन बचा था वह भी अब खत्म होने को है। ऐसे में थोड़ा-थोड़ा कर के वे लोग अपने परिवारों का पेट भर रहे हैं।